शबाहत हुसैन विजेता
लखनऊ. वह अंग्रेज़ी के बड़े अखबार में क्राईम रिपोर्टर थे. क्राइम से जुड़ी खबरें चलकर उनके पास आती थीं. क्राइम रिपोर्टिंग करते-करते वह क्रिमनल्स की मेंटीलिटी को समझने लगे थे. पुलिस से पहले उन्हें मामलों की जानकारी हो जाती थी.
उन दिनों उनके पास मारुती की आल्टो कार हुआ करती थी. दोस्त कार मांगकर ले गया. जिस रात होलिका जलाई गई थी. उसी रात उनके दोस्त का किसी से झगड़ा हुआ. उस झगड़े में एक व्यक्ति की मौत हो गई. मरने वाले की लाश उसी आल्टो कार में लादी गई और मोहनलालगंज ले जाकर होलिका में जला दी गई.
कुछ दिनों बाद मामले की जानकारी पुलिस को हुई. हत्या और साक्ष्य मिटाने का मुकदमा दर्ज हुआ. अपराधी की तलाश शुरू हो गई. पुलिस की पड़ताल में जानकारी हुई कि हत्या में जिस कार का इस्तेमाल हुआ वह कार एक बड़े क्राइम रिपोर्टर की है. वह क्राइम रिपोर्टर थे विश्वदीप घोष.
पुलिस अधिकारियों के हाथ-पांव फूल गए. जिस पत्रकार को बड़े-बड़े अफसर दादा कहकर बात करते हैं उससे पूछताछ कौन करे. एक बड़े आईपीएस अफसर को ज़िम्मेदारी सौंपी गई. वह उस अंग्रेज़ी अखबार के दफ्तर पहुंचे और उन्हें फोन लगाया. दादा चाय पीनी है. विश्वदीप घोष ने कहा, ऊपर आइये, खबर लिख रहा हूँ. चाय पिलाता हूँ. अफसर ने कहा कि नहीं कहीं बाहर चाय पीनी है. इस पर उन्होंने कहा कि फिर तो रात दो-ढाई बजे तक ही साथ में चाय पी जा सकती है.
वह आईपीएस अफसर रात दो बजे तक अखबार के दफ्तर के बाहर अपनी गाड़ी में बैठा रहा. वह काम निबटाकर निकले तो बोले आओ घर चलते हैं, यहीं पास में है लाप्लास में. अफसर ने कहा कि नहीं दादा मेरी गाड़ी में आइये, इतनी रात को घर नहीं हजरतगंज थाने में चाय पी जायेगी. हजरतगंज थाना तब वहां था जहाँ अब मल्टी लेबल पार्किंग बनी है. विश्वदीप घोष निश्चिन्त होकर गाड़ी में बैठ गए. हजरतगंज थाने में चाय आई, बंद मक्खन आया. सुबह साढ़े चार बजे तक बात हुई मगर अफसर की हिम्मत नहीं पड़ी कि बात को शुरू कहाँ से करे.
विश्वदीप घोष जब उठकर खड़े हो गए तो उस अफसर ने एक दरोगा को बुलाकर कहा कि दादा से चाबी लेकर इनके दफ्तर से इनकी गाड़ी ले आओ. दरोगा गाड़ी लेकर आ गया. तब उस अफसर ने कहा कि आपकी गाड़ी की फारेंसिक जांच करानी है. कल जांच हो जायेगी तो गाड़ी लौटा दूंगा. आप मेरी गाड़ी से घर चले जाइये. विश्वदीप घोष बोले फारेंसिक जांच…वह क्यों…? मैं क्रिमनल हूँ क्या…? पुलिस अफसर ने कहा कि आपका नम्बर ट्रेस हुआ है एक मामले में, रूटीन जांच है. हो जाने दीजिये. दूसरे दिन वह अपनी गाड़ी लेने थाने पहुंचे तो उन्हें अरेस्ट कर लिया गया. इल्जाम था हत्या और हत्या के साक्ष्य मिटाने का.
विश्वदीप घोष ने कई महीने लखनऊ की जिला जेल में गुज़ारे. बिलकुल आम कैदी की तरह वह सात नम्बर बैरक में रहे. जेल में रहते हुए उन्होंने किसी से भी मुलाक़ात नहीं की. जेल के किसी भी अधिकारी को नहीं पता चला कि इतना बड़ा क्राइम रिपोर्टर उनकी जेल में बंद है.
उन दिनों जेल मेरी बीट थी. आर.के.तिवारी जेल सुपरिटेंडेंट थे. आर.के.तिवारी को मैंने बताया कि आपकी जेल में स्टेट का सबसे बड़ा क्राइम रिपोर्टर बंद है. वह मुझे साथ लेकर सर्किल में गए. वहां उन्होंने सिपाही को भेजकर विश्वदीप घोष को बुलाया. लोअर और टीशर्ट पहने विश्वदीप घोष आये. आर.के.तिवारी ने कुर्सी पर बैठने का इशारा किया तो वह बोले आप सुपरिंटेंडेंट हैं और मैं आपका प्रिजनर. आर.के.तिवारी ने फिर कहा कि बैठिये. विश्वदीप घोष बैठ गए. चाय आई. हम तीनों ने चाय पी. आर.के.तिवारी ने कोरेनटाइन बैरक में ट्रांसफर करने को कहा लेकिन वह तैयार नहीं हुए. इसके बाद हर दूसरे-तीसरे दिन जेल के अधिकारी उनकी खबर लेते रहे.
विश्वदीप घोष का उस केस से कोई लेना देना नहीं था. जांच में वह बेदाग़ साबित हुए और अदालत ने उन्हें रिहा कर दिया. रिहा होने के बाद विश्वदीप घोष ने इंडियन एक्सप्रेस ज्वाइन किया. उन दिनों मैं जनसत्ता एक्सप्रेस मं था. साथ काम करते हुए वह बहुत करीब आ गए. तब उन्हें जाना कि हर किसी का मददगार और हर किसी पर भरोसा कर लेने वाला यह शख्स तो कभी भी फंसाया जा सकता है.
इंडियन एक्सप्रेस को ग्रुप ने जब वापस ले लिया तो वह जनसत्ता एक्सप्रेस में आ गए. अंग्रेज़ी के रिपोर्टर को हिन्दी अखबार में काम करते देखा. वह सोचते भी अंग्रेज़ी में थे. पहले अंग्रेज़ी में इंट्रो बनाते फिर उसे हिन्दी में ट्रांसलेट करते और उसके बाद खबर पूरी कर लेते.
क्राइम से जुड़ी हर खबर की जानकारी उनके पास रहती थी. कई बार पुलिस के बड़े अफसर उनसे राय लिया करते थे. विश्वदीप घोष अंग्रेज़ी अखबार पायनियर में चले गए थे. अभी हाल में कानपुर में हुए विकास दुबे काण्ड की कई ऐसी जानकारियाँ उन्होंने उत्कर्ष सिन्हा के साथ जुबिली टीवी की डिबेट में साझा की थीं जिनका खुलासा पुलिस ने करीब 15 दिन के बाद किया. तमाम मामलों में विश्वदीप घोष जिस लाइन को पहले लिख देते थे वह बाद में पुलिस की लाइन ऑफ़ एक्शन बन जाती थी. अपराध की दुनिया की वह रग-रग से वाकिफ थे लेकिन अजब इत्तफाक था कि उनकी खुद की गाड़ी आपराधिक काम में इस्तेमाल हो गई और उन्हें कानोकान खबर नहीं हो पाई. दूसरे के अपराध के चक्कर में उन्होंने कई महीने जेल में गुज़ारे लेकिन उनके चेहरे पर न कभी शिकन आई और न उन्होंने कभी अपने उस दोस्त की बुराई की जिसने उनके करियर पर सवालिया निशान लगा दिया था.
विश्वदीप घोष पत्रकारिता में न सिर्फ मेरे सीनियर थे बल्कि निजी ज़िन्दगी में बड़े भाई जैसे थे. कल शाम तक पूरी तरह से स्वस्थ नज़र आने वाले विश्वदीप घोष को नौ जून की रात को सीने में दर्द हुआ. उन्हें सिविल अस्पताल में भर्ती कराया गया. सुबह चार बजे सिविल अस्पताल ने उन्हें सीरियस बताते हुए मेदांता रेफर कर दिया. मेदांता ले जाने के लिए जब एम्बुलेंस आई और उनके बेड के पास स्ट्रेचर ले जाया गया तो उन्होंने कहा कि नहीं मदद की ज़रूरत नहीं. वह खुद से बेड से स्ट्रेचर पर आये. मेदांता में सुबह नौ बजे डॉक्टरों ने घर वालों से साइन करा लिया कि हो सकता है कि वेंटीलेटर पर ले जाना पड़े मगर उसकी ज़रूरत नहीं पड़ी. साढ़े ग्यारह बजे उन्हें सीवियर अटैक आया और उन्होंने हमेशा के लिए आँखें मूँद लीं.
दादा आख़री बार लाप्लास आये मगर न सीढ़ियों का इस्तेमाल किया न लिफ्ट का. पार्किंग में ही लेट गए. वहीं लेटकर जामिया में पढ़ रही बेटी के आने का इंतजार किया. शाम छह बजे के बाद बेटी आ गई तो दादा हमेशा के लिए लाप्लास छोड़कर चले गए.
एक सरल और निश्छल इंसान. बेगुनाह होकर भी बड़ी सादगी से जेल भुगत लेने वाला, न कैदियों को खबर न जेल अफसरों को खबर, अपने रसूख का कभी अपने लिए इस्तेमाल नहीं किया. जिस शख्स को बड़े-बड़े अफसर दादा –दादा कहते नहीं थकते थे उन अफसरों से दादा ने कभी मदद नहीं ली लेकिन लाप्लास से हमेशा को निकलकर पंचतत्व में विलीन हो चुके विश्वदीप घोष से बस इतना ही कहना है कि दादा, अलविदा. जिसने आपके भरोसे का कत्ल किया था आपने उसके बारे में भी कभी कुछ नहीं कहा मगर अचानक से भरोसा तो आपने भी तोड़ दिया, कैफ़ी आज़मी की ज़बान में कहें तो रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई, तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई.