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कबीर के बाद रेणु ही हैं जो…

चंचल

4 मार्च 1921 को भारत के मैथिलांचल में रेणु जी पैदा हुए, और 11 अप्रैल 1977 को अलविदा कह गये. इसका मातम समूचे देश ने मनाया , हर भाषा भाषी गमगीन था. आज भी जब कभी किसी कलम की सार्थकता का ज़िक्र होता है , तो रेणु सामने होते हैं. मनसा ,वाचा, कर्मणा. लेखक के लिए , परिस्थिति और उससे उभरी संवेदना , कलम उठाने की हिम्मत देती है. दस साल की उमर में रेणु “ सुराजी ” हो जाते हैं. 1930 में बापू ने एक मुट्ठी नमक उठा कर समूचे देश को खड़ा कर दिया. नमक आंदोलन मील का पत्थर है. स्कूल में मनाही रही , कोई जूलूस में नही जायगा. रेणु ने भागीदारी की. फारबिसगंज स्कूल के हेडमास्टरने ने “ दस बेंत “ की सजा सुनायी. पहली बेंत – महात्मा गांधी – ज़िंदाबाद , दूसरी बेंत – जवाहर लाल नेहरु ज़िंदाबाद तीसरी बेंत स्कूल में फ़ारबिस गंज बजार आ खड़ा हो गया. रेणु कंधे पर बिठा लिए गये. यह बचपने में उठाया गया उत्साही कदम रेणु की आदत बन गया.

रेणु लेखक भर नही हैं , राजनीति के सक्रिय सिपाही हैं. समाजवादी आंदोलन के नेता हैं, संघर्ष करते हैं, काग़ज़ पर नही, सड़क पर उतरते हैं. पत्रकारिता में चले जाते हैं, सम्पादन करते हैं. बिहार के सूखा और बाढ़ की रपट जिसे दिनमान के तात्कालिक सम्पादक अज्ञेय जी ने लिखवाया वह पत्रकारों को पढ़ना चाहिए – “ धन जल, ऋण जल “. रेणु सशस्त्र संघर्ष में उतरते हैं. नेपाल की राणा शाही के ख़िलाफ़ नेपाली कांग्रेस सेना के सिपाही रहे रेणु , कोईराला परिवार के सदस्य हैं आज भी उस घर में रेणु की चर्चा चलती है. कभी मनीषा (कोईराला ) से पूछिए. 74 में रेणु फिर आंदोलन में उतरते हैं. सम्पूर्ण क्रांति के नारे के साथ.

5 जून 1974 को हम पटना में हैं. पच्चास लाख चिट्ठियाँ हैं. जे पी ले जा रहे हैं बिहार के गवर्नर को देने. क़दमकुआं से जूलूस चलता है राज निवास की ओर. सात मील लम्बा जुलूस है. गांधी मैदान में मंच पर रेणु भी हैं, अस्पताल से उठ कर आए हैं. दिनकर की कविता पढ़ते हैं.

गांधी मैदान नरमुण्ड से अटा पड़ा है. जुगनू (शारदेय ) का कुर्ता पकड़े खड़ा हूँ /
– रेणु जी से मिलना है.
– जाओ मिल लो
– आपके साथ चलूँगा.
– लौट के बीयर पिया जायगा.

मिले थे रेणु जी से. कुछ पढ़ चुका था, बाद बाक़ी बाद में पढ़ा. उनकी किताबों का कवरपेज बनाया. हिंदी को एक रेणु मिला. सबसे अलग, सबसे भिन्न, मनसा वाचा कर्मणा परिपूर्ण. पर हिंदी ने रेणु को क्या दिया ?
हिंदी ठेकेदारी पर उठ चुकी थी. साम्यवादी कलम की नोक दिखाने में लगे थे. कागद पर सर्वहारा को विजयी बनाने वाले की पीठ ठोंकी जा रही थी गो की ज़मीन पर सर्वहारा दुगने गति से मार खा रहा था. विप्रालोचक रामविलास शर्मा कबीर, रविदास, को साहित्य के टाट बाहर कर चुके हैं. लेखक का क़द लेखन से नही क्रेमलिन और बेजिंग के साँचे से नाप कर तय किया जा रहा था. उस जमाने में जब कमलेश्वर, डॉक्टर धर्मवीर भारती, अमरकान्त, भीष्म साहनी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी , निर्मल वर्मा, डॉक्टर शिव प्रसाद सिंह, डॉक्टर नंद किशोर आचार्य वग़ैरह स्थापित हो चुके थे. उस समय रेणु आते हैं. रा वि श की निगाह में रेणु लिखित मेला आँचल , परती परिकथा और कहानियाँ – “ साहित्य में मायने नही रखती “. लेकिन पाठक ?

प्रकाशक से पूछिए.

कबीर के बाद अकेला लेखक है जिसमें आपकी ज़ुबान बनाने और बिगाड़ने की ताक़त है. “ तीसरी क़सम “ ( कहानी लेखक हैं , रेणु जी ) फ़िल्म के रिलीज होने पर आयोजित पार्टी में राज कपूर साहब रेणु जी का परिचय अपनी पत्नी कृष्णा जी से कराते हैं. कृष्णा जी ने रेणु जी से शिकायत किया – आपने राज की भाषा ही बदल दी. बात बात में इस्स बोलते हैं, चाय को चाह बोलने लगे हैं ग्रामोफ़ोन को फेनूगिलाफ़ी कहते हैं. तीसरी क़सम का हीरामन इनका साथ ही नही छोड़ रहा.
सादर नमन रेणु जी

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