सुरेंद्र दुबे
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य लगातार एक के बाद एक मोर्चे पर हार का सामना करते जा रहे हैं पर उनके रवय्ये में कोई अंतर नहीं आया है। एक बार राजीव गांधी की सरकार के समय शाहबानो मामले में संविधान में संसोधन कराकर एक अबला तलाकशुदा महिला के मामले में विजय पाने के बाद से उनका हेकड़ी वाला रूख अभी तक नहीं बदला है।
हाल के वर्षो की बात करें तो फिर पसर्नल लॉ बोर्ड की अग्निपरीक्षा एक साथ तीन तलाक मामले से ही शुरू हुई, जिसमें उनके हाथ जल गए। पर बोर्ड के सदस्यों ने अपना अडियल रूख बरकरार रखा।
आइये ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की लखनऊ में हुई बैठक से बातचीत की शुरूआत करते हैं। जहां यह जानते हुए भी कि मंदिर मुद्दे पर मुस्लिम पक्ष के मुकदमा हार जाने की ही संभावना है, परंतु इन लोगों ने मुस्लिम बुद्धिजीवियों द्वारा हिंदू पक्ष को मंदिर के लिए जमीन दान दे देने की किसी पहल का समर्थन नहीं किया।
बोर्ड ने साफ कह दिया की सुलह सफाई की अब कोई गुंजाइश नहीं है। सुप्रीम कोर्ट का जो भी निर्णय होगा वह बोर्ड को मंजूर होगा। हालांकि, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि अगर मुस्लिम पक्ष मुकदमा हार जाएगा तो वह कोर्ट के फैसले को सर माथे लगा कर शांति से बैठ जाएगा। बुद्धिमत्ता यह कहती थी कि बोर्ड को मुस्लिम बुद्धिजीवियों की पहल का स्वागत करना था, ताकि समाज में एक अच्छा संदेश जाता।
एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि अगर अयोध्या मसले का निर्णय हिंदुओं के विरूद्ध में जाएगा तो मोदी सरकार कानून बनाकर मंदिर निर्माण की दिशा में आगे बढ़ेगी। जिस तरह से सत्ता पक्ष के नेताओं के बयान आ रहे हैं और जो राजनैतिक परिदृश्य चल रहा है उसमें इसके विपरित कुछ भी सोचना अपने आप को मूर्ख बनाने के अलावा कुछ नहीं है।
पर्सनल लॉ बोर्ड भी भाजपा की मंशा से अच्छी तरह परिचित है। पर वह अपनी हठधर्मिता छोड़ कर कोई लचीला रूख अपनाने को तैयार नहीं है। इन लोगों की जेहनियत यह है कि हम अपनी तरफ से हिंदुओं को जमीन नहीं देंगे। मुकदमा हार जाएंगे तो देखा जाएगा।
एक साथ तीन तलाक का ही मुद्दा लें। इतनी गंदी व जाहिलाना पंरपरा के विरूद्ध खुद मुस्लिम महिलाएं सुप्रीम कोर्ट गईं, जिसको भाजपा ने एक असरकारक मुद्दा बनाया पर पर्सनल लॉ बोर्ड के लोग तीन तलाक के मुद्दे पर झुकने को तैयार नहीं हुए। इन्हें जब लगा कि सुप्रीम कोर्ट तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित कर सकता है तो इन्होंने कोर्ट से कहा कि वह इस कुप्रथा को समाप्त कराने के लिए अपने स्तर से प्रयास करेंगे।
इसलिए कोर्ट इस मामले पर कोई कानून न बनाए। ये बात अलग है कि इस दिशा में बोर्ड ने कोई पहल नहीं की और सुप्रीम कोर्ट ने काफी विचार विमर्श के बाद तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित कर दिया और सरकार को इस संबंध में कानून बनाने की छूट दे दी।
जब कानून बना तो कट्टर पंथियों ने पति को जेल भेजे जाने पर आपत्ति की, जिसे सरकार ने नहीं माना। इन लोगों का तर्क था कि अगर पति जेल चला जाएगा तो तलाकशुदा पत्नी और बच्चों का कौन ध्यान रखेगा। इस बात को कट्टर पंथियों ने इस अंदाज से कहा जैसे अभी एक साथ तीन तलाक देने वाला पति अपनी तलाकशुदा पत्नी और बच्चों का भरण-पोषण करता है। इस बे-सिर पैर के तर्क को किसी ने नहीं सुना और कानून बन गया।
कल बोर्ड की बैठक में यह तय पाया गया कि तीन तलाक कानून की विरूद्ध रिवीजन याचिका दायर की जाएगी। जब बोर्ड ने तीन तलाक कानून को ही अभी तक मन से स्वीकार नहीं किया है तो अयोध्या मामले में बोर्ड सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्वीकार ही करेगा इसकी क्या गारंटी है।
पसर्नल लॉ बोर्ड ने कल अपनी बैठक में कॉमन सिविल कोड लागू किए जाने के आसन्न खतरे पर भी गहन चर्चा की। इस खतरे के बारे में सोचना स्वाभाविक भी था। भाजपा एक लंबे अर्से से देश में कॉमन सिविल कोड लागू किए जाने की वकालत करती रही। अब जबकि वह प्रचंड बहुमत में है और विपक्ष धूल-धूसरित है, तो भाजपा कॉमन सिविल कोड लागू कर अन्य वर्गों विशेषकर हिंदुओं की तालियां क्यों नहीं बंटोरना चाहेगी।
वैसे भी इस समय तो तालियां बजवाने का ही मौसम चल रहा है। अलग-अलग ढंग के चुनाव आते जाएंगे और तालियां बजती रहेंगी। पर्सनल लॉ बोर्ड ने अगर तीन तलाक बिल और मंदिर मुद्दे पर कुछ दरियादिली दिखाई होती तो संभव था कि कॉमन सिविल कोड के मुद्दे पर प्रगतिशील हिंदुओं का समर्थन उसे मिल जाता। पर बोर्ड ने एक पुरानी कहावत को ही चरितार्थ करना उचित समझा- ‘रस्सी जल गई पर ऐठन नहीं गई’
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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