के पी सिंह
राजनीतिक हलकों में सपा-बसपा गठबंधन के टूटने की चर्चाएं सर्वाधिक मुखरता से हो रही हैं। लोकसभा चुनाव परिणामों में गठबंधन की एंटी क्लाइमेक्स तस्वीर उभरते ही तय हो गया था कि अगले विधानसभा चुनाव तक यह साझेदारी कायम नहीं रहेगी। लेकिन शील का तकाजा यह था कि मायावती इतनी जल्दबाजी न करतीं।
वैसे भी बसपा का इतिहास रहा है कि वह उप चुनाव में भाग नहीं लेती इसलिए किसी को अंदाजा नहीं था कि वे उप चुनावों के मद्देनजर कोई ऐसी घोषणा करेंगी जिससे गठबंधन की गांठें सार्वजनिक रूप से खुलती दिखें। लेकिन बसपा सुप्रीमो ने पैंतरा बदलकर उप चुनावों में जोर आजमाइश का इरादा जाहिर कर दिया है। साथ ही कहा है कि उनकी पार्टी उप चुनाव वाले सभी क्षेत्रों में अकेले मैदान में उतरेगी।
गठबंधन एकबारगी सचमुच भूचाल बनकर आया था सामने
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के नजदीक आने से एकबारगी भाजपा की धरती सचमुच हिल गई थी। औपचारिक गठबंधन तो बाद में हुआ लेकिन उसके पहले ही तीन लोकसभा उप चुनावों में भाजपा को करारी शिकस्त देकर सपा-बसपा और अजीत सिंह के रालोद के सहकार ने ऐसी सनसनी पैदा कर दी थी कि सत्तारूढ़ पार्टी के होश उड़ गए थे। इसलिए आम चुनावों में गठबंधन का तूफानी असर सामने आने के कयास लगाए गए थे, जो अन्यथा नहीं थे।
दरअसल आम चुनाव में उत्तर प्रदेश में भी भाजपा को जो प्रचंड जीत मिली उसकी कल्पना तो इस पार्टी के राजनीतिक पंडित तक नहीं कर रहे थे। यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रणनीतिक कौशल है जिसके आगे सारी जातिगत सुध-बुध गुम हो गई। इसलिए यादवों ने गठबंधन को वोट नहीं दिए या पिछड़ों ने गठबंधन का साथ नहीं दिया, यह राग अलापने का कोई अर्थ नहीं है। खुद मायावती ने कहा था कि पिछड़ों के सबसे बड़े नेता मुलायम सिंह यादव हैं और इसमें सच्चाई भी थी।
लेकिन मायावती को यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछड़ों को यह भी पता था कि अगर गठबंधन का तुक्का सरकार बनाने लायक बैठ भी गया तो क्या ताज उनके मसीहा के सिर पर सजेगा। जिस दिन से मायावती को गठबंधन के प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने की शुरुआत हुई उसी दिन से जमीनी स्तर पर गठबंधन की उल्टी गिनती शुरू हो गई। पिछड़ों के मन में भावना थी कि वे बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना क्यों बनें।
इसके अलावा मुलायम सिंह भी मोदी को फिर से प्रधानमंत्री बनने की शुभेच्छा जारी कर चुके थे। ऐसे में उनके अनुयायी दूसरी तरफ मुंह क्यों करते। हालांकि, मुलायम सिंह को यह अंदाजा नहीं होगा कि मोदी पर उनका आशीर्वाद फलीभूत करने के लिए लोग उनकी बहू को ही हरा देंगे। जो इतनी सलोनी थीं कि किसी जमाने में भाजपा तक ने उनके खिलाफ उम्मीदवार उतारने से परहेज कर दिया था।
वैचारिक युद्ध के कुरुक्षेत्र में क्यों खड़ा नजर आ रहा है देश
देश के राजनीतिक परिदृश्य में वैचारिक युद्ध का कुरुक्षेत्र तैयार नजर आ रहा है। जहां मोदी की सफलता के पीछे कारपोरेट रणनीतियां एक बड़ा कारक हैं। वहीं वैचारिक उन्माद की भी बड़ी भूमिका है। जो परिवर्तन की हाल के दशकों में प्रबलता से उभरी शक्तियों को निर्णायक मात देने की वेला नजर आने से पूरी आक्रामकता के साथ उभर आया है।
ऐसे में बात दलों की नहीं है, लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि बहुजन आंदोलन इन हालातों में नये सिरे से अप्रासंगिक हो गया है। जिस पर सपा और बसपा के शिखर नेतृत्व को गौर करना चाहिए। न इस बात को मायावती समझ पा रही हैं न ही अखिलेश यादव। वजह यह है कि इनकी समझदारी में सत्ता ही साध्य बन चुकी है। जबकि सत्ता वैचारिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए साधन होना चाहिए। संघ इसी समझदारी के साथ काम करके प्रतिक्रांति की आयोजना को सफल बना रहा है।
वैचारिक निर्गुणता के कारण मायावती ने कई बार सरकार बनाने के लिए भाजपा से भी गठबंधन करने में परहेज नहीं किया। यहां तक कि जिस समय नरेंद्र मोदी अल्पसंख्यकों के बीच अपने राज्य में हुए सरकार प्रायोजित भीषण दंगों के कारण सबसे बड़े खलनायक के रूप में पहचाने जा रहे थे उस समय मायावती ने गुजरात जाकर उनके लिए चुनाव प्रचार कर वैचारिक दिवालियेपन की पराकाष्ठा कर दी थी।
दूसरी ओर समाजवादी पार्टी भी हमेशा अंदरखाने में भाजपा का सहयोग करती रही जो आज किसी से छुपा नहीं है। मुलायम सिंह के इसी रवैये के कारण जनता दल असमय टूटा और सामाजिक न्याय व धर्म निरपेक्षतावादी शक्तियां मौका हासिल हो जाने के बाद अंजाम पर पहुंचने के पहले ही बिखर गईं। इसी इतिहास से अवगत होने के कारण मुसलमान इन दोनों पार्टियों पर भरोसा नहीं कर रहे थे। जिनकी संख्या उत्तर प्रदेश में अच्छी-खासी है। लेकिन गठबंधन हो जाने पर मुसलमानों को महसूस हुआ कि कांग्रेस में जीतने की संभावना हर जगह बहुत कम है जबकि गठबंधन के पास वोटों की पर्याप्त पूंजी है।
नतीजतन उन्होंने मोदी को सत्ता से बाहर करने की प्रथम वरीयता को ध्यान में रखते हुए गठबंधन को ही वोट देने में भलाई समझी। अब गठबंधन टूटा है तो उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा को मुसलमान वोटों के मामले में कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा। जिसकी आम चुनावों में दोनों दलों की नाक बचाने में प्रमुख भूमिका रही है। अगर मुसलमान गठबंधन से मोहभंग के कारण हाराकीरी मानकर भी कांग्रेस का साथ देने को तत्पर हो गए तो अकेले लड़ने का दोनों दलों का अभिमान उन्हें किस घाट पर ले जाकर पटकेगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
वैचारिक निर्गुणता से उपजे हश्र के आसार
मायावती में धैर्य की कमी है। भाजपा के हरावल दस्ते के मंथन से निकले वैचारिक नवनीत की खुशबू सोशल मीडिया पर बिखरी रहती है। जिससे इस पार्टी की जहनियत का पता चल जाता है। यह जहनियत समानता और बंधुत्व पर आधारित कार्यप्रणाली को तो छोड़ें विचारों तक को बर्दाश्त नहीं कर सकती। यह जहनियत मुसलमानों को हैसियत में रखने के कार्य करने के लिए उकसाती है तो उसे शूद्रों को भी जिसमें दलित और पिछड़े शामिल हैं, बराबरी का दर्जा देना गवारा नहीं है।
उत्तर प्रदेश में डीएम, एसपी की पोस्टिंग से लेकर थानेदारों की तैनाती तक में जिस तरह शूद्रों के प्रतिनिधित्व को कोऑप्शन तक सीमित कर दिया गया है उससे इस पार्टी की मनोभावनाओं का खुलासा हो जाता है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में सवर्ण वर्चस्व की भीषण झलक दिखाई गई है और शूद्र मंत्रियों को महत्वपूर्ण विभागों की जिम्मेदारी देने लायक नहीं समझा गया है। यह जन्म और कुल के आधार पर किसी की योग्यता, क्षमता के आंकलन की परंपरागत सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप है।
भूमंडलीकरण और लोकतंत्र ने हर देश में अपने प्लावन से स्थितियां बदल दी हैं। आज भले ही राष्ट्रवाद के नाम पर पिछड़े और यहां तक कि दलितों का भी एक बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ चला गया हो, लेकिन जल्द ही उन्हें भाजपा की कार्यप्रणाली से यथार्थ का अनुभव होगा तो वे अपनी दोयम स्थिति को पुराने जमाने की तरह ईश्वरीय नियति मानकर चुप नहीं बैठेंगे। मायावती में अगर धैर्य होता तो वे इन संभावनाओं को आकार देने की गरज से गठबंधन के मामले में अपनी मुट्ठी फिलहाल बंद रखतीं। लेकिन उन्होंने उजड्ड तरीका नहीं छोड़ा है।
उन्होंने चुनाव परिणामों को लेकर समीक्षा की लेकिन इसमें अपनी गलतियों की शिनाख्त की गुंजाइश उनके यहां कभी नहीं होती। उन्हें सोचना चाहिए था कि गठबंधन के द्वारा उनको प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाना क्यों पिछड़ों के सशंकित होने का कारण बन गया। सुप्रीम कोर्ट के अनुसूचित जाति जनजाति उत्पीड़न निवारण अधिनियम में एहतियाती उपाय संबंधी फैसले को रद्द करने के मोदी सरकार के कदम के खिलाफ जब देश भर में प्रदर्शन हुए थे तो उनमें सवर्णों के साथ पिछड़ों ने भी बड़े पैमाने पर भागीदारी की थी।
दरअसल इस अधिनियम के दुरुपयोग का डर पिछड़ों को भी कम नहीं है। मायावती ने स्वयं अपने मुख्यमंत्रित्व काल में एक ऐसा शासनादेश जारी किया था जिसमें उत्पीड़न अधिनियम के इस्तेमाल को सीमित कर दिया गया था। लेकिन उन्हीं मायावती ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तो हठधर्मिता और अतिवादिता का साथ दिया। क्योंकि उनकी नीतियां स्पष्ट नहीं हैं।
मुख्य धारा के नियंत्रणकर्ता के रूप में क्यों नहीं उभरना चाहते दलित
मायावती चार बार देश के सबसे बड़े सूबे की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं और प्रधानमंत्री पद की दावेदारी में उनका नाम गंभीरता से शामिल हो चुका है। इस तरह उन्होंने दलितों को शासक कौम के दर्जे पर ले जाकर खड़ा कर दिया था। जिसके अनुरूप बड़प्पन का प्रदर्शन का तकाजा उनसे था। शासक को समाज के सभी घटकों को आश्वस्त करने में सक्षम होना चाहिए। लेकिन उन्होंने अपनी इस जिम्मेदारी को अनदेखा कर डाला। उत्तर प्रदेश में उन्होंने काफी हद तक सुशासन दिया था। इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए उनके पास उस दौर की उपलब्धियों को गिनाने के बतौर बहुत कुछ था, लेकिन अपने भाषणों की विषय वस्तु में उन्होंने कभी इसको शामिल नहीं किया। दलितों को षड्यंत्र के तहत अलगाव की ओर धकेला जाता है जबकि उन्हें मुख्य धारा पर नियंत्रण करने की सूझ-बूझ दिखानी चाहिए। विडंबना यह है कि मायावती दलितों के साथ हो रहे इस अदृश्य षड्यंत्र के उपकरण के रूप में अपने को साबित कर रही हैं।
अभी भी वे गठबंधन से इसलिए नहीं छिटक रहीं कि पार्टी का वैचारिक शुद्धिकरण करना चाहती हैं। जिसकी आज बहुत जरूरत है। गठबंधन से छिटकने के पीछे निश्चित रूप से अंधी स्वार्थपरिता से प्रेरित मानसिकता है। लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने सीटों के मामले में त्याग दिखाया था। अब विधानसभा चुनाव में त्याग करने की बारी मायावती की थी जो उन्हें मंजूर नहीं है।
इसलिए उन्होंने विधानसभा चुनाव के काफी पहले से इसकी भूमिका रचना शुरू कर दिया है और वे सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करने की बिसात बिछा रही हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा धन उनके पास आ सके। जब बहुजन आंदोलन चला था उस समय दलित और पिछड़े एक हो गए थे। मुसलमान उनके साथ स्वाभाविक रूप से इसलिए थे क्योंकि हिंदू वर्ण व्यवस्था में उनका कोई निहित स्वार्थ नहीं था।
लेकिन अब गोमती में तबसे काफी ज्यादा पानी बह चुका है, जिसके तहत दलितों और पिछड़ों के बीच बड़ी खाई बन चुकी है। बीएसपी की आंतरिक शक्ति को इस उलटवासी ने क्षीण कर दिया है। जो लोग यह सोचते हैं कि मायावती फिर से कांशीराम के जमाने की तरह पिछड़ों को अपने साथ लामबंद करने की मशक्कत करेंगी वे गलतफहमी में हैं। उप चुनाव में ही पता चल जाएगा कि मायावती उसी को प्रत्याशी बनाएंगीं जो ज्यादा बोली लगा सकेगा। इस मामले में बहुजन को अपने दुश्मन की तरह ट्रीट करने वाले तबके ही आगे रहेंगे इसलिए मायावती उन्हीं को प्राथमिकता देंगी।
प्रतिशोध चुकाने की लड़ाई नहीं है वर्ण व्यवस्था का उन्मूलन
वर्ण व्यवस्था के उन्मूलन की लड़ाई किसी जाति या वर्ग से प्रतिशोध चुकाने की लड़ाई नहीं है। चूंकि वर्ण व्यवस्था अन्याय और भेदभाव पर आधारित होने के कारण विकृत व्यवस्था है जिसमें सुशासन की कल्पना नहीं की जा सकती इसलिए सामाजिक न्याय के साथ जो लोग लोकतंत्र को आगे बढ़ाना चाहते हैं उन्होंने हमेशा यह दिखाने की कोशिश की है कि वर्ण व्यवस्था हट जाने पर अधिक नैतिक, न्यायपूर्ण मुस्तैद व्यवस्था देश को दिया जाना संभव है।
राष्ट्रीय मोर्चा वाम मोर्चा ने इसी विश्वास को मजबूत करते हुए न्यूनतम साझा कार्यक्रम का प्रस्तुतिकरण हमेशा किया था। पर ऐसे किसी कार्यक्रम में अपने को बांधना बसपा के साथ-साथ सपा के नेताओं को भी कभी गवारा नहीं हुआ। दूसरी ओर मोदी के रूप में भाजपा ने नैतिक बढ़त बनाने में इसलिए कामयाबी हासिल की क्योंकि मोदी के पास कोई व्यक्तिगत संपत्ति नहीं है और न ही उनके परिवार को उनकी राजनीतिक हैसियत और रसूख से कुछ अर्जित करने का मौका मिला है।
इसलिए व्यक्तिगत आचरण में मोदी की समकक्षता में खुद को खड़ा करने की चुनौती भी विरोधियों को सामने रहती है लेकिन वे किसी त्याग के लिए तैयार न होने की वजह से इससे मुंह चुराते हैं। दूसरी ओर यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि परिवर्तन नेतृत्व के लिए व्यक्ति या पार्टी विशेष का मोहताज नहीं होता।
परिस्थितियां परिवर्तन की भूमिका जब लिखती हैं तो रातोंरात नया नेतृत्व खड़ा हो जाता है। विश्वास किया जाना चाहिए कि मोदी सरकार में सामाजिक की जरूरत और प्रबलता के साथ उभरेगी और इसके चलते कोई नया खेवनहार आयेगा जो परिवर्तन की नैया को पार लगाएगा।