ट्रिंग ट्रिंग। ट्रिंग ट्रिंग। ठीक सुबह नौ बजे रामदास का विवो फोन घनघनाया। वैसे आम तौर से स्मार्टफोन कभी ट्रिंग ट्रिंग की ध्वनि में नहीं बजते। चूंकि भारत के भाषा वैज्ञानिक पिछले बीस साल के दौरान दूरसंचार के क्षेत्र में आए तकनीकी बदलावों के हिसाब से स्मार्टफोन के रिंगटोनों की सटीक शब्दावली गढ़ने में अब तक सक्षम नहीं हुए हैं। लिहाजा ट्रिंग ट्रिंग का प्रयोग इस लेखक की भाषायी मजबूरी है।
रामदास हड़बड़ा कर उठा। फोन की स्क्रीन पर “भाईसाब” चमक रहा था।
“जी भाईसाब, प्रणाम!”
“खुश रहिए”, उधर से भारी-भरकम आवाज़ आई, “कहां पाए जा रहे हैं बंधु?” रामदास ने जम्हाई लेते हुए जवाब दिया, “हम त बनरसे में हैं, आप बताइए!” “मैं बनारस आ गया हूं, कमर कस लीजिए!” रामदास के तन-बदन में झुरझुरी-सी दौड़ गई।
दरअसल, विपक्ष का प्रत्याशी अब तक तय नहीं हो पाने के चलते राष्ट्रीय मीडिया का कुत्ता भी बनारस की तरफ सिर नहीं उठा रहा था। स्ट्रिंगरों के पेट पर लात पड़ने की परिस्थिति बन गई थी। वो भी क्या दौर था जब पूरे देश का मीडिया बनारस में उमड़ पड़ा था।
बहुत पुरानी बात नहीं, यूपी विधानसभा में ही तो पिछली बारात आई थी। स्थानीय स्ट्रिंगर सहबल्ला बने हुए थे, जो राष्ट्रीय पत्रकारों के साथ घोड़े पर बैठकर उन्हें स्टोरी का रास्ता दिखाते थे और महीने भर की दिहाड़ी एकाध दिन में कमा लेते थे। इसीलिए रामदास के फोन पर जब भाईसाब का नाम चमका, तो उसके मन में एक के बाद एक दो लड्डू फूटे।
रामदास नहा-धो के, इस्तरी की हुई सफेद शर्ट डाल के, महामना की बगिया की ओर निकल पड़े। भाईसाब भी उधर ही आ रहे थे। लंका चौराहे पर पहुंचते ही रामदास फुल ठसक में आ गए। चौराहे पर एक भूतपूर्व नेता मिले। रामदास ने उनकी ओर देखते हुए समस्त चौराहे को संबोधित किया- “दिल्ली से भाईसाब आए हैं। आज स्पेशल शो होई। लाइव। मंदिर पहुंचा जा लोगन। जल्दी।”
जो लोग भाईसाब को जानते थे, वे जानते थे कि भाईसाब एक कामयाब और इज्जतदार मीडिया स्टार्टअप के संस्थापक हैं। जो नहीं जानते थे, उन्हें यह बता दिया जाता था।
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रामदास हाथ में विवो चमकाते वीटी पहुंचे। दो चार फोन लगाया। भाईसाब का नाम लिया। देखते देखते लड़के लड़कियों की फौज जुट गई। दरअसल, भाईसाब की लोकप्रियता यहां उतनी नहीं थी जितनी उनके ब्रांड की थी।
लड़के जानते थे कि बीएचयू को कवर तो सब करते हैं लेकिन बिना रोके दिखाता केवल एक मंच है- सावधानमीडिया। अबकी तो कवरेज के अकाल के बीच पहली बार दिल्ली से खुद चलकर सावधानमीडिया का मालिक आया है, फिर कुछ तो बात होगी ही।
ढलती शाम में भीड़ मुकम्मल। सहबल्ला टाइट। दूल्हा कॉमर्स फैकल्टी की इमारत पर धूल उड़ाते हुए ओला नाम के घोड़े से वीटी पहुंचा। स्वागत गान हुआ, भले सुनाई नहीं दिया हो। भाईसाब गदगद। जनता बेचैन। चाय चुक्कड़ के बाद सूखी हरी घास खोजी गई जहां शूट हो सके। कैमरे तैनात। लड़के कतारबद्ध। भाईसाब ने झोले में हाथ डाला और डेढ़ हाथ लंबी पंजाछाप माइक आईडी निकाल ली।
इसके बाद की कहानी पत्रकारिता के इतिहास का एक ऐसा अध्याय है जो शायद फुटनोट में भी जगह नहीं पा सकेगा। लड़कों का क्या है, उन्हें तो बस कैमरा चाहिए था, सावधानमीडिया का हो या प्रावधान मीडिया का। रामदास के सपनों पर तीस रुपए की चाय फिर चुकी थी। उसके साथ ऐतिहासिक धोखा हुआ था। काश, उसने सुबह पूछ लिया होता भाईसाब से, कि किसके लिए शूट करने आए हैं। दिहाड़ी तो नहीं मारी जाती। लड़कों के बीच इज्जत तो बची रहती।
बहरहाल, देर शाम टंडन जी की अड़ी पर नेताजी भेंटाए, “का हो रामदास, हो गयल लाइव?” रामदास के वलवले जैसे फूट पड़े- “ओदा पारी कहत रहलन हमसे कि पैसा जुटाओ, अपना मीडिया खड़ा करेंगे मिलजुल के। हम सोचली आदमी त सही हव। पता चलल कि खुदे नौकरी पकड़ लेलस पट्ठा। बतवलस भी नाहिं। कुल काम करवले के बाद जब माइक निकललस, हमार त झंटिये सुलग गल।”
टंडन जी के अंधेरे कमरे में जोर का समवेत ठहाका लगा। नेताजी ने गंभीर मुद्रा बनाते हुए खड़ी में कहा, “देखिए, किसी की क्या स्थिति है, उससे उसका चुनाव तय होता है। मालिक भी कभी नौकरी कर ही सकता है। वैसे ये बताइए, माइक आइडी किसकी रही?” रामदास सिर झुका कर बोले, “वही, महामना की बगिया का मशहूर फ्लावर, आपके पूर्व वामपंथी महामंत्री की पूर्व…!” नेताजी समझते ही अट्टहास कर उठे, “यारज्जा, तब त सही हौ। देखा दिग्विजइया कहीं भोपाल से पेला न जाए, सब पत्रकारिता डेढ़ महीना में वायनाड़े लग जाई।”
रामदास ने बुझे मन से खीझते हुए जिज्ञासा जताई, “वायनाड़ कहां से आ गयल बीच में?”
बगल में काफी देर से शांत खड़े एक प्रबुद्ध लौंडे ने स्पष्ट दिया, “वायनाड बीच में नाहिं, दक्खिन में हौ!”
( लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं , इस लेख में बनारस की स्थानीय बोली का प्रयोग किया गया है )