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और फिर इमरजेंसी के बाद बदल गई बंगाल की सियासत

प्रीति सिंह

पश्चिम बंगाल में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले पर हमले के बाद से चुनावी सरगर्मी बढ़ गई है। भले ही राज्य में विधानसभा चुनावों की तारीखों का अभी ऐलान नहीं हुआ है, लेकिन उससे पहले ही चुनावी शतरंज की बिसात बिछ चुकी है और दोनों प्रमुख दलों भाजपा और टीएमसी के खिलाड़ी अपनी-अपनी चालें चलनी शुरू कर दी हैं।

जेपी नड्डा के काफिले पर हमले के बाद से बीजेपी ने टीएमसी को देख लेने की धमकी दी है। वहीं खबर है भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता भिड़ गए हैं। बताया जा रहा है कि पश्चिम बर्धमान जिले के डूंगरपुर में दोनों राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के बीच विवाद हुआ है।

राजनीतिक झड़पे और हिंसा पश्चिम बंगाल में नई नहीं है। बंगाल में 60 के दशक से राजनीतिक झड़पें और हिंसा ही चुनावी हथियार रहे हैं। अगर बंगाल का राजनीतिक इतिहास गौर से देखें, तो पता चलता है कि हिंसा की ये घटनाएं न तो पहली बार हो रही हैं और न ही आखिर बार होंगी।

जुबिली पोस्ट ने पश्चिम बंगाल में नई नहीं है राजनीतिक हिंसा’  शीर्षक से शुक्रवार को स्टोरी प्रकाशित की थी। उस स्टोरी का अगली कड़ी पढि़ए इस लेख में-

आपातकाल लगने के बाद पश्चिम बंगाल में वाम दलों के नेताओं को गिरफ्तार किया गया। इस दौरान वामदल के कई नेताओं की हत्याएं भी हुईं। इसके लिए विपक्ष सिद्धार्थ शंकर रॉय को जिम्मेदार ठहरा रहा था, लेकिन बाद में सिद्धार्थ शंकर रॉ के खिलाफ कुछ साबित नहीं हुआ, लेकिन राज्य में हिंसा-प्रतिहिंसा की शुरुआत हो चुकी थी।

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जब 1977 में आपातकाल हटा तो एक बार फिर से पूरे देश में चुनाव हुए। पश्चिम बंगाल में भी चुनाव हुए और इस बार फिर से हिंसा हुई। हर स्तर पर हिंसा हुई। बूथ कैप्चरिंग से लेकर प्रत्याशियों के अपहरण और उनकी हत्या तक की घटनाएं सामने आईं। स्थिति इतनी खराब थी कि जिन नेताओं को आपातकाल के दौरान गिरफ्तार किया गया था, वो जेल से ही चुनाव लड़े और वो ही सुरक्षित रहे। जब नतीजे आए तो कांग्रेस चुनाव हार चुकी थी और पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु के नेतृत्व में वाम मोर्चे की सरकार बनी।

कांग्रेस विपक्ष में थी और बदला लेने की बारी वाम मोर्चे की। ज्योति बसु के नेतृत्व में बनी सरकार, उनकी पुलिस और उनके कार्यकर्ताओं ने कांग्रेस और उसके नेताओं पर हमला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सियासी हत्याएं होती रहीं। लगातार कांग्रेस के कार्यकर्ता मारे जाते रहे। हर साल सैकड़ों लोग मारे गए और ये क्रम लगातार चलता रहा।

1977 से 1996 तक राजनीतिक हिंसा में 28,000 लोगों की मौत

वामदल की सरकार में गृहमंत्री रहे बुद्धदेब भट्टाचार्य ने सन 1997 में विधानसभा मे जानकारी दी थी कि वर्ष 1977 से 1996 तक पश्चिम बंगाल में 28,000 लोग राजनीतिक हिंसा में मारे गये थे।

ये आंकड़े राजनीतिक हिंसा की भयावह तस्वीर पेश करते हैं। 1977 के बाद से राज्य में जितने भी चुनाव मसलन लोकसभा, विधानसभा और पंचायत के चुनाव हुए और हर चुनाव में हिंसा हुई। हर बार हिंसा में हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी।

हालांकि वाममोर्चे की सरकार ने राज्य में भूमि सुधार जैसे असाधारण काम किए और आम लोगों को अधिकार संपन्न बनाने की कोशिश की। वाममोर्चे के जनोन्मुख नीतियों का इतना सकारात्मक असर हुआ और राज्य में कांग्रेस की स्थिति लगातार इतनी कमजोर होती गई कि अगले 34 सालों तक यानी वर्ष 2011 तक राज्य में वामपंथियों को सत्ता से कोई हटा नहीं पाया।

1947 से 1977 तक जहां राज्य में सात मुख्यमंत्री बदले और तीन बार राष्ट्रपति शासन रहा, वहीं 1977 से 2011 तक वाममोर्चा के सिर्फ दो मुख्यमंत्रियों ने कामकाज संभाला। पहले ज्योति बसु 21 जून 1977 से छह नवंबर 2000 तक मुख्यमंत्री रहे फिर अपनी उम्र का हवाला देते हुए जब वे मुख्यमंत्री पद से हटे तो बुद्धदेब भट्टाचार्य ने कमान संभाली।

राजनीति में बड़ा बदलाव लेकिन नहीं रुकी हिंसा

जिस वाम दल को कांग्रेस से चुनौती मिल रही थी उसे ममता की नई पार्टी चुनौती देने लगी थी। जनवरी 1998 में बनी ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस ने वाम दलों को चुनौती देनी शुरू की। वहीं बीजेपी ने भी धीरे-धीरे ही सही अपने पांव जमाने शुरू कर दिए थे। इन दोनों चुनौतियों से एक साथ निपटने के लिए एक बार फिर वाम दल ने हिंसा का सहारा लिया।

दिसंबर 2006 में जब पश्चिम बंगाल में हल्दिया के नंदिग्राम के करीब 70,000 लोगों को घर खाली करने का सरकारी फरमान सुनाया गया तो ममता बनर्जी के अगुवाई में पूरे नंदीग्राम में आंदोलन हुआ।

इस आंदोलन को दबाने की कोशिश में पुलिसिया फायरिंग में कम से कम 14 लोग मारे गए, जिसके बाद ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में मजबूत विपक्षी के तौर पर उभर कर सामने आईं। 2009 में जब लोकसभा चुनाव हुए, तो ममता बनर्जी को 19 सीटें मिलीं। वहीं 2010 में हुए पंचायत चुनाव में भी पार्टी ने बहुमत के साथ वापसी की।

2011 में विधानसभा का चुनाव में ममता बनर्जी ने वामपंथ के सबसे बड़े किले को ढहा कर मुख्यमंत्री बनी। ममता मुख्यमंत्री बनी तो उम्मीद जगी कि पश्चिम बंगाल में राजनैतिक हिंसा पर लगाम लगेगी लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। 30 साल के संघर्ष से मिली सत्ता को बचाने के लिए ममता ने भी उसी राह का अनुकरण किया, जिस राह पर वाम और कांग्रेस चली थी। सत्ता बचाने की कोशिश में एक काम विपक्षी दलों को सत्ता की मदद से उनके अंजाम तक पहुंचाना रहा है।

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2016 में जब दोबारा राज्य में विधानसभा चुनाव हुए, तो ममता बनर्जी की पार्टी को एक बार फिर से जीत हासिल हुई। 1967 से शुरू हुई राजनैतिक हिंसा 2018 तक पहुंच गई है। इसमें एक जो चीज कॉमन है वो है सत्ता। सत्ता कांग्रेस के हाथ में रही, तो उसने वामदलों को कुचला। जब सत्ता वामदलों के हाथ में आई तो उसने कांग्रेस को कुचला। जब सत्ता इन दोनों के हाथ से छिटककर तीसरी पार्टी टीएमसी के हाथ में आ गई, तो वो इन दोनों को ही कुचल रही है।

राजनीतिक हिंसा की क्या है वजह

वर्तमान में पश्चिम बंगाल में राजनीतिक झड़पों में बढ़ोतरी के पीछे मुख्य तौर पर तीन वजहें मानी जा रही हैं। पहली बेरोजगारी, दूसरी विधि-शासन पर सत्ताधारी दल का वर्चस्व और तीसरी भाजपा का उभार। अन्य राज्यों की तरह बंगाल में भी जनसंख्या लगातार बढ़ती जा रही है, लेकिन उद्योग-धंधों में उस अनुपात में बढ़ोतरी नहीं हो रही है।

बेरोजगार युवक अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए किसी न किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ रहे हैं ताकि पंचायत और नगरपालिका स्तर पर होने वाले ठेके मिल सके। स्थानीय स्तर पर होने वाली वसूली भी कमाई का एक जरिया ही है। इसीलिए वो हर कीमत पर अपने उम्मीदवार को जिताना चाहते हैं, चाहे उसके लिए कितनी भी हिंसा क्यों न करनी पड़े।

2019 में हुए लोकसभा चुनाव में बंगाल में बीजेपी और टीएमसी के बीच सीधे मुकाबला रहा था। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में राज्य में वोट प्रतिशत बढऩे के बाद भाजपा ने बंगाल में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण तेज कर दिया है और इससे भी झड़पों को हवा मिली। बीजेपी मुसलमानों का डर दिखाकर हिंदुओं का ध्रुवीकरण कर रही है और तृणमूल कांग्रेस भाजपा का खौफ दिखाकर मुसलमानों का वोट अपने पक्ष में कर रही है। इससे आप क्या उम्मीद करते हैं कि राज्य में अमन चैन आयेगा?

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