उत्कर्ष सिन्हा
उत्तर प्रदेश की सियासत में अब हर दिन एक नया मोड आना शुरू हो गया है । अगली विधान सभा के चुनावों में भले ही एक साल से ज्यादा का वक्त हो मगर इस दरम्यान होने वाले छोटे बड़े चुनावों में सियासी दल अपनी ताकत को तौलने के साथ ही विरोधी को दबाने का कोई मौका नहीं छोड़ने वाले।
सत्ताधारी भाजपा ने पंचायत चुनावों पर अपनी पूरी ताकत लगा दी है और उसके हर छोटे बड़े नेता को प्रभार भी दे दिया गया है । लेकिन इसी बीच विधान परिषद के 12 सीटों पर होने वाले चुनावों के लिए भी रस्साकशी शुरू हो गई है।
समाजवादी सुप्रीमो अखिलेश यादव ने बुधवार को जब इन चुनावों के लिए अपने दो कद्दावर नेताओं अहमद हसन और राजेन्द्र चौधरी के नामों की घोषणा की तो सियासी हलको में इसकी गूंज काफी तेज सुनाई दी।
इस गूंज की वजह बहुत साफ थी। विधान सभा में समाजवादी पार्टी के सदस्यों की संख्या को देखते हुए उसे विधान परिषद की एक सीट पर कामयाबी मिलना तो तय था मगर दूसरी सीट के लिए जरूरी 32 वोटों के लिए सपा को दूसरे दलों के विधायकों की जरूरत पड़नी भी तय बात है।
दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी के पास सीधे तौर पर 10 उम्मीदवारों को जिताने वाली संख्या है और उसके बाद 21 अतिरिक्त वोट बचेंगे। इस वोटों के साथ अगर उसके सहयोगी अपना दल के विधायक जुटें तो भी उसे कुछ और वोटों की जरूरत पड़ेगी।
तीसरे प्रमुख दल बसपा के पास कुल 18 विधायक थे मगर उसमें से 5 पहले ही बागी हो चुके हैं। वह अपने दम पर एक भी सीट नहीं जीत सकती, लेकिन राज्यसभा चुनावों में उसने भाजपा उम्मीदवार को समर्थन दिया था और इस सौदे के तहत उसे भाजपा का समर्थन मिल सकता है।
चौंकाने वाली बात ये है कि बसपा ने विधान परिषद चुनावों के लिए 2 फार्म खरीदे हैं। भाजपा ने खुद को सुरक्षित रखते हुए 10 फार्म ही लिए हैं और सपा से भी 2 फार्म लिए हैं। फिलहाल की स्थिति में 12 में से 11 सीटों पर तो कोई समस्या नहीं जहां भाजपा के 10 और सपा का 1 उमीदवार आसानी से जीत जाएगा , लेकिन 12 वी सीट पर चुनाव यूपी की सियासत में नया रंग दिखाएगा ये निश्चित है।
फिलहाल का परिदृश्य तो यही कह रहा है कि 12 वीं सीट पर बसपा और सपा आमने सामने होगी जहां भाजपा का समर्थन बसपा को मिल सकता है। इस बीच निगाहें कांग्रेस के रुख पर भी रहेगी और ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा का रुख भी देखने को मिलेगा। राजभर ने फिलहाल प्रदेश में एक अलग मोर्चा बनाने की कवायद शुरू की है और संभावना यही है कि उनके विधायक इन चुनावों में सपा उम्मीदवार को ही वोट देंगे।
कांग्रेस का विधानमंडल दल भी टूटा हुआ है। कुल 7 विधायकों वाली कांग्रेस के 2 विधायक बागी हो चुके हैं और वे खुलेआम भाजपा के साथ दिखाई दे रहे हैं। बचे हुए 5 विधायकों वाली कांग्रेस को आगे पक्ष चुनना हुआ तो स्वाभाविक रूप से वे भी सपा को ही वोट देंगे हालांकि उन्मे से कुछ और भी स्वतंत्र रूप से वो दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
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अब ऐसे में अगर अखिलेश यादव ने अपने दो प्रमुख चेहरों को मैदान में उतारने की घोषणा की है तो निश्चित रूप से सपा के रणनीतिकारों ने कुछ सोचा जरूर होगा, क्योंकि यदि इनमे से कोई भी हारता है तो पार्टी की छवि को बड़ा धक्का लगेगा।
महज 16 अतिरिक्त वोटों के साथ अपना दूसरा उम्मीदवार उतारने के बाद समाजवादी पार्टी को 16 अतिरिक्त वोटों की जरूरत पड़ेगी। और यदि किन्ही 2 उमीदवारों को प्रथम वरीयता वाले 32 वोट नहीं मिले तो दूसरी वरीयता के वोटों से फैसला होगा।
समाजवादी पार्टी की निगाह इस बार दूसरे दलों के असंतुष्टों पर लगी है। राज्यसभा के चुनावों के वक्त जिस तरह से 4 विधायक अचानक सपा के खेमे में आगए थे उस दृश्य को अगर दुहराया गया तो सपा एक बड़ा संदेश दे देगी।
अखिलेश यादव ने निश्चित तौर पर एक बड़ा सियासी दांव खेला है जिसमे एक बड़ा जोखिम भी शामिल है। लेकिन यदि वे सफल हुए तो वे एक तीर से कई शिकार करने में कामयाब होंगे। एक तरफ वे बसपा को भाजपा की बी टीम बताने में भी कामयाब हो जाएंगे जिससे सूबे के अल्पसंख्यकों का बसपा से मोह भंग होगा और दूसरी तरफ वे अगर बसपा और भाजपा में बगावत दिखने में कामयाब होते हैं तो अगला विधान सभा चुनाव भाजपा बनाम सपा होने का नरेटिव भी आसानी से स्थापित हो जाएगा। और अगर बसपा अपना उम्मीदवार नहीं उतारती है तो भी ये अखिलेश यादव की सीधी जीत होगी ।