राजेश कुमार
लखनऊ । योगी के अफसर इस चुनावी मौसम में उनकी मंशा पर पानी फेरने और अपनी कार्यशैली से सियासी नुकसान होने की पूरी जगह बना दे रहे है। जिन पर सरकार की छवि बनाने की जिम्मेदारी है वही बिगाड़ने के काम में लगे हैं। सूबे की सियासत एकदम चरम पर प्रत्याशी मैदान में उतर चुके हैं और रणभेरी बज चुकी है।
भाजपा की सरकार को 2 साल पूरे होने के साथ ही पहली बार मुख्यमंत्री बने योगी आदित्यनाथ को उपचुनावों में मिली हार का घाव भरने और अपने काम के माध्यम से खुद के 2 साल के कार्यकाल को साबित करने की चुनौती है, जिसके लिए पूरी सरकार एक-एक वोट पर नजर रखे हुए है। दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर जाता है ऐसे में प्रदेश ही नहीं पूरे देश की नजर उत्तर प्रदेश पर है, फिर भी योगी के अफसर हैं कि सुधरने का नाम ही नहीं ले रहे और योगी सरकार की छवि को धूमिल करने में लगे हैं।
यहाँ तक की गोवंश संरक्षण जोकि खुद योगी आदित्यनाथ का एक महत्वपूर्ण मिशन है और इस सियासी समय में उनके हिंदुत्व के एजेंडे की पहचान है उस पर भी अफसरों ने अपने कारनामे कर दिखाए और गायों के भूसे-चारे के बजट पर कैंची चलते हुए उसको 50 रूपये प्रतिदिन से 30 रूपये प्रतिदिन कर दिया जबकि भूसे का कारोबार करने वालों का कहना है कि एक गाय पर एक दिन का खर्च औसतन 100 रूपये पहुँच गया है। इसके अलावा अभी हाल ही में आईएएस वीक से पहले जिलों में गोवंश आश्रय केंद्र बनाये जाने के लिए दिए जाने वाले धन को सीधे जिलाधिकारी के खाते में न डालकर एक बदनाम एजेंसी के खाते में ट्रांसफर किये जाने से नाराज मुख्यमंत्री ने प्रमुख सचिव सुधीर बोबडे को सार्वजनिक रूप से फटकार लगाई थी।
योगी सरकार के पूरे 2 साल अफसरशाही और उनके संवर्गों की आपसी खींचतान चर्चा में रही और कई मर्तबा इसमें सीएम योगी को भी हस्तक्षेप करना पड़ा। जनता की शिकायतों को सुनने और सहूलियतों को देने के लिए बैठे इन अफसरों में 2 के ठाट तो एकदम निराले हैं। प्रमुख सचिव ऊर्जा अलोक कुमार और प्रमुख सचिव औद्योगिक विकास से मिलने के लिए एक कड़ी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है वो भी तब जब उनकी अनुमति हो। लोगों का यहाँ तक कहना है कि मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव से मिलना आसान है लेकिन इन दोनों नौकरशाहों से नहीं।
पिछले कुछ महीनों की अखबारों की सुर्ख़ियों पर यदि नजर डालें तो आये दिन किसी न किसी अफसर को कोर्ट में तलब किये जाने, फटकार लगाये जाने, जुर्माना लगाए जाने और नसीहत देकर छोड़े जाने की खबर जरूर देखने को मिली जाती रही है। ताजा प्रकरण में तो कोर्ट ने एक प्रकरण में पेशाब पर भी पाबंदी यानी परमीशन के बाद पेशाब करने तक की सख्त सजा दे दिया था।
इसे मुख्यमंत्री योगी की अफसरशाही पर कमजोर पकड़ ही कहा जा सकता है कि इस चुनावी समय में उसके ऊर्जा, वित्त, सचिवालय प्रशासन, औद्योगिक विकास और बेसिक शिक्षा जैसे अहम महकमों के मुखिया सरकार की किरकिरी कराने में कहीं पीछे नहीं हैं। जिनके कारनामों से लाखों अधिकारियों और कर्मचारियों की नाराजगी इस चुनाव में भारी पड़ सकती है। हालांकि सीएम योगी इसको लेकर संजीदा हैं और फटकार भी लगाते रहे हैं लेकिन जरूरी कामयाबी हासिल नहीं कर पाए हैं।
बेसिक शिक्षा विभाग
पिछली सरकार से लेकर योगी सरकार तक शिक्षामित्र सरकार के गले की हड्डी बनते रहें और शिक्षा विभाग नौकरियों के लिहाज से सबसे अहम और संवेदनशील रहा है। बताते चलें 69 हजार रिक्त पदों पर शिक्षकों की भर्तियां होनी है लेकिन विभाग के अफसरों की लापरवाही और मनमानी यहां भी देखने को मिली। पहली भर्ती में कटऑफ रखी गई थी लेकिन दूसरी भर्ती का विज्ञापन निकाला तो कट ऑफ को गायब कर दिया। अभ्यर्थियों के असंतोष और सरकारी दबाव के चलते विभाग ने फिर से कट आफ तय कर दिया जोकि पिछली बार से भी ज्यादा था और शिक्षामित्रों द्वारा मामले को हाई कोर्ट ले जाया गया। जिस पर कोर्ट ने बाद में तय की गई कट ऑफ को रद्द करते हुए काफी फटकार लगाई। शिक्षा विभाग के अफसरों की यह कार्यशैली कोर्ट के निर्णय के बाद योगी सरकार द्वारा शिक्षामित्रों को संतुष्ट करने के लिए 10000 रूपये के दिए गए मानदेय पर पानी फेर दिया।
वित्त विभाग
योगी का वित्त विभाग भी उनकी किरकिरी कराने में कोई कसर नहीं छोड़ा है। चुनाव से पहले केंद्र सरकार द्वारा बढाये गए डीए को लागू करने में अपनी मनमानी दिखाई और इस चुनावी समय में सरकार के एजेंडा और पार्टी की प्राथमिकताओं को दरकिनार करते हुए सरकार की छवि को निखारने के बजाय लोगों की नाराजगी की वजह बन गया। जिस महंगाई भत्ते को बढ़ाने का फैसला केंद्र सरकार ने समय से कर लिया था उसी महंगाई भत्ते को वित्त के अफसरों ने आचार संहिता से पहले पास कर लिया बाकियों यानी अन्य कर्मचारियों और पेंशनरों को छोड़ दिया।
बाद में सरकार की नाराजगी और मीडिया में चली खबरों के दबाव के बाद छुट्टी के दिन दफ्तर खोलकर चुनाव आयोग से अनुमति लेकर कर्मचारियों के भत्ते को पास किया लेकिन फिर पेंशनरों को छोड़ दिया पुनः दबाव पड़ने पर उसको जारी किया गया। इस सम्बन्ध में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की नाराजगी की खबरें भी आयीं। फिलहाल सूबे में इन अधिकारियों/कर्मचारियों तथा पेंशनरों की कुल संख्या लगभग 40 से ऊपर होगी।
ऊर्जा विभाग
ऊर्जा विभाग के कारनामे कुछ अलग ही हैं। जिस उर्जा और पुलिस विभाग की कामयाबी का गुणगान कर सरकार चुनावी मैदान में है उसकी हकीकत इससे इतर है। उज्ज्वल योजना में अनियमितता, बिजली के मीटर खरीद में धांधली, मीटर रीडिंग से लेकर बिलिंग तक में गडबडी जिसका शिकार खबरों की मानें तो खुद विभाग के पूर्व चेयरमैन अवनीश अवस्थी भी हो चुके हैं।
चुनाव से कुछ पहले, जो संविदा कर्मी पावर कारपोरेशन के पैरोल पर नहीं है उनका भी यह अंतर तहसील तबादला कर दिया गया और डिस्कॉम के इन कर्मचारियों की संख्या लगभग 50 हजार से ऊपर है। महत्वपूर्ण बात यह है योगी के विजन और चुनाव में बीजेपी के मंसूबों को पलीता लगाते हुए यह फैसला एकदम नियम विरुद्ध है। इन संविदा कर्मियों के संबंध में जो विभागीय आदेश जारी किए जाते हैं उनमें इनको संविदा कर्मी बताया जाता है जबकि जमीन पर यह निविदा कर्मी यानी ठेकेदारी सिस्टम के कर्मचारी हैं। यूनियन के एक पदाधिकारी के अनुसार संविदा अथवा निविदा तथा समान कार्य समान वेतन की मांग को लेकर अब इनकी यूनियन कोर्ट जाने की तैयारी में है।
इसके अलावा डिस्काम आगरा के निदेशक कार्मिक द्वारा अपने बेटे को ठेकेदारी कराई जाने और इस प्रकरण में एमडी की मिली भगत की बात चर्चा में रही जिसपर प्रमुख सचिव अलोक कुमार ने 2 दिन में जांच कराकर कार्यवाही करने की बात कही। लेकिन करीब एक हफ्ते से ज्यादा बीत जाने के बाद भी पूरे प्रकरण में कुछ सामने नहीं आ सका है और मामला ठन्डे बस्ते में जा चुका है।
सचिवालय प्रशासन विभाग
सचिवालय प्रशासन के अपर मुख्य सचिव महेश गुप्ता को दिनभर कोर्ट में बैठाए जाने और बिना परमीशन पेशाब करने की भी जा अनुमति नहीं दिए जाने का मामला अभी ताजा सुर्खियों में रहा था। अवमानना की कार्यवाई प्रस्तावित होने और किसी भी स्तर से राहत न मिलने के बावजूद अपनी जिद पर अड़े रहे और सहायक समीक्षा अधिकारियों की वरिष्ठता का विवाद निपटाते-निपटाते खुद ही पक्षकार बन गए। महेश गुप्ता के इस कदम से समीक्षा अधिकारियों में काफी रोष था और सरकार की किरकिरी हुई अलग से। बताते चलें की कोर्ट ने महेश गुप्ता पर इसके लिए 25 हजार का जुर्माना भी लगाया था और इसको खुद अपनी जेब से भरने को कहा था।
औद्योगिक विकास
योगी ने सत्ता संभालते ही इन्वेस्टर्स समिट कर सूबे के बेरोजगारों को रोजगार का सपना दिखाया लेकिन उनके अफसरों ने इस औद्योगिक विकास का पहला शिलान्यास समारोह 5 महीने में किया तो दूसरा साल भर में भी नहीं हो पाया। जबरदस्ती के दावे और पर्दे के पीछे के खेल का शिकार हुआ मुख्यमंत्री योगी का यह सपना। बताते चलें पहले इन्वेस्टर समिट में सरकार से उद्यमियों के 4.68 लाख करोड़ के एमओयू साइन हुए थे।
सरकार ने एक तय समय में निवेशकों के प्रस्तावित प्रोजेक्ट के शिलान्यास समारोह की योजना बनाई थी जिसमें पहली ग्राउंड ब्रेकिंग सेरेमनी 5 महीने में हो गयी। दूसरी का ऐलान सरकार द्वारा अगले 6 महीने में किए जाने की बात कही और जिसमें पहली ब्रेकिंग सेरिमनी से ज्यादा की धनराशि जमीन पर आएगी इसकी तैयारी के लिए एक नए प्रमुख सचिव की भी तैनाती की गई लेकिन मुख्यमंत्री का यह प्रोजेक्ट भी लालफीताशाही का शिकार हो गया और तैयारियों में कमी के चलते इसको रद्द करना पडा।