के.पी. सिंह
लालकृष्ण आडवाणी की दशा देखकर हर संवेदनशील आदमी को उऩ पर दया आ रही है भले ही उनसे किसी भी हद तक वैचारिक असहमति रहे। लालकृष्ण आडवाणी जिस विचारधारा को सही समझते थे उसके लिए उन्होंने जीवन भर ईमानदारी से काम किया।
अटल बिहारी वाजपेई के चिंतन का क्षितिज तो असीम रहा इसलिए भले ही उन्होंने किसी भाषण में अपने स्वयंसेवक होने की पहचान पर गर्व जता दिया हो लेकिन सही बात यह है कि वे विचारधारा के किसी भी चौखटे में अपने को बहुत नहीं बांध सके।
अटल बिहारी वाजपेई प्रयोगधर्मी थे और सार्वजनिक जीवन में आदर्श प्रतिमान खड़े करने के लिए उन्होंने राजनीति में जो प्रयोग किए उनमें ज्यादातर घाटे का सौदा साबित हुए। हालांकि मानवता के ऊंचे प्रतिमानों का औचित्य हानि और लाभ के आधार पर तय नहीं किया जाना चाहिए इसलिए वाजपेई जी के खाते में कितनी भी राजनीतिक विफलताएं रही हों लेकिन वे ऊंचे कद के नेता थे, इस मूल्यांकन में उनकी सफलता-असफलता के विवेचन से कोई अंतर आने वाला नहीं है।
दूसरी ओर लालकृष्ण आडवाणी भी कम नहीं हैं। वाजपेई ने जनसंघ का परिष्कृत संस्करण भारतीय जनता पार्टी के नाम से राजनीति के बाजार में उतारा। उन्होंने लीक से अलग हटकर नई पार्टी बनाने में ऐसे प्रयोग किए कि अगर वे विराटकाय न होते तो इतिहास की गुमनामी में दफन हो जाते।
फिर भी भाजपा की शुरुआत में जब तक बागडोर वाजपेई जी के हाथ में रही पार्टी की चिता सज गई थी। जिसे लालकृष्ण आडवाणी ही थे जिन्होंने अपनी रणनीति से न केवल संजीवनी दी बल्कि उसे राजनीति की मुख्य धारा के केंद्र में स्थापित करने का चमत्कार किया।
लेकिन लालकृष्ण आडवाणी उस पीढ़ी के नेता हैं, जो न तो कृतघ्न हो सकती है और न ही अपने वरिष्ठों के अदब-लिहाज को भूल सकती है। इसलिए भाजपा के सत्ता में आने का अवसर आया तो उन्होंने अग्रो-अग्रो सीनियर की तर्ज पर अटल बिहारी का नाम आगे किया, यह सोचकर कि उनके बाद तो मेरा नंबर है ही।
लेकिन जैसा कि बाबा साहब अंबेडकर कहते थे गुलामी का लंबा दौर पीड़ादायक होने के साथ-साथ इसलिए बहुत संत्रास भरा होता है कि वह दासता में जीने वालों का चरित्र भी खत्म कर देता है। यह बात इस देश की सामूहिक चेतना के मामले में एकदम खरी साबित होती है जो मूल्यों के लिए जीने- मरने की बात करने की बजाय जिसका जूता मजबूत हो उसी के साथ चलने के कायदे में यकीन रखती है और इसे व्यवहारिक निपुणता का गौरवशाली नाम दिया जाता है।
इसलिए लालकृष्ण आडवाणी जब कमजोर हालत में पहुंचते दिखे तो जिस तरह मृत शरीर का साथ जौंकें छोड़ जाती हैं वैसे ही उगते सूर्य को नमस्कार करने वाली कभी उनके प्रति अंधभक्ति तक अभिभूत राजनीतिक प्रजाति गर्दिश के दिन देख उनसे मुंह मोड़ बैठी। आडवाणी पीएम इन वेटिंग तो घोषित हुए लेकिन वे वेटिंग में ही रह गए और इसमें देश की मौकापरस्त आम मानसिकता का सबसे बड़ा योगदान रहा।
उम्मीद थी कि वे प्रधानमंत्री भले ही न बन पाए हों लेकिन पार्टी उन्हें राष्ट्रपति बनाकर अपने पितृपुरुष का गरिमापूर्ण तर्पण अवश्य करेगी। लेकिन नये राष्ट्रपति के चुनाव की सुगबुगाहट शुरू होने के समय ही बाबरी मस्जिद ध्वंस के सुप्रीम कोर्ट का अप्रत्याशित फैसला आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी आदि पर आपराधिक षड्यंत्र का मुकदमा चलाए जाने के संदर्भ में आया।
लोगों ने जान लिया कि उनके राजनीतिक क्रियाकर्म की प्रस्तावना लिखी जा चुकी है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के अवसर को कोई संयोग नहीं मान रहा भले ही अवमानना जैसी चीजों के डर की वजह से खुलकर लोग इस पर न बोलें।
पीएम मोदी को कभी आडवाणी ने ही अपना पट्ट शिष्य समझकर प्रमोट किया था। फिर भी जब वक्त बदलने पर मोदी ने ही उन्हें अवहेलना का स्वाद चखाना शुरू किया तो लालकृष्ण आडवाणी ने यह जताने में कसर नहीं छोड़ी कि उनकी बूढ़ी हड्डियों में अभी बहुत दम है। इसलिए लोग सोच बैठे थे कि अंतिम बाजी हार चुके जुआरी की तरह सर्वहारा गति को प्राप्त लालकृष्ण आडवाणी राष्ट्रपति चुनाव का भवितव्य स्पष्ट होने के बाद विस्फोटक तेवर दिखाएंगे।
लेकिन जैसा कि कहा जाता है पुरुष नहीं होत बलवान, समय होत बलवान, लालकृष्ण आडवाणी इसके उलट बेहद कातर मुद्रा में नजर आये जब वे पार्टी द्वारा इसके लिए मनोनीत प्रत्याशी रामनाथ कोविंद का पर्चा भरवाने की तैयारी बैठक में मौोजूद थे। आडवाणी इतनी बुरी तरह टूट जाएंगे, यह अहसास भाजपा में हर किसी को खला। लेकिन मुकद्दर के सिकंदर के सामने कोई मुंह खोलने का साहस कैसे करे।
लालकृष्ण आडवाणी कुछ बन पायें या न बन पायें लेकिन उऩकी गणना देश के बड़े नेताओं में है और बनी रहेगी। उनका हश्र किसी देवदूत के श्रापित हो जाने की तरह है। आडवाणी के श्रद्धालुओं के साथ यह कहने के लिए क्षमायाचना चाहता हूं कि आडवाणी को कहीं उन पत्रकारों की हाय तो नहीं लग गई जिनकी लालकृष्ण आडवाणी ने जनता पार्टी सरकार में 1977 में सूचना प्रसारण मंत्री बनने के बाद रोजी-रोटी छिनवा दी थी।
इन पंक्तियों के लेखक की पत्रकारिता की शुरुआत हिंदी साप्ताहिक करंट के मध्य भारत संवाददाता के तौर पर हुई थी। जिस अखबार का परिचय यह है कि जनता पार्टी युग में सरकार विरोधी सख्त तेवरों की वजह से ब्लिट्ज को पछाड़कर यह अखबार देश का सबसे ज्यादा बिकने वाला अखबार घोषित हो गया था।
अगर साप्ताहिक करंट के सम्पादक से उन दिनों इन पंक्तियों का लेखक रूबरू हो जाता तो पत्रकार का उसका तमगा छिनना तय था क्योंकि उसकी मसें भी नहीं भीगी थीं, बालिग भी नहीं हुआ था और विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते राजनीतिक समझ भी अधकचरी थी। फिर भी उसकी समाचार कथाएं करंट में सबसे महत्वपूर्ण स्थानों मिडिल पेज के साथ- साथ प्रथम पेज पर भी प्रकाशित की जा रही थीं।
करंट कमाल का साप्ताहिक था। ब्लिट्ज की हिंदुस्तानी भाषा से अलग हटकर उसने हेडिंग से लगाकर कंटेंट तक में तत्सम हिंदी का इस खूबसूरती के साथ इस्तेमाल किया कि उसकी प्रांजलता में लगभग अनपढ़ पाठकों तक को रुकावट महसूस नहीं हुई। उसमें एक पेज का स्तंभ हरिशंकर परसाई का था। एक कमलेश्वर और राही मासूम रजा का। ऐसे दिग्गजों के अखबार में मुझ जैसे उस समय के नादान लड़के का प्रमुखता से प्रकाशित होना बहुत गौरव की बात थी।
उन दिनों ब्लिट्ज में अंतिम पेज अमिताभ बच्चन को फिल्म जगत में पहली बार ब्रेक दिलाने वाले ख्वाजा अहमद अब्बास लिखते थे जबकि करंट में पूरे अंतिम पृष्ट का स्तम्भ अखबार के सम्पादक स्वयं महावीर अधिकारी संभाले हुए थे। महावीर अधिकारी करंट शुरू होने के कुछ महीनों पहले तक उस समय की सबसे बड़ी अखबार कंपनी बेनेट कोलमेन आफ इंडिया के हिंदी दैनिक अखबार नवभारत टाइम्स के नेक्स्ट टू चीफ एडीटर थे और कुछ ही दिनों में उन्हें नवभारत टाइम्स का चीफ एडीटर होना था।
लालकृष्ण आडवाणी ने सूचना प्रसारण मंत्री बनने के बाद पहला काम अखबार कंपनियों के मालिकों पर दबाव बनाकर उन पत्रकारों को बाहर कराने का काम किया जिनकी विचारधारा आरएसएस विरोधी मानी जाती थी। आडवाणी जी के इस बुलडोजरी अभियान में महावीर अधिकारी भी खेत हो गये। अयूब सैयद ने उन पर मेहरबानी कर दी जिससे उन्हें हिंदी करंट में पुनर्वासित होने का बेहतर मौका मिल गया। वरना उन पर बहुत बुरी गुजरने वाली थी।
हां तो महावीर अधिकारी ने करंट में पिछले पन्ने पर एक धांसू कॉलम लिखा। मुझे जिस अखबार से लगभग बचपन में इतना रौब-रुतबा मिला उसमें छपी बातों को मैं इतने वर्षों बाद भी कैसे भूल सकता हूं। महावीर अधिकारी ने आडवाणी जी को संबोधित करते हुए लिखा था कि आडवाणी जी आपका व्यक्तित्व बहुत सुदर्शन है, लेकिन आपके सौंदर्य में और विषकन्या के सौंदर्य में क्या अंतर है।
जिस तरह रूपवती विषकन्या अपने शिकार को डसती है वैसे ही आपने भी मुझ जैसे गरीब पत्रकारों की रोजी को डसा है। उनके लिखने में एक धिक्कार थी कि आडवाणी जी, इस हाय का परिणाम कभी न कभी भोगना पड़ेगा।
हम जैसे लोग आडवाणी जी की राजनीतिक लाइन को पसंद भले ही न करते हों लेकिन उन्हें महान व्यक्तित्व मानने में कोई गुरेज नहीं है। इसलिए मेरे द्वारा इस संस्मरण का हवाला केवल परिहास के लिए ही समझा जाना चाहिए। कहना यह है कि आडवाणी जी को उनके योगदान के मुताबिक पार्टी से कुछ भी हासिल नहीं हुआ जो निश्चित रूप से उनके साथ भीषण अन्याय के रूप में इतिहास में दर्ज होगा।
बहुत से लोग मानते हैं कि उन्होंने अटल बिहारी वाजपेई बनने के चक्कर में जिन्ना को सराह कर अपनी साख पर जो बट्टा लगाया वही उनके करियर को ले डूबने का कारण बना। लेकिन आडवाणी जी ने कुछ गलत नहीं किया था। नेता वही होता है जो जिस बात को सही समझे उसे हवा के उलटे रुख के बावजूद कहने का साहस कर सके।
लोहिया कहते थे लोग उनकी बात सुनेंगे लेकिन उनके मरने के बाद लोहिया जी सही साबित हुए क्योंकि उनकी बातों पर आस्था जताने वालों की बड़ी तादाद उनके अवसान के बाद तैयार हुई। बाबा साहब अंबेडकर की भारतीय समाज के बारे में तमाम ऐसी बातें जो उनके समय कुफ्र के भागीदार बन जाने के भय से नहीं स्वीकारी गई थीं, बाद में समाद्रत हुईं और जिसकी वजह से देहावसान के 34 वर्ष बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने भारत सरकार के प्रायश्चित के बतौर उनके लिए भारत रत्न अलंकरण घोषित किया।
लालकृष्ण आडवाणी ने भी समय से पहले जिन्ना का पुनर्मूल्यांकन किया। लेकिन इसके पीछे जो तथ्य और दलीलें हैं भविष्य में जब पाकिस्तान के निर्माण को लेकर तटस्थता के साथ चीजों पर विचार होगा तो लोगों को निश्चित रूप से लालकृष्ण आडवाणी की स्थापना से कमोवेश सहमत होना पड़ेगा।
( लेखक ने इस ब्लाग को राष्ट्रपति चुनाव के समय लिखा था जो इस समय भी प्रासंगिक है। )