न्यूज डेस्क
लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद समाजवादी पार्टी (सपा) में मंथन को दौर शुरू हो गया है। वहीं, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी कांग्रेस वर्किंग कमेटी के बैठक में चुनाव में हार की समीक्षा कर रहे हैं। राहुल और अखिलेश दोनों ही नेताओं पर अपने-अपने राजनीतिक विरासत को संभालने और पार्टी को आगे ले जाने की जिम्मेदारी थी।
हालांकि, लोकसभा चुनाव में मिली प्रचंड हार के बाद दोनों राजनीतिक भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का 18 राज्यों में खाता नहीं खुला है, जिसके बाद राहुल गांधी का नेतृत्व सवालों के घेर में आ गया है। प्रियंका गांधी को राजनीति के मैदान में उतारने में हुई देरी या संगठन को मजबूत करने के लिए निर्णय सभी सवालों के घेरे में है।
वहीं, अखिलेश यादव सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक विरासत को बरकरार रखने में लगातार फेल हो रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि 2014, 2017 और 2019 के चुनाव में सूबे में बीजेपी एक फॉर्मूले को लेकर चुनावी जंग फतह करती रही, लेकिन अखिलेश इसकी काट नहीं तलाश पाए। इसके अलावा उन्होंने जितने भी राजनीतिक प्रयोग किए वह भी फेल रहा, चाहे राहुल गांधी के साथ गठबंधन हो या फिर मायावती के साथ मिलकर चुनावी मैदान में उतरने का फैसला।
2019 के नतीजों से साफ है कि आम चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का गठजोड़ कारगर साबित नहीं हुआ। हालांकि दोनों दलों ने बीजेपी को कुछ सीटों पर टक्कर जरूर थी है, फिर भी गठबंधन के प्रत्याशी जीत हासिल करने में सफल नहीं हो पाए।
उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा पुरानी दुश्मनी भुलाकर साथ आए थे और नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं को भरोसा था कि सूबे में यह गठबंधन असरदार रहेगा, लेकिन नतीजों से साफ है कि यह कदम गलत साबित हुआ। साथ ही कैराना-फूलपुर के नतीजों से निकला फॉर्मूला भी मोदी लहर का सामने कर पाने में विफल साबित रहा है।
उत्तर प्रदेश में चुनाव के बाद की इन्हीं 3 सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों ने सपा-बसपा गठबंधन की नींव रखी, जिसे इस लोकसभा चुनाव में दोहराया गया था। 2018 में हुए उपचुनाव से मिले फॉर्मूले को लेकर 2019 का रण जीतने निकले अखिलेश यादव इस बार अपना घर की सीटें भी नहीं बचा पाए।
गोरखुपर से लेकर फूलपुर और कैराना में तो बीजेपी जीती ही, साथ में उसने गठबंधन को बड़ा नुकसान भी पहुंचाया। चुनाव से पहले सपा के पास सात सीटें थी जो घटकर पांच पर जा पहुंची हैं। तीनों दलों के गठबंधन में सबसे ज्यादा नुकसान सपा को ही हुआ है।
2014 में सपा ने पांच सीटें जीती थीं जो सभी यादव परिवार के नाम रहीं, लेकिन इस बार सपा को अपने गढ़ कन्नौज से हाथ धोना पड़ा, जहां से सपा प्रमुख अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव उम्मीदवार थीं।
सपा को इस बार फिरोजाबाद सीट पर भी शिकस्त मिली है, जहां से रामगोपाल के बेटे अक्षय यादव उम्मीदवार थे। यही नहीं, बदायूं में सपा सांसद धर्मेंद्र यादव को भी हार झेलनी बड़ी और उन्हें बीजेपी की संघमित्रा मौर्य ने मात दी।
सपा इन सीटों पर बसपा और आरएलडी के साथ चुनाव लड़ रही थी, बावजूद उसे 2014 में जीती हुई सीटें भी गंवानी पड़ी है। सपा को इस बार सूबे में सिर्फ 5 सीटों पर जीत मिली है।
जाहिर ने बीजेपी ने फूलपुर और गोरखपुर की हार का हिसाब बराबर कर सपा को फिर से पांच साल पहले की हालत में लाकर खड़ा दिया है। इस बार सूबे की 80 में से 62 सीटों पर बीजेपी ने जीत दर्ज की है जबकि कांग्रेस को एक और अपना दल को दो सीटें मिली हैं।
बसपा के लिए यह चुनाव थोड़ी राहत जरूर लेकर आया क्योंकि 2014 में सूबे से मायावती की पार्टी का सूपड़ा-साफ हो गया था। बसपा को सूबे में 10 सीटें जरूर मिली हैं लेकिन वह अन्य सीटों पर सपा उम्मीदवारों को जिताने में विफल साबित हुई है।