डॉ॰ श्रीश पाठक
अब जबकि देश अपने अगले प्रधानमंत्री की बाट जोह रहा है, एक मतदाता के तौर पर मुझे मोदी सरकार से अपनी उम्मीदों की पड़ताल कर लेनी चाहिए। मोदी सरकार की प्रशंसाओं के पुल तो यत्र-तत्र-सर्वत्र उपलब्ध हैं, किन्तु इस सरकार से मेरी व्यक्तिगत निराशाएँ भी दर्ज होनी चाहिए।
प्रचंड स्पष्ट बहुमत से उम्मीदें स्पष्ट
2014 में एक अविश्वसनीय जीत नरेंद्र मोदी को मिली। भाजपा के अलावा सभी निरपेक्ष विश्लेषकों ने भी एक राहत की साँस ली। जब एक ही सरकार अपना दूसरा कार्यकाल पूरा कर रही हो, भ्रष्टाचार अपने चरम पर हो, जनता की माँग को अनसुना किया जाय, कीमतों पर कोई नियंत्रण न हो, चुनी हुई सरकार पर एक परिवार का अधिक प्रभाव हो और जब भ्रष्ट मंत्रियों के कारनामे को सौम्य प्रधानमंत्री की विद्वता से ढँका जाय, ऑक्सब्रिज पृष्ठभूमि के कांग्रेसी नेताओं का अँग्रेजी गुरूर उनके इस कदर सर चढ़ के बोल रहा हो कि किसी भी जनहित के मुद्दे पर समाधान के बजाय वे भारी-भरकम सैद्धांतिक शब्दावलियाँ पेश कर देते हों तो ऐसे में भाजपा का स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में आना, लोकतंत्र में अंततः जनता के ही जनार्दन होने की संतुष्टि कुछ कम न थी।
उस जमाने में सलमान खुर्शीद, कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु संघवी, जयराम रमेश आदि का अरोगेन्स खुले-आम महसूस किया जा सकता था। ऐसे में नई मोदी सरकार से उम्मीदों का एक अलग ही स्तर था, स्पष्ट बहुमत की वजह से यह उम्मीदों का पूरा हो जाना मुमकिन भी लग रहा था।
पहली निराशा: मोदी सहित सरकार की असंयत भाषा और नॉन-इंटोलरेंस
मै जिस भाजपा को जानता रहा हूँ वह भाषा के मामले में सर्वाधिक समृद्ध पार्टी रही है। आरएसएस की ट्रेनिंग इसमें एक निर्णायक भूमिका निभाती रही है। किसी भी स्तर के किसी भी कार्यकर्ता से बात कर लीजिये, भाषाशैली और शब्दों का चयन लाजवाब करता रहा है। नेता तो बेहद सुलझी भाषा प्रयुक्त करते रहे हैं। वाजपेयी सरकार के समय के सदन की कार्यवाही देख लें, इसकी पुष्टि हो जाएगी। पार्टी विथ डिफरेंस जो अपने कार्यकर्ताओं के अनुशासन की प्रशंसा करते अघाती नहीं थी, आज आक्रामकता के नाम पर अजीब सी लिजलीजी भाषा का प्रयोग करने लगी है।
नरेंद्र मोदी के चुनावी भाषणों में चुप्पा प्रधानमंत्री पर फब्तियाँ कसते-कसते मोदी कब मर्यादाएँ लांघते गए, पता ही नहीं चला और फिर तो यह एक आदत सी हो गई। विपक्षी दलों के लोग उत्तर देने की कोशिश में भाषा की चुनौती देने लगे तो यह स्पर्धा और भी अश्लील हो गई। उम्मीद थी कि चुनाव के बाद तेवर बदलेंगे। सरकार चलते वक्त भारतीयता दलगत निष्ठा पर भारी पड़ेगी पर अफसोस ऐसा पिछले पाँच सालों में कभी न हो सका।
प्रधानमंत्री के लिहाज से शोभनीय नहीं भाषा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले पाँच सालों से लगातार चुनावी मोड में रहे और हर तीन-चार महीने उनकी एक टिप्पणी ऐसी जरूर आती रही जो एक प्रधानमंत्री के लिहाज से शोभनीय नहीं कही जा सकती थी। सरकार की कोई भी आलोचना बर्दाश्त करने को तैयार ही नहीं रही। सवाल पूछने वालों पर ही सवालिया निशान लगा दिया गया। टीवी विमर्शों में संबित की मजबूरी समझी जा सकती थी पर धीरे-धीरे समूची सरकार इसी टोन बोलने लगी कि- ‘कॉंग्रेस ने भी तो किया था…!’
अजी, कॉंग्रेस ने किया था तो वह सत्ता से बाहर है और फिर किसी की पुरानी गलती से क्या वर्तमान की गलती को जस्टीफ़ाइ किया जा सकता है?
दूसरी निराशा: सारा ठीकरा कॉंग्रेस और नेहरू पर
कांग्रेस के दो लगातार कार्यकाल के बाद अगर जनता ने स्पष्ट जनादेश के साथ भाजपा को सत्ता दी तो संदेश स्पष्ट था कि जनता कॉंग्रेस सरकार से खुश नहीं थी। भाजपा अपने कार्यकाल के पहले वर्ष में जब कॉंग्रेस को घेरती रही तो यह ठीक ही लगता था क्योंकि कॉंग्रेस की नाकामियाँ स्पष्ट थीं और संभव था कि एक नई सरकार को प्रारंभ में कुछ ऐसी चुनौतियाँ मिल रही हों जिनके मूल में कॉंग्रेस की नीतियाँ जिम्मेदार रही हों। परंतु जब दूसरे-तीसरे-चौथे और आखिरी साल भी भाजपा, कॉंग्रेस पर ही किन्हीं असफलताओं के लिए दोष मढ़ती रही तो यह बेहद निराशाजनक रहा।
मोदी सहित भाजपा नेताओं ने गाँधी और नेहरू तक को नहीं छोड़ा और एक समय ऐसा लगने लगा कि इस देश की हर समस्या के मूल में नेहरू और कॉंग्रेस है। भाजपा, सत्ता में रहकर भी विपक्ष की भाषा भूलने को राजी नहीं रही और लगातार परनिंदा से अपना अश्लील बचाव करती रही।
कश्मीर मुद्दा: कोढ़ में खाज
कश्मीर मुद्दा एक बेहद संवेदनशील मुद्दा रहा है। यहाँ किसी भी सही नियत वाली सरकार जब भी समाधान की तरफ सोचेगी वह द्विस्तरीय नीति ही अपनायेगी। एक तरफ वह आतंकवाद की तरफ सख्त रुख रखेगी और दुसरी तरफ वह इन्फ्रास्ट्रक्चर, विकास, शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार, संस्कृति, वार्ता आदि पर लगातार काम करेगी।
भाजपा ने यहाँ सुविधाजनक रुख अपनाया और एक असुरक्षित सरकार की तरह सारा दारोमदार बलप्रयोग पर लगा दिया। कश्मीरी पंडित समुदाय ने एक गहरी आशा बाँध रखी थी, सो वे भाजपा के राज्य में गठबंधन सरकार से ठगे गए। पत्थरबाजी की घटनाएँ अभूतपूर्व ढंग से बढ़ीं और राज्य में समुदायों में विभाजन रेखा तनिक और गहरी हो गई।
दूरगामी नीतियों का अभाव, योजनाओं की रीपैकेजिंग
कॉंग्रेस शासन की जिन नीतियों के विरोध के बल पर सत्ता के राजपथ तक के यात्रा पूरी की गई, उन्हीं को अपनाकर शासन चलाया गया। कहीं-कहीं तो बस योजनाओं का नाम बदला गया। आधार का विरोध किया गया था, उसी आधार को सभी सरकारी सुविधाओं में अनिवार्य बनाने की बेशर्म मुहिम चलायी गई। एफडीआई का विरोध हुआ था, इसे अब विकास का अनिवार्य साधन कहा गया। साल के 12 में से 9 गैस सिलेन्डर पर सब्सिडी देने के विचार पर एक जमाने में राजनाथ सिंह ने प्रचंड विरोध किया था, मोदी सरकार ने बारहों सिलेन्डर पर स्वेच्छा से सब्सिडी छोड़ने का अभियान चला दिया।
तेल के दाम बढ़ाए जाने पर एक जमाने में कहाँ भाजपा नेता अनशन पर बैठ जाते थे वहीं, अब जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल के दाम कम हो जाने के बावजूद नसीब वाले प्रधानमंत्री के शासनकाल में तेल की कीमतें उबलती रहीं। कैश बेनिफ़िट योजना को जनधन योजना के नाम से दोबारा पेश किया गया और धड़ाधड़ जीरो अकाउंट खोले गए। बैंकों से मोदी सरकार ने बहुत काम करवाया, पहले जनधन योजना फिर नोटबंदी के बाद नोटवापसी।
नोटबंदी पर तो आलोचना एक पूरा अकेला आलेख भी नाकाफी होगा पर नोटबंदी के पीछे सरकार के उद्देश्य को बार-बार अलग-अलग बताया गया। जिस देश में हाल ही खाते खुलवाए गए हों, उस देश के नागरिकों से नोटबंदी के बाद कैशलेस ट्रैंज़ैक्शन की अपील की गई। कहा गया कि नोटबंदी से आतंकवादियों की कमर टूट गई है और फिर भी पुलवामा का निर्मम अटैक हुआ और देश युद्ध सरीखे हालात में पहुंचा। कोई दूरगामी शिक्षा नीति, खेल नीति, रक्षा नीति, उद्योग नीति, मानव संसाधन नीति, पर्यावरण नीति आदि नदारद रही।
विदेशनीति: शोर पर ज़ोर
आखिरी साल में जो हिसाब लगाएँ कि जमा हासिल क्या है मोदी जी के विदेश नीति का तो हाथ पर गिनने को उँगलियाँ शर्मायेंगी। यात्रा खूब हुई, होनी भी चाहिए पर जरा याद करिए किसी देश से कोई ठोस समझौता हुआ हो जो अपने आप में अनूठा हो और जिसका फायदा देश को भविष्य में लगातार मिलने वाला हो। नीति में चौंकाने की प्रवृत्ति रही जरूर। कई बार यह बेहद असंगत भी लगी। अमेरिका से तनिक और निभाने की कोशिश हुई पर ट्रम्प जबतब आर्थिक नीतियों पर गुगली फेंकते रहे। परंपरागत रूस पाकिस्तान को हथियार सप्लाई करने लगा। नेपाल बिदका रहा।
लंका में हम और भी संकुचित रहे, मालदीव में जरूर हमारी मनपसंद सरकार बनी पर वहाँ भी यह एक चमत्कार ही अधिक था। चीन-पाकिस्तान गठजोड़ पर हम चीन पर कोई दबाव नहीं बना सके, डोकलम की तनातनी के बाद भूटान ने भी एक संकुचित रवैया अपनाया। पूरे कार्यकाल में दक्षेस पर बात ही नहीं हुई। आसियान से भी कोई चमकती खबर नहीं आई। इराक में हमारी नर्स अवश्य बचाई जा सकीं पर चालीस मजदूरों के मुद्दे पर सरकार झूठ बोलती रही। सरकार की उपलब्धियां हैं अवश्य पर उतनी नहीं जितनी की सुनाई जा रहीं।
सांप्रदायिक विभाजन
सेकुलरिज़्म को शान से सिकुलरिज़्म कहा गया। हिन्दू-मुस्लिम समुदायों के विभाजन को और अधिक भुनाया गया। अखलाक केस, गोरक्षा, मंदिर मुद्दा, सबरीमाला, एनआरसी मुद्दा, लव जिहाद, सहारनपुर, कठुआ कांड, आदि ढेरो उदाहरण लगातार छाए रहे। भाषणों में जब तब सौहार्द की अपील की जाती रही वहीं ट्रोलर्स सांप्रदायिक आग भड़काते रहे। चुनाव और विभाजन की राजनीति साथ-साथ चलती रही। पुलवामा के बाद कई स्थानों पर मुसलमानों के खिलाफ कुछ लोगों ने अतिरेक करना चाहा, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि नफरत की राजनीति अपना असर करती रही।
भटकाव के मुद्दे और देशभक्ति का सर्टिफिकेट
भाजपा ने इस बार देशभक्ति के सर्टिफिकेट जमकर बांटे। राष्ट्रवाद को देशभक्ति का पर्याय बनाकर पेश कर दिया, राजद्रोह को देशद्रोह बना दिया, सवाल उठाने वाले शोधरत युवाओं के विश्वविदयालय जेएनयू को ही देशविरोधी करार दिया गया। संदिग्ध स्नातक डिग्रीधारी प्रधानमंत्री ने जब स्पष्ट बहुमत पाने के बाद भी चुनाव में हारी हुई संदिग्ध स्नातक डिग्रीधारी स्मृति ईरानी को उस पद पर बिठा दिया जिस पद पर बैठकर वह भारत के कुलपतियों के बैठक की अध्यक्षता कर सकती थीं तो मुझे आरएसएस के ‘विश्वगुरु’ और ‘परम वैभव’ अभियान की धज्जियां उड़ती दिखी।
फिर ईरानी जी ने दिखा दिया कि उन्हें सबाल्टर्न पर्सपेक्टिव के बारे में कोई ज्ञान नहीं है और वे सदन में जेएनयू के मेस में बंटने वाले पर्चे पर लिखे एक मनचाहे हिस्से को पढ़ उसे तोड़मरोड़ कर पढ़ने लगीं। सड़कें खूब बनीं, बिजली पर भी काम हुआ पर यह प्रगति उन्हें लेकर किए गए दावों के सामने बौनी साबित हुईं।
2014 के भाजपा के बेहद महंगे चुनाव अभियान को देखकर तब ही मै सोचता था कि यह सरकार बनेगी भी तो इसपर पहले तो अपने देनदारों का दबाव होगा फिर भी एक उम्मीद बनी स्पष्ट बहुमत से कि मोदी सरकार उन दबावों को दरकिनार कर कुछ ठोस पहलों की बुनियाद तैयार करेगी।
अंबानी, अड़ानी, जीओ, पेटीएम की अभूतपूर्व प्रगति और कोबरा पोस्ट के स्टिंग ऑपरेशनों ने काफी कुछ कलई खोल दी। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा केवल सुखद समाचार लिखने लगा और नवरात्र पर सवाल पूछने लगा।अब इसबार के चुनावी खर्चे भी कोई कम तो नहीं किसी के कि उम्मीद ताजी जगाई जाय ।
(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार है यह लेख उनका निजी विचार है)