एक पखवारा से कुछ ही अधिक समय में देश के राजनैतिक परिदृश्य का रंग बदल गया है। मोदी सरकार के पांच वर्ष के बहीखाते को आम जनमानस में धोखाधड़ी का दस्तावेज करार दिया जा चुका था। एससी, एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट के सुधार को निरस्त करने के उनके फैसले के बाद संघ के भी उन पर दरकते भरोसे के ताबूत में आखिरी कील जड़ी जा चुकी थी।
सरकार की शुरूआत में ही संघ प्रमुख मोहन भागवत ने सरकारी नौकरियों में सामाजिक भेदभाव के शिकार तबकों के लिए विशेष अवसर के सिद्धांत के तहत दिये जा रहे सरकारी नौकरियों में आरक्षण के खिलाफ ब्रह्मवाक्य उच्चार दिया था, लेकिन बिहार में भाजपा की हार से जब इसको जोड़ दिया गया तो संघ सहम गया और उसने मोदी को आरक्षण खत्म न होने देने की दुहाई के रूप में उदंडता जारी रखने दी।
राम मंदिर के कार सेवकों का संहार करने वाले मुलायम सिंह के उनके द्वारा अतिरिक्त महिमा मंडन को भी उनके क्रिया-कलापों से जोड़ कर देखने पर मोदी की शिनाख्त संघ के लोगों की निजी बातचीत में सवर्ण विरोधी के रूप में की जाने लगी थी। नितिन गडकरी के तीखे बयानों को किसी आगत बदलाव की आहट के रूप में सुना जाने लगा था।
लेकिन यह भी चर्चा थी कि मोदी के तरकश में अभी कोई न कोई ब्रह्मास्त्र जरूर है। जब अमित शाह कह रहे थे कि 2019 के लोकसभा चुनाव में हमें पिछले चुनाव से ज्यादा सीटें मिलेगी तो ऊपरी तौर पर उन्हें खारिज करते हुए भी उनके विरोधी सशंकित बने हुए थे और आखिर मोदी और शाह की जोड़ी के पास कौन सा ऐसा ट्रंप कार्ड हो सकता है जो चुनाव में मास्टर स्ट्रोक बन जायेगा। इसकी पहेलियां बुझाने में तमाम लाल बुझक्कड़ लगे हुए थे।
और आखिर में 14 फरवरी को पुलवामा के आतंकी हमले के दो सप्ताह बाद एलओसी पार करके बालाकोट में मसूद अजहर के आतंकवादी शिविर पर एयर स्ट्राइक से जो शुरूआत हुई उसने देखते-देखते देश का सियासी मंजर पूरी तरह बदल डाला। मोदी को पवेलियन में बैठाने की राह ताक रहा संघ फिर उनके सामने बौना पड़ गया। अंदरूनी मोर्चे को जीतने के साथ-साथ मोदी ने देश के अंदर पार्टी के बाहर की चुनौतियों की भी हवा निकाल दी है।
सपा-बसपा गठबंधन से उत्तर प्रदेश में जिस बड़े तख्ता पलट के अंदाजे लगाये जा रहे थे वे बेमतलब हो गये हैं। कांग्रेस की प्रियंका कार्ड की चकाचौंध भी मद्धिम पड़ गई है। उनके ग्लैमर के सहारे कांग्रेस चौकाने वाले नतीजों के दिवास्वप्न देखने लगी थी लेकिन अब इस पार्टी के लोग हतोत्साहित से नजर आने लगे हैं।
दरअसल राजनीति में भी विचारधारा को मार्केटिंग की बाजीगरी ने प्रतिस्थापित कर दिया है। यह मार्केटिंग का ही कमाल है कि राष्ट्रवाद के उन्माद के निशाने पर देश की शत्रु शक्तियां उतनी नही हैं जितनी मोदी विरोधी पार्टियां और उनके नेता हैं। सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर लोगों के विचार को पढक़र ऐसा लगता है कि मोदी को विरासत में गुलाम भारत मिला हो जिसे उन्होंने ही आजाद कराया हो। दूसरी ओर उनके विरोध की जो पार्टियां हैं वे आजादी के दुश्मनों से आदिकाल से ही हाथ मिलाये हुए हैं।
कांग्रेस के राज में न केवल पाकिस्तान को पराजित किया गया बल्कि उसके दो टुक? भी करा दिये गये। लेकिन उसका यह पुण्य अब किसी काम का नही रह गया। बल्कि कांग्रेस की स्थिति लोगों के दिमाग में इस हद तक संदिग्ध बना दी गई है जैसे कांग्रेसी जन्म जात पाकिस्तानी एजेंट हो और इतने दशकों तक देश की आजादी मोदी की बदौलत ही मजबूत होती रही हो।
मोहन भागवत ने कुछ दिनों पहले कहा था कि जितने सैनिक युद्ध में नही मारे गये उतने बिना युद्ध के मारे जा रहे हैं। यह वर्तमान सरकार के सर्वोच्च आका का क्षोभ था और इसलिए था कि अगर मनमोहन सिंह सरकार ने आतंकवादी घटनाओं को देखते हुए पाकिस्तान के खिलाफ कोई कार्रवाई नही की थी तो मोदी ने भी इस मामले में अभी तक कुछ नही बघारा है।
वैसे हर सरकार अपने तरीके से पाकिस्तान को जबाव देने की कोशिश कर रही थी। कारगिल पर कब्जे के बाद भी अटल जी ने एलओसी पार करके किसी कार्रवाई को अंजाम देने का विकल्प नही अपनाया था तो इसका मतलब यह नही था कि उनकी नियत में कोई खोट थी या साहस में कोई कमी। पाकिस्तान के आतंकवादी नेटवर्क को नियंत्रित करने के लिए अटल जी के समय भी गोपनीय आपरेशन चले और मनमोहन सिंह के समय भी चलते रहे भले ही पूर्ववर्ती सरकारें इसके बहुत प्रचार-प्रसार के पक्ष में न रही हों।
अंतर सिर्फ इतना रहा कि मोदी ने सत्ता में आने के पहले अपने चुनावी भाषणों में 56 इंच के सीने की बात करके लोगों की अपेक्षाएं ऐसी बना दी थी कि वे पाकिस्तान पर सीधे हमले के जोखिम को समझने को तैयार नही थे और इसी की कसौटी पर मोदी की सरकार को कसते थे। यह और बात है जब मोदी खुद सरकार में आ गये तो उन्हें भी उन मुश्किलों का एहसास हुआ जिनके रहते रातों-रात पाकिस्तान को सबक सिखाना संभव नही हो सकता था। इसलिए भारतीय सैनिक मरते रहे लेकिन पांच साल तक मोदी कोई नाटकीय कार्रवाई नही कर सके। अब चुनाव में कुछ सप्ताह बाकी रह गये हैं तो सरकार एकदम एक्शन में आ गई है।
मोदी सरकार की किसी मामले में कोई नीति नहीं रही है। उन्हें संविधान का अनुच्छेद 370 समाप्त करने का जनादेश मिला था। जिसके लिए भाजपा इस आधार पर कहती आई थी कि 370 न रहने पर घाटी में अन्य राज्यों के लोगों को बसाकर जनसंख्या संतुलित करके अलगाववाद को पस्त करना संभव हो जायेगा। अटल जी की सरकार पूर्ण बहुमत की नही थी और एनडीए में शामिल पार्टियों के नाते उन्हें अपना यह संकल्प स्थगित रखने का वायदा करना पड़ा था। पर मोदी की तो कोई मजबूरी नही थी। मोदी अपनी पार्टी की इस सोच को अमल में लाकर देख लेते तो हो सकता है कि कश्मीर समस्या का कोई स्थाई समाधान निकल आता।
आश्चर्यजनक रूप से आतंकवादियों और अलगाववादियों के साथ सॉफ्ट कार्नर रखने वाली पीडीएफ की सरकार को आपने सहयोग देकर गठित करा दिया। अपने धर्म और कौल की हिफाजत उन्हें करनी चाहिए थी भले ही कश्मीर में पीडीएफ और कांग्रेस की सरकार बन जाती। अगर उन्होंने यह सोचकर सरकार बनायी थी कि अलगाववादियों का हृदय परिवर्तन करके कश्मीर समस्या के समाधान के विकल्प को भी देख लेना चाहिए तो उन्हें इसका सदुपयोग करना चाहिए था। पर उन्होंने तो अलगाववादियों से बातचीत का कोई सार्थक प्रयास ही नही किया।
(केपी सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं।)