Saturday - 26 October 2024 - 7:43 PM

इस लेख की हेडिंग आप बनाइये

उत्कर्ष सिन्हा

सुबह सुबह घर के बाहर सकुचाया हुआ आदमी देखा, साईकिल की हैंडील पर पानी की एक बोतल टंगी थी और आगे एक नन्हा बच्चा बैठ था। धीरे से आवाज आई । कुछ खाने को मिल जाएगा ? ये आवाज उसके आँखों के सूनेपन से सिन्क्रॉनईज थी।

खाने का इंतजाम होने के बाद बातों का सिलसिला आगे बढा । 2 दिन से निकला था और लखनऊ से आगे करीब 150 किलोमीटर गोंडा जाना था । मगर एक बात अंदर तक हिला गई – “आज तक मेहनत कर के खाता था साहब, पहली बार मांगा है । बच्चे की भूख ने हौसला तोड़ दिया है ।”

तालाबंदी ने बहुत कुछ तोड़ा है । आप कह सकते हैं कि सबसे बड़ी चीज जो टूटी है वो है हौसला। लेकिन तस्वीर इससे उलट भी है।

एक वीडिओ देखा , बैलगाड़ी पर परिवार सवार था , बैलगाड़ी में एक तरफ बैल जुता था और दूसरी तरफ औरत । औरत पहले भी गृहस्थी की बैलगाड़ी में जुती होती थी अब वास्तविक बैलगाड़ी भी उसी के कंधे पर आ गई ।
एक युवा अपनी 85 साल की माँ को साईकिल पर बैठ कर बैंगलोर से यूपी तक निकाल पड़ा।

जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं सड़क पर मजदूरों के मौत की खबरे आम होने लगी हैं । निराश और हताश में डूबे प्रवासी मजदूर अपनी सूनी आँखों और थके हुए पैरों के साथ हजारों किलोमीटर का सफर तय कर रहे हैं। मगर इनमे से कई इतने भी खुशकिस्मत नहीं हैं कि वे अपने घरवापसी के सफर को अंजाम तक पहुँच पाएं ।

बुधवार की रात देवबन्द से एक बड़ी दर्दनाक खबर आई जहाँ एक दुर्घटना में 6 लोगों की मौत हो गयी है, जबकि कई अन्य घायल हुए है । ये मजदूर पंजाब से पैदल ही वापस लौट रहे थे और देवबन्द की सीमा से जब सिटी कोतवाली मुज़फ्फरनगर सीमा में पहुंचे तो पीछे से आ रहे एक अज्ञात वाहन ने उन्हें कुचल दिया।

ये इकलौती घटना नहीं है । लखनऊ से एक मजदूर अपने 2 पत्नी और दो बच्चों के साथ उधार की साईकिल पर निकाला और एक गाड़ी ने उन्हे कुचल दिया। कई जगह बीच रास्ते में थकान से मौत हुई जा रही है । और इस दर्द भरे माहौल में सरकार की तरफ से बड़े बड़े पैकेज की घोषणा के सिवा कोई और मानवीय पहल दिखाई नहीं दे रही।

सड़क पर पुलिस की मार से बचाने के लिए रेलगाड़ी की पटरियों का रास्ता पकड़ा तो वहाँ भी कुचल के मर गए। वक्त भारी हो तो कुछ भी अच्छा नहीं होता । हमने रोजगार के लिए पलायन की बहुत तस्वीरे देखी हैं । वहाँ भी भूख वजह थी । अब रिवर्स होने का दौर है , मगर वजह फिर भी वही ।

दिल्ली के फ्लैट में बैठे किसी ने सवाल उछला । ये मजदूर ट्रेन की पटरियों पर क्यों सो गए थे? इस सवाल ने फ्रांस की रानी “मेरी” की याद दिला दी । “रोटी नहीं तो ये लोग केक क्यों नहीं खा लेते ?“ फ्रांस में तब क्रांति हो गई थी, लेकिन भारत में नहीं हो सकती।  उच्च मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा तो इन मजबूरों को कोरोना फैलाने का जिम्मेदार मनाने लगा है । वो सरकार को भी कोस रहा है कि इनके लिए गाड़ियां क्यों चलाई जा रही ? खुद की फिक्र मानवीय संवेदना को कुंद कर दे रही है।    

घरों में बैठे उच्च मध्यवर्ग के लोग खानों की रेसिपी फ़ेसबुक पर डाल रहे हैं। लाक डाउन किसी के लिए पिकनिक सरीखा है तो किसी के लिए खुद को खोजने का वक्त। इस बीच आंकड़ों की बारिश भी तेज हो रही है। लेकिन अब इन सबके पहले आँखों में सड़कों पर कतार बांधे मजबूरों की तस्वीर भारी पड़ने लगी है।

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ऐसा लगता है उत्तर प्रदेश में कोरोना से जंग पर सरकारी सेना पस्त होने लगी है। अफसर लगातार आँकड़ेबाजी के करतब दिखा रहे हैं और मुख्यमंत्री उन आकड़ों को कैमरे के सामने पढ़ दे रहे हैं। हालात इस कदर बिगड़ चुके हैं कि अब सरकारी घोषणाओं को ले कर आम जनता में कोई उत्साह भी नहीं रहा।

घर की ओर लौटते एक मजदूर से एक पत्रकार ने जब 20 लाख करोड़ के पैकेज की बात की तो उसका जवाब था-“ हम सबके लिए तो एक बस का जुगाड़ नहीं कर पा रही है सरकार । हम क्या जाने इतना पैसा क्या होता है । गरीब की फिक्र का दावा करने वाले सरकारी तंत्र को आम मजदूर की इस दिक्कत का अंदाज क्यों नहीं हो पा रहा है ये समझ से परे है ।

भारत का मध्यवर्ग उलझा हुआ है । वो कभी आंकड़ों की गणित समझने में उलझता है , कभी अपनी नौकरी की फिक्र करता है तो कभी नेटफलिक्स पर खुशी तलाश करता है । उसके पास तात्कालिक खुशी के लिए रेडीमेड मीम्स है जो उसे सोशल मीडिया पर व्यस्त रखते हैं। उसके पास अपनी भावनाओं को सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने का मौका है , जिसे वो लगातार इस्तेमाल कर खुद को हलका बनाए रखने की कोशिश कर रहा है ।

लेकिन मजबूरों के साथ उसका एक रिश्ता जरूर बना है । वो रिश्ता है फिक्र का , भरोसे का । दोनों को फिक्र है, दोनों के भरोसे डगमगाए हुए हैं । अनिश्चितता दोनों की आँखों में गहराने लगी है।

अब आप ही बताइए इस लेख कि क्या कोई हेडिंग हो सकती है ? मैं तो नहीं सोच पाया ।

 

 

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