प्रमुख संवाददाता
लखनऊ. बिहार चुनाव में एक बड़ा फेरबदल कर देने वाली असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी पश्चिम बंगाल में अपना करिश्मा नहीं दोहरा पाई. ओवैसी की एआईएमआईएम ने पश्चिम बंगाल की मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर दांव खेला था लेकिन यह चुनाव टीएमसी बनाम बीजेपी ही रहा. यही वजह रही कि न तो लेफ्ट, न कांग्रेस और न ओवैसी जैसे नेताओं को कोई तरजीह मिली.
ममता बनर्जी लेफ्ट की हुकूमत को ध्वस्त करके दस साल पहले पश्चिम बंगाल की सत्ता में आईं थीं. इस चुनाव के ज़रिये वह अपने तीसरे कार्यकाल की शुरुआत करने जा रही हैं.
हैदराबाद की AIMIM उन सभी राज्यों में अपने लिए संभावनाएं तलाश रही है जहाँ विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. बिहार में पांच और महाराष्ट्र में दो सीट जीतने के बाद ओवैसी के हौंसले बुलंद हो गये थे. यही वजह है कि उन्होंने पश्चिम बंगाल में भी अपनी पार्टी को दांव पर लगाया मगर उनके सभी उम्मीदवारों की ज़मानतें ज़ब्त हो गईं. पश्चिम बंगाल में ओवैसी की पार्टी को महज़ 0.01 फीसदी वोट ही हासिल हुआ है.
ओवैसी ने पश्चिम बंगाल की 40-45 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान किया था लेकिन उनकी पार्टी ने सिर्फ सात सीटों इटाहार, जलांगी, भरतपुर, मलातीपुर, रतुआ, सागरदिघी और आसनसोल में अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे. इन सभी सीटों पर ओवैसी के उम्मीदवारों की ज़मानत भी नहीं बची.
ओवैसी ने जिन सीटों को चुना था इन पर 60 से 70 फीसदी मतदाता मुसलमान हैं मगर इन मतदाताओं ने ममता बनर्जी पर भरोसा किया और ओवैसी की पार्टी को नकार दिया. ओवैसी ने 40 से 45 सीटों पर चुनाव लड़ने का मन सिर्फ इसीलिये बनाया था क्योंकि बंगाल की 57 विधानसभा सीटों में 50 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम मतदाता हैं. इसी वजह से ओवैसी ने फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी से गठबंधन की कोशिश की लेकिन आख़री वक्त में सिद्दीकी ने ओवैसी की जगह वाम दल और कांग्रेस के साथ खड़ा होना पसंद किया.
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ओवैसी ने 2022 में यूपी चुनाव में भी अपने प्रत्याशी उतारने का एलान किया हुआ है लेकिन पश्चिम बंगाल में अपनी पार्टी की हालत देखने के बाद निश्चित रूप से ओवैसी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दलों से गठबंधन की कोशिश करेंगे क्योंकि अकेले लड़ने पर यूपी में भी उनकी यही हालत हो सकती है.