कृष्णमोहन झा
गत वर्ष के अंत में जब मध्यप्रदेश में कांग्रेस पार्टी का 15 वर्षों का सत्ता से वनवास समाप्त हुआ था और मुख्यमंत्री पद की बागडोर कमलनाथ के हाथों आई थी तब यह संभावनाएं भी व्यक्त की जाने लगी थीं कि लोकसभा के नए चुनावों में कांग्रेस मध्यप्रदेश की 29 सीटों में से कम से कम आधी सीटों पर कब्जा जामने में कामयाब हो जाएगी।
कमलनाथ सरकार के गठन के तत्काल बाद किसानों की कर्जमाफी का फैसला किया गया और समाज के विभिन्न वर्गों के कल्याण की अनेक लोक लुभावन घोषणाएं भी की गईं। जिनका एक मात्र मकसद लोकसभा चुनावों में मध्यप्रदेश की ज्यादा से ज्यादा सीटों पर कांग्रेस पार्अी की विजय सुनिश्चत करना था।
मुख्यमंत्री कमलनाथ का दावा है कि गत विधानसभा चुनावों के समय कांग्रेस ने जो वादे किये थे, हमारी सरकार ने उनमें से अधिकांश वादे पूरे कर दिए है। मुख्यमंत्री कमलनाथ ने इन 4 माहों में सरकार ही नहीं बल्कि संगठन पर भी अपनी पकड़ मजबूत कर ली है और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का उन्होंने इतना विश्वास भी अर्जित कर लिया है कि राज्य की लोकसभा सीटों के लिये कांग्रेस प्रत्याशियों के चयन में उनकी राय निर्णायक साबित हुई है इसका सबसे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है कि पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को मुख्यमंत्री कमलनाथ के परामर्श पर ही उनकी अनिच्छा के बावजूद भोपाल लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने के लिये अपनी सहमति व्यक्त करनी पड़ी।
दिग्विजय ने सार्वजनिक तौर पर भी यह कहने में संकोच नहीं किया है कि उनकी इच्छा अपनी पारंपरिक पारिवारिक सीट राजगढ़ से चुनाव लड़ने की थी। ऐसा केवल दिग्विजय के साथ ही नहीं हुआ है बल्कि कई लोकसभा सीटों के लिये चयनित उम्मीदवार अपने चुनाव क्षेत्रों में बदलाव चाहते थे, जिसकी अनुमति उन्हें नहीं मिली।
जाहिर सी बात है कि लोकसभा चुनावों में मध्यप्रदेश में कांग्रेस पार्टी के चुनाव अभियान की बागडोर भी कमलनाथ के हाथों में ही होगी। अर्थात् राज्य विधानसभा के गत वर्ष संपन्न चुनों की अपेक्षा इस बार स्थिति भिन्न होगी। गौरतलब है कि गत विधानसभा चुनाव में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पद की बागडोर कमलनाथ के हाथों में थी जबकि कांग्रेस की चुनाव प्रचार समिति के संयोजक ज्योतिरादित्य सिंधिया थे और समन्वय समिति के मुखिया का दायित्व दिग्विजय सिंह संभाल रहे थे।
इन तीनों संयुक्त प्रयासों ने 15 सालों बाद राज्य में कांग्रेस पार्टी की वापसी को संभव बनाया। ऐसा माना जा रहा था कि प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की कमान अपने हाथों में लेने के बाद मुख्यमंत्री कमलनाथ पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी किसी अन्य वरिष्ठ नेता को सौंप देंगे परंतु उन्होंने लोकसभा चुनावों तक यह पद भी अपने पास रखने का फैसला किया। अब वे मुख्यमंत्री भी हैं और प्रदेश अध्यक्ष के पद पर भी बने हुए है। सत्ता और संगठन दोनों ही उनके कब्जे में हैं। विधानसभा चुनाव में प्रदेश में पार्टी के प्रचार अभियान को बखूबी संभालने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया को पूर्वांचल में प्रियंका गांधी का हाथ बंटाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है।
दिग्विजय इस समय भोपाल में बीजेपी का गढ़ तोड़ने में लगे हुए हैं। इस तरह कमलनाथ इन चुनावों में कांग्रेस का एक मात्र लोकप्रिय चेहरा है और इस नाते प्रदेश में कांग्रेस की शानदार जीत की पटकथा उन्हें ही लिखनी है। परंतु सवाल यह उठता है कि क्या वे ऐसा कर पाएंगे।
उनका यह आत्मविश्वास कहीं पार्टी की जीत की संभावनाओं को तो प्रभावित नहीं करेगा।
निश्चित रूप से कमलनाथ के लिये यह एक कठिन चुनौती है कि गत लोकसभा चुनावों में राज्य की 29 में से मात्र 2 सीटें जीतने में सफल हुई कांग्रेस पार्टी को अकेले अपने दम पर 15 से अधिक सीटों पर जीत में समर्थ बना सके। मुख्यमंत्री कमलनाथ का यह आत्मविश्वास आश्चर्यजनक है। ऐसा प्रतीत होता है कि कमलनाथ अब यह मान चुके हैं कि वह चार माह में ही लोकप्रियता के मामले में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से काफी आगे निकल गए है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज सिंह चौहान भले ही गत 3 विधानसभा चुनावों में पार्टी को लोकप्रिय चेहरा रहे हों परंतु उन्होंने भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष पद की बागडोर अपने पास नहीं रखी। दो विधानसभा चुनावों में उन्होंने नरेन्द्र सिंह तोमर को प्रदेश अध्यक्ष के रूप में अपना जोड़ीदार बनाया और गत विधानसभा चुनावों में सांसद राकेश सिंह के हाथों में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष पद की कमान थी। वैसे राकेश सिंह के कार्यकाल में ही भाजपा के हाथों से प्रदेश की सत्ता छिन गई।
कमलनाथ के बारे में यह तो माना जा सकता है कि वे राकेश सिंह की तुलना में अधिक जाना पहचाना चेहरा हैं आर राकेश सिंह अपने संसदीय क्षेत्र जबलपुर में ही निरापद जीत के प्रति सशंकित नजर आ रहे हैं। परंतु अकेले दम पर लोकसभा चुनावों में प्रदेश में कांग्रेस को शानदार सफलता दिला देने का उनका आत्मविश्वास पार्टी को भारी पड़ सकता है।
कांग्रेस पार्टी की दिक्कत यह है कि कमलनाथ के हाथों में मुख्यमंत्री पद की बागडोर आने के बाद प्रदेश में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में वह एकजुटता नजर नहीं आ रही है जो विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी की सबसे बड़े दल के रूप में जीत की बड़ी वजह थी। पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव, सुरेश पचौरी और कांतिलाल भूरिया अब प्रदेश में मुख्य भूमिका में नहीं हैं। संगठन के स्तर पर लिये जाने वाले फैसलों में अब सर्वसम्मति का तत्व नजर नहीं आता।
मध्यप्रदेश की गत विधानसभा में विपक्ष के नेता पद का दायित्व संभाल चुके अजय सिंह अपने गृह क्षेत्र में विधानसभा का चुनाव हारने के बाद पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से बाहर हो चुके हैं। अभी हाल ही में उन्होंने यहां तक कहा है कि अगर मैं लोकसभा चुनाव भी हार जाता हूं तो यह मेरा आखिरी चुनाव हो सकता है। इसके बाद मैं दोबारा समीक्षा करने तक नहीं आउंगा।
सवाल यह उठता है कि विधानसभा में विपक्ष के नेता पद का गरिमापूर्वक निर्वहन करने वाले अजय सिंह के मन में आखिर ऐसी निराशा क्यों उपजी। क्या वे अब यह महसूस करने लगे हैं कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में उन्हें अलग थलग कर दिया गया है।
कारण जो भी हो परंतु यह निराशा पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटने की बड़ी वजह बन सकता है। जिसका असर प्रदेश में पार्टी की जीत की संभावनाओं पर पड़ेगा। प्रदेश में पार्टी में शीर्ष स्तर पर फिर से शुरू हो गया बिखराव पार्टी के हित में नहीं है और अगर इसे दूर करने की आवश्यकता जल्दी ही महसूस नहीं की गई तो पार्टी के लिये दिक्कतें खड़ी हो सकती है।
सवाल यह उठता है कि इसके लिये जरूरी पहल कौन करेगा। सिंधिया की रुचि या तो पूर्वांचल में कांग्रेस की स्थिति मजबूत कर राहुल गांधी का विश्वास जीतने में है अथवा वे अपनी लोकसभा सीट पर शानदार जीत सुनिश्चित करने पर सारा ध्यान केन्द्रित करेंगे। दिग्विजय भी भोपाल में भाजपा के गढ़ में सेंध लगाने के लिये अपनी सारी क्षमता वहीं लगा चुके है। ऐसे में सारा दारोमदार अब कमलनाथ के कंधों पर आ चुका है जो कि उन्होंने स्वयं ही सहर्ष ओढ़ लिया है। देखना यह है कि क्या उनका आत्मविश्वास पार्टी को लोकसभा चुनाव में भी गत विधानसभा चुनाव जैसी सफलता दिला पाएगा।
(लेखक डिज़ियाना मीडिया समूह के राजनैतिक संपादक है)