राजेन्द्र कुमार
लखनऊ चुनाव और मुसलमान उत्तर प्रदेश की राजनीति का यथार्थ भी है और मिथ भी। चुनाव आते ही इस वोटबैंक की परवाह शुरू हो जाती है। सभी दलों की राजनीति के केंद्र में मुसलमान होता है पर उसके मुददे पीछे रहते हैं। इस बार फिर सूबे का मुस्लिम राजनीति के चौराहे पर है। वह किस दल की ओर जाए। इसे लेकर वह दुविधा में है। उसके सामने सपा-बसपा गठबंधन और कांग्रेस और अन्य धर्मनिरपेक्ष दल हैं।
बीजेपी को हराने के लिए सूबे का मुस्लिम समाज सभी प्रमुख धर्मनिरपेक्ष दलों को परख चुका है। इन सबसे वह छला ही गया है, जिसका परिणाम यह रहा कि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव जीतकर देश की संसद में नहीं पहुँच सका। ऐसे में मुस्लिम समाज की अब किसी राजनीतिक दल से प्रतिबद्धता नहीं रह गई है। और वह खुलकर अपनी मंशा प्रकट नहीं कर रहा है।
बीजेपी और उसके नेता मुस्लिम समाज को निशाने पर ले रहे हैं
हालांकि, बाबरी विध्वंस, पोटा और आतंकवाद को लेकर मुस्लिम अवाम को साथ देने वाले मुलायम सिंह यादव और उनकी बनायी समाजवादी पार्टी आज भी उसकी रहबर बनी हुई हैं, पर मुजफ्फरनगर का दंगा भी मुस्लिम समाज को भूल नहीं रहा, उसका मन आहत है। परन्तु जिस तरह से बीजेपी और उसके नेता मुस्लिम समाज को निशाने पर ले रहे हैं, उसके चलते मुस्लिम समाज भी फिर सपा-बसपा गठबंधन अथवा कांग्रेस के साथ खड़ा होने को मजबूर हो गया है।
सूबे के मुस्लिम को लगता है कि अब यदि मुस्लिम समाज एकजुट होकर वोट नहीं करेगा तो वह जहां का तहां ही रहेगा। उसकी तस्वीर नहीं बदलेगी। यदि इकठ्ठा रहा तो वो यूपी की 38 मुस्लिम बाहुल्य संसदीय सीटों पर असर डाल सकता है। कहा जा रहा है कि इस दफा मुस्लिम समाज की पहली पसंद सपा-बसपा गठबंधन अथवा कांग्रेस के मजबूत मुस्लिम उम्मीदवार होंगे। दूसरी पसंद बीजेपी के खिलाफ लड़ता हुआ कोई मजबूत प्रत्याशी होगा।
डा. भीमराव अंबेडकर यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफेसर सुशील पाण्डेय कहते हैं कि मुस्लिम समाज की पसंदगी और प्राथमिकताएं तय है पर कुछ दुविधाएं उसकी नीयत भी बनी हुई हैं। यह दुविधा है कि मुस्लिम समाज सपा-बसपा गठबंधन और कांग्रेस में किसके साथ जुड़े। यह भी तब है जबकि सूबे का मुस्लिम समाज लगातार चुनावी राजनीति के केंद्र में रहा, लेकिन उसका पिछड़ापन, गरीबी, अशिक्षा दूर नहीं हुई। मस्जिद, फतवा और इमाम ने मुस्लिम अवाम को वोटबैंक बना दिया। फिर भी उसे सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिली। जब भी मुस्लिम समाज ने सत्ता चाही तो सेकुलर दलों ने उसे सत्ता नहीं सुरक्षा देने की घुट्टी पिलाई।
अयोध्या मुददे ने भी करीब 35 सालों से उसे वोटबैंक के रूप में तब्दील करने में अहम भूमिका निभाई है। फिर हर बार असुरक्षा का डर दिखा इस वोटबैंक का सौदा हुआ। और सूबे का मुसलमान भाजपा विरोधी रणनीति के बीच झूलता रहा है। उसके मसायल धरे रह गए है।
लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आशुतोष मिश्र के अनुसार मुस्लिम समाज की बीजेपी से नफरत और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के माहौल ने लोकसभा में मुस्लिम सांसदों की संख्या घटाई। नुकसान अवाम का हुआ। क्योंकि एक तरफ तो मुसलमानों ने अयोध्या और गुजरात दंगे के पुराने सवाल फिर से उठा अपने खिड़की दरवाजे बंद कर लिए।
मौलानाओं ने सूबे के अवाम को भ्रम में रखा
दूसरी तरफ अपना नेता न होने की लाचारी से वह सत्ता में हिस्सेदारी से वंचित रहे। मुस्लिम समाज की यह स्थिति देखते हुए भी मौलाना बुखारी, जावेद हवीब, शहाबुददीन, ओबेदु्ल्ला आजमी, मौलाना तौकीर अहमद आदि ने हर चुनाव में जल्दी जल्दी पाले बदले। ताकि उनकी अहमियत बनी रहे। बुखारी जैसे मौलानाओं ने सूबे के अवाम को भ्रम में रखा। वह कभी सपा के साथ खड़े हुए तो कभी बसपा के साथ। मौलाना तौकीर ने भी ऐसे करतब दिखाए, जिससे मुस्लिम समाज का ही नुकसान हुआ।
वही, मुस्लिम समाज में सम्मान पाने वाले एमजे अबकर ने समाज की समस्याओं को दूर करने की पहल करने के बजाये कांग्रेस से नाता तोड़कर बीजेपी से जुड़ना बेहतर समझा।
जर्मन न्यूज से जुड़े पत्रकार सुहैल वहीद को चुनाव के समय मुस्लिम नेताओं के ऐसे व्यवहार पर आश्चर्य नहीं होता। वह कहते हैं कि चुनाव के समय हर दल वोटबैंक की चिंता करता है। मायावती मुसलमानों को आरक्षण देने का प्रलोभन देती हैं तो मुलायम और अखिलेश मुस्लिम अवाम के हमदर्द होने का दावा करते हैं।
कांग्रेस भी मुसलमानों की तरक्की के लिए चुनाव बाद कोई पैकेज देने का प्रलोभन देती है। ताकि मुस्लिम अवाम का वोट उसे मिल सके। सुहैल कहते हैं कि राजनीतिज्ञो की ऐसी मंशा ने सूबे के मुस्लिम समाज को एक वोटबैंक में तब्दील कर दिया। सुहैल के मुताबिक 1984 के बाद से उत्तर प्रदेश मुस्लिम राजनीति की प्रयोगशाला बन गया है।
करीब 14 करोड़ मतदाताओं वाले इस राज्य में मुसलमान 19 फीसदी है। जो पूरे देश की मुस्लिम आबादी का 22 प्रतिशत बैठता है। अयोध्या, मथुरा और काशी यहीं है। अलीगढ़ भी यही है। बरेली और देवबंद भी सूबे में है। पीएम और सीएम दोनों ही राष्ट्रवाद की आड़ में हिन्दुत्व का एजेंडा चला रहें हैं। यानि मुस्लिम राजनीति को नियंत्रित करने वाले सारे तत्व यहां मौजूद हैं।
बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद सबसे अधिक हिंसा और खून खराबा यहीं हुआ था। इसलिए मुसलमान अस्तित्व की रक्षा और सत्ता में दलख के लिए वोटबैंक के रूप में बर्ताव करता है। वह ऐसा आचरण करे भी क्यों ना। सूबे की 38 संसदीय व 145 विधानसभा सीटों पर मुस्लिम मत असर डालते हैं। इन सीटों पर वे वोट के तौर पर 14 से 40 प्रतिशत हैं। मुस्लिम आबादी वाली इन सीटों पर ध्रुवीकरण के चलते बीजेपी भी मजबूत रहती है।
मुस्लिम राजनीति किधर जाए
सपा, बसपा और कांग्रेस में इसी वोटबैंक को लेकर हर चुनाव में जददोजहद रहती है। बीते लोकसभा चुनावों में मुसलमान सपा, बसपा और कांग्रेस को लेकर दुविधा में रहा था। इस बार ऐसी दुविधा नहीं है। अब मायावती से लेकर अखिलेश और कांग्रेसी नेता नवजोत सिंह सिध्दू सभी मुस्लिम समाज को एकजुट होकर वोट देने की बात कह रहें है। ऐसे में मुस्लिम राजनीति किधर जाए? उसकी नजरे इनाएत किधर हो? सुहैल कहते हैं कि सूबे का मुस्लिम कांग्रेस से ठगा गया है। मुसलमानों की तरक्की को लेकर पिछले लोकसभा चुनावों में किए गए वायदों पर कांग्रेस ने ध्यान नहीं दिया।
सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव मुसलमानों के लिए विधानसभा में तो विकल्प है पर राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें अवाम का साथ खुलकर नहीं मिला है। रही बात बसपा की तो बसपा अपनी सत्ता के लिए कभी भी इस वोटबैंक की बोली लगा देती है।
सत्ता में रहते हुए मायावती ने मुसलमानों को आरक्षण देने की मांग कर इस मामले को कागजी मुददा बना दिया था। बसपा की इस पहल से बीजेपी को ही ताकत मिली। सुहैल कहते हैं कि यूपी के वर्गीय चरित्र को देखे तो अशिक्षित, अर्द्धशिक्षित और मदरसों से निकले मुसलमानों के लिए एक मात्र नेता अब भी मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव हैं।
मुजफ्फरनगर दंगे के बाद भी अखिलेश और मुलायम का यह तिलिस्म मुसलमानों पर बना हुआ है। जबकि शिक्षित तथा उच्च वर्ग के मुस्लिम जिनकी संख्या कम है वह कांग्रेस के साथ दिखते हैं। इस लाचारी के बावजूद कि किसी दल ने बाबरी विध्वंस के अलावा मुस्लिम समाज के बुनियादी सवाल नहीं उठाए है।
यूपी के मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र
यूपी की जनगणना के अनुसार रामपुर संसदीय क्षेत्र में मुसलमान सर्वाधिक 42 प्रतिशत हैं। मुरादाबाद में 40, बिजनौर में 38, अमरोहा में 37, सहारनपुर में 38, मेरठ में 30, कैराना में 29, बलरामपुर और बरेली में 28-28, संभल, पडरौना, मुजफ्फरनगर में 27-27, डुमरियागंज में 26, बहराइच, कैसरगंज, लखनऊ में 23-23, शाहजहांपुर, खुर्जा हापुड़ में 22-22, बुलंदशहर, खलीलाबाद, सीतापुर, अलीगढ़, आंवला, बदायूं में 18-18 प्रतिशत मुस्लिम हैं।
आगरा, गोंडा, अकबरपुर, बागपत, लखीमपुरखीरी, हरदोई सीट पर 15 से 17 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है। यानि लोकसभा की 38 सीटों पर मुसलमान असर डालते हैं। बाबरी विध्वंस के बाद इन्हीं जिलों में जबर्दस्त ध्रुवीकरण हुआ। मुसलमानों को लगा कि दलित या यादवों से गठजोड़ करके ही वह भाजपा को रोक सकते हैं। इसलिए इन इलाकों में वे सुविधानुसार हर चुनाव में सपा और बसपा में बंटे। इसके बाद भी इन इलाकों में भाजपा सफल रही। आशुतोष मिश्र इसकी वजह मुस्लिम समाज की दुविधाओं को बताते हैं। सुहैल भी इस तर्क से सहमत हैं।
मुस्लिम समाज की दुविधा
सुहैल कहते हैं कि उत्तर प्रदेश की मुस्लिम राजनीति के बाबत कुछ बांते साफ हैं। एक- इनके सामने अपना नेता ना होने की लाचारी है। दो- गैर भाजपा दलों के एकजुट ना होने से वे दुविधा में हैं। तीन- दुविधा में वे प्रतिबद्ध वोटिंग और रणनीतिगत वोटिंग के बीच झूलते रहे हैं। चार-मुस्लिम अवाम का मिजाज समझने में उनके कथित नेता भी नाकाम रहे हैं।
शायद इसीलिए इमाम बुखारी से लेकर ओबेदुल्ला आजमी तक तमाम मुस्लिम नेता यूपी में अप्रासंगिक हो गए। जिसके चलते चुनावों में मुस्लिम वोट बटता रहा है। बाबरी विध्वंस के बाद सपा-बसपा में एकमुश्त गया। 1996 में सपा-बसपा में फिर बंटा। 1998 में यही स्थिति रही। बीते लोकसभा चुनावों में मुस्लिम समाज का रूझान सपा, बसपा और कांग्रेस की ओर रहा। यानी ये वोट खूब बंटा, जिसका संज्ञान लेते हुए इस बार पीएम नरेन्द्र मोदी ने कश्मीर, पाकिस्तान, आतंकवाद और सेना का मुददा उठाते हुए इस वोट बैंक को दबाव में लाने की रणनीति पर काम किया।
फिर भी अभी तक किसी राजनीतिक दल के प्रति मुस्लिम समाज की प्रतिबद्धता दिख नहीं रही है। सुहैल के मुताबिक अबकी के चुनावों में मुस्लिम वोटबैंक की पहली पसंद बीजेपी के खिलाफ विपक्ष के उस प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करने की हो जो बीजेपी के खिलाफ लड़ रहा दिखे।
यूपी में ऐसे बना मुस्लिम वोटबैंक
मुस्लिम वोट बैंक के इतिहास की रिसर्च करे तो पाएंगे कि पहले दो लोकसभा चुनावों में यूपी में मुसलमान वोटबैंक के तौर पर तो नहीं एक फिरके के तौर पर कांग्रेस के साथ थे। 1960 के बाद कई अल्पज्ञात मुस्लिम संगठनों ने एक मोर्चा बना इसे वोटबैंक की शक्ल दी।
आठ अगस्त 1964 को लखनऊ के नदवा में एक जलसा हुआ। इस जलसे में जमायते इस्लामी के मोहम्मद मुस्लिम, मौलाना अबुल लोन, कांग्रेस के सैयद महमूद, जमी-उल-उलेमा के सूफी अतीउर्रहमान, मुस्लिम लीग के सुलेमान सेठ, खिलाफत आंदोलन के जान मोहम्मद और खुद मौलाना अलीमियां शरीक हुए। इसी जलसे में मुस्लिम-मुजलिस-मुशावरात नाम का एक संगठन अस्तित्व में आया। बाद में इस संगठन में मौलाना मंजर नोमानी, मौलाना असद मदनी, डा.अब्दुल जलील फरीदी भी जुड़े।
कई मुस्लिम संगठनों का यह महासंघ था। जिसने 1967 के चुनाव में एक नौ सूत्री मांगपत्र मुसलमानों के हवाले किया। कांग्रेस ने इस मांगपत्र को नकार दिया। और राज्य में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बन गई। यही मुस्लिम वोटबैंक के अस्तित्व में आने का वक्त था। हालांकि नयी बनी गैर कांग्रेसी सरकार ने भी इस मांगपत्र पर अमल नहीं किया। फिर वोटबैंक का यह प्रयोग फेल होने लगा। डा. फरीदी ने मुस्लिम मजलिस बना ली। तब तक देवबंद मुस्लिम राजनीति का केंद्र बन गया। कांग्रेस ने इस केंद्र से मेलजोल बढ़ा मौलाना असद मदनी को राज्यसभा भेज दिया।
तो यह जमात कांग्रेस के साथ हो गई। 1977 में इस वोटबैंक में जो बिखराव हुआ वह आजतक संभला नहीं है। इमजेंसी में नसबंदी और दूसरी ज्यादतियों को लेकर मुसलमान एक झटके में कांग्रेस से कटा। 1980 में जनतर पार्टी की टूट से यह वर्ग और बिखरा। 1986 में अयोध्या का ताला खुला। 1989 में शिलान्यास हुआ। तब से मुसलमान भाजपा और कांग्रेस के शत्रु हुए।
मुस्लिम मत बंटे नहीं
बीते लोकसभा चुनाव में बीजेपी के पीएम इन वेटिंग नरेन्द्र मोदी ने मुस्लिम वोटबैंक पर जोरदार हमला बोला था। उन्होंने मुस्लिम वोटबैंक का हौवा खड़ा किया। और यह प्रचार किया कि यूपी में कई धर्मनिरपेक्ष दल मुसलमानों के धु्रवीकरण की बुनियाद मजबूत करने में जुटे हैं।
बीजेपी के ऐसे प्रचार से मुसलमानों के नेतृत्व वाले दलों की बढ़ती सक्रियता से बिखराव की पृष्ठभूमि तैयार हुई। कौमी एकता दल, पीस पार्टी, राष्ट्रीय उलेमा कौंसिल, इत्तेहाद-ए-मिल्लत कौंसिल, नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी, मोमिन कांफ्रेंस, मुस्लिम मजलिस समेत कई चुनावों में नाकाम हुए।
इसका संज्ञान लेते हुए इस बार सपा-बसपा और कांग्रेस सहित अन्य धर्मनिरपेक्ष दल तथा मुस्लिम संगठन यह अपील कर रहें है कि इस बार के चुनावों में मुस्लिम समाज को अपनी पंसद और प्राथमिकताओं को हासिल करने के लिए अपने मतों के बिखराव को रोकने रास्ता तलाशना होगा। अन्यथा हर बार की तरह उसे ही नुकसान उठाना होगा।
दलों का मुस्लिम प्रेम बढ़ा पर प्रतिनिधि नहीं
यूपी में हर दल मुस्लिम वोटों की चाह में है। फिर भी मुस्लिम समाज की दुविधा और उनके वोटों के बिखराव के चलते संसद में यूपी से मुस्लिम सांसदों की संख्या बढ़ नहीं रही है।