Monday - 29 July 2024 - 11:19 PM

कश्मीर-सोच और हकीकत

नीरज बहादुर पाल

कश्मीर और उसके हालात क्या सच में उसकी हकीकत बयान करते हैं? या फिर जो हो रहा है, उसके पीछे दशकों की राजनीति है? समस्या है कहां और उसका समाधान क्या हो सकता है?

 

“दूध मांगोगे तो खीर देगें,
कश्मीर मांगोगे तो चीर देगें।”

बचपन में यह नारा हम जब तब बोलते थे और हमारे रोएं रोएं खड़े हो जाते थे इस बोलते हुए। मतलब हमारे दिल और दिमाग में यह आज से नहीं बल्कि हमारे होश संभालने के साथ से ही है कि कश्मीर हमारे देश का एक अहम हिस्सा है। और उससे अलग होकर हम भारत का नक्शा नहीं देख सकते, लेकिन जिस कश्मीर को हम अपना हिस्सा मानते हैं क्या उतनी ही शिद्दत से हम वहां रहने वाले कश्मीरियों को भी अपना मानते हैं? यह एक ऐसा सवाल है जो मुझे अक्सर सालता है और सच पूछिए तो मेरे पास इसका कोई सही और सटीक जवाब नहीं होता।

कश्मीर, और कश्मीर के साथ पाकिस्तान, उसके साथ आतंकी, आतंकी के साथ घाटी और फिर ढेर सारी घटनाएं और आज़ादी से लेकर अब तक जाने कितनी जानों को लील चुका है कशमीर।

अलग थलग कश्मीर और कश्मीरी युवा

अभी कुछ दिन पहले की बात है जब यहीं दिल्ली हाट में श्रीनगर के बिलाल से मुलाकात होती है। बिलाल मिलते ही जो पहला वाक्य कहते हैं, वह बहुत कुछ कह जाता है और साथ ही एक आम भारतीय और कश्मीरी का अंतर भी बता जाता है। वह अपना परिचय देते हुए कहते हैं, “मैं कश्मीरी हूं लेकिन पत्थर बाज नहीं, मैंने कभी भी सेना के जवानों पर पत्थर नहीं फेंके हैं।”

 

बिलाल आज खुश हैं, उन्हें सरकार से हर संभव सहायता मिल रही है जिससे वह आगे बढ़ सकें, उन्हें इस बात का दुख है कि घाटी में कोई अच्छा कॉलेज नहीं है, लेकिन इस बात की ख़ुशी भी है कि घाटी के जवानों को भारत के दूसरे विश्वविद्यालयों और कॉलेजे  में दाखिला आसानी से मिल जाता है।

 

कश्मीर की राजनीति पर वह कहते हैं कि यह हम सबकी अपनी बनाई हुई समस्या है, इसे हमें अपने तरीके से ही सुलझाना होगा ना कि पाकिस्तान या फिर कोई दूसरा देश। अलगावादियों से वह खफा हैं और कहते हैं कि इनकी वजह से ही आज घाटी के हालात खराब हैं, कश्मीरी पंडितों को इन्हीं की साज़िश की वजह से अपना घर बार छोड़कर अपने ही देश में शरणार्थी बनना पड़ा, लेकिन वह फिर कहते हैं कि कुछ कश्मीरी पंडित अब  वापस आ रहे हैं और यह एक अच्छा संकेत है।

कश्मीर एक मुस्लिम बहुल राज्य है और यह एक बहुत बड़ा कारण रहा है इस राज्य के विवादित रहने का, और पाकिस्तान के कट्टरपंथी इसी का फायदा उठा कर यहां के युवाओं को बहकाते रहे हैं, लेकिन इतना सब कुछ होने के बाद भी क्यों एक आम कश्मीरी अपने आपको भारतीय नहीं समझ पाता? जहां एक तरफ मुस्लिम कट्टरपंथी यहां एक माहौल तैयार करते हैं वहीं हिन्दू कट्टरपंथी भी जब तब “बाबर की औलाद” जैसे जुमले से इस आग में घी डालने का काम करते हैं।

 

आज का आम कश्मीरी कहीं ना कहीं अपने आपको मुख्य भारतीय धारा से अलग थलग महसूस करता है। हमें यह भी समझना होगा कि कश्मीर की लगातार दो पीढ़ियां बंदूक के साए में ही पली बढ़ी हैं, उनके अपने कभी आतंकी तो कभी सेना की गोलियों के शिकार होते रहे हैं। और उनकी तरफ देखने वाली हर एक आंख उन्हें कहीं ना कहीं शक की ही नजर से देखती है।

धर्म और युवा

मार्क्स ने कहा था कि “धर्म अफ़ीम है।” आज मार्क्स हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी कही हुई बातें हमारे बीच जीवित हैं और वह कैसे और क्यों सही हैं, इसके आईना हमें कश्मीर के मौजूदा हालात खुद ही दिखा देते हैं। मार्क्स ने यह भी कहा था कि “धर्म दबे कुचले लोगों की आह है, यह एक ऐसी दुनिया का एहसास है जिसके पास दिल नहीं है।”

 

कश्मीर के पास सब कुछ है, अच्छा मौसम, टूरिज्म की सारी संभावनाएं और वह सब कुछ जो एक स्वर्ग जैसी जगह में हो सकता है। लेकिन बीते समय की राजनीतिक परिस्थितियों ने इस राज्य का दिल इससे छीन लिया और एक संवेदना विहीन राज्य और उसके निवासी अगर कहीं कुछ सोच और समझ पाते हैं तो वह धर्म है। चाहे वह कश्मीरी पंडितों का राज्य से एक सोची समझी साज़िश या रणनीति के तहत निष्काषन हो या फिर युवाओं का आतंकवादी संगठनों के ब्रेन वाश का शिकार होना। पुलवामा की घटना भी इसी धर्म के अंधेपन का एक उदाहरण है।

 

आज़ाद कश्मीर, भारत मुक्त कश्मीर तो बस कहने के लिए हैं। अधिकतर धार्मिक संगठनों को भारत के मुसलमान काफिर नजर आते हैं और वह पाकिस्तान में अपने मर्ज़ की दवा ढूंढ़ते नजर आते हैं। युवाओं का ब्रेन वाश और उनसे आतंकी गतिविधियों को अंजाम दिलवाना इसी रणनीति का एक हिस्सा है। पुलवामा की घटना ने इस बात की पुष्टि भी कर ही दी है कि अधिकतर घटनाओं के पीछे कहीं ना कहीं धर्म एक बहुत बड़ा कारण है, लेकिन ऐसा क्या है जो धर्म के नाम पर हैं लेने और देने पर घाटी के युवा उतारू हैं? सिर्फ घाटी में ही ऐसा क्यों हो रहा है? मुसलमान भारत के अन्य हिस्सों में भी हैं, लेकिन ऐसा ब्रेन वाश सिर्फ घाटी में ही क्यों?

वजह साफ है, पाकिस्तान के हुक्मरान कभी भी सीधी जंग नहीं लड़ेंगे, क्योंकि उन्हें पता है कि ऐसा करने से वह जंग तो हारेंगे ही, साथ ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय से भी अलग थलग पड़ जाएंगे, इसलिए वह इस लड़ाई को कभी आज़ाद कश्मीर तो कभी ज़िहाद के पर्दे के पीछे से लड़ रहे हैं और घाटी के युवाओं को अपना शिकार बना रहे हैं।

 

अधिकतर कश्मीरी जो अलगाव के हिमायती हैं, उन्हें ऐसा लगता है कि पाकिस्तान उनका दोस्त है क्योंकि वह एक मुस्लिम परस्त देश है,और मुस्लिम उसके झंडे तले सुरक्षित रहेंगे। जबकि पाकिस्तान अपनी खुद की अंदरूनी लड़ाई से परेशान है और उसकी अर्थव्यवस्था बर्बादी के कगार पर है, लेकिन धर्म और आज़ाद कश्मीर के नाम पर पाकिस्तान अपनी चालें लगातार चल रहा है। यहां तक कि वहां की मीडिया भी इस काम में उसकी मदद करती ही नजर आती है। वहां के दैनिक और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कश्मीर के भारतीय हिस्से को गुलाम कश्मीर और यहां के मुसलमानों को गुलाम कहते हैं।

 

आतंकी कारनामों को अंजाम देने वाले ब्रेन वाश्ड युवाओं को आज़ाद के सिपाही जैसे तमगों से नवाज़ते हैं। ऐसी स्थिति में आम कश्मीरी युवा धर्म के नाम पर बड़ी आसानी से उनका शिकार हो जाता है।

रोज़गार की कमी

१९४७ के बाद से लगातार कश्मीर बंदूकों के साए में ही रहा है। फिर उसके चाहे जो कारण रहे हों। वहां की पीढ़ियां रोज़ चाहते ना चाहते हुए उस सियासत का शिकार होती रही जिससे उनका कोई लेना देना नहीं था। और इन सबमें सबसे ज्यादा प्रभावित हुई घाटी की अर्थव्यवस्था। व्यवसाय के साधन दिन ब दिन सिकुड़ते चले गए और एक आम कश्मीरी इससे रोज़ दो चार होता रहा।

 

धीरे धीरे इसका असर वहां के स्कूल और कॉलेजों पर भी पड़ा जो या तो बंद हो गए या फिर बस नाम के ही रह गए। और कश्मीर के कुछ मुठ्ठी भर लोग जो शुरू से ही एक अलग कश्मीर की मांग को लेकर अड़े रहे उन्होंने आम भारतीयों में कश्मीरियों के लिए एक शक का बीज बो दिया। कश्मीरी हमेशा शक की ही निगाह से देखे जाते रहे, कभी एक मुसलमान की तरह तो कभी एक ऐसे कश्मीरी की तरह जो शायद एक दहशतगर्द हो।

 

ऐसी स्थिति में कश्मीर से पलायन का प्रतिशत शहरों की तरफ भारत के अन्य राज्यों के मुकाबले कम ही रहा। समय के साथ साथ स्थिति बद से बदतर होती गई और कुछ लोगों ने मज़बूरी में तो कुछ लोगों ने जान बूझकर अपने घुटने टेक दिए उन लोगों के आगे जिन्होंने इनका इस्तेमाल भारत के खिलाफ किया। धर्म एक बड़ा कारण तो था ही और १९९० में कश्मीरी पंडितों के निर्वासन के बाद यह राज्य मुस्लिम समर्थित आतंकवादियों के एक गढ़ के रूप में देखा जाने लगा।

 

जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट और अन्य अलगाववादी संगठनों ने इसका भरपूर फायदा उठाया और वहां के युवाओं को बरगलाने में कोई भी कसर नहीं छोड़ी। आज जब कश्मीर में रोज़गार लगभग खत्म हो चुका है, वहां का युवा अपने आपको और भी अलग थलग महसूस कर रहा है और हाल के सालों में आतंकी संगठनों में लगातार कश्मीरी युवा इसलिए भी जाते रहे क्यूंकि इससे उन्हें जो पैसे मिलते हैं वह उनके परिवार के देखभाल और भरण पोषण में एक बड़ी भूमिका निभाते हैं।

 

पुलवामा के ही एक नागरिक अपना नाम ना लेते हुए कहते हैं, “लोगों के घरों में खाने के लिए नहीं है और रोज़गार का कोई साधन भी नहीं दिखाई देता, कभी सेना तो कभी भटके हुए लोग हमें अपना निशाना बनाते रहते हैं।

सबको पता है कि उनके बेटे के साथ क्या हुआ और वह कहां है जब वह अचानक ही गायब हो जाता है। क्यूंकि उसके बाद से कुछ पैसे हमेशा आते रहते हैं। बच्चे बच्चे ही होते हैं, वह चाहे जितनी भी नादानी करें, हैं तो हमारे अपने ही, उनके मरने पर दुख तो होता ही है और हमें उनकी नियति भी पता है।” उनके शब्द बहुत कुछ कहते हैं और शायद यही कारण है कि बुरहान वानी या आदिल अहमद डार जैसे लोगों के बारे में सेना को नहीं पता चल पाता क्यूंकि धर्म, जिहाद और संवेदनाओं के ऊपर पेट हावी हो जाता है। और वह धर्म, अधर्म, जाति, अच्छा या बुरा कुछ भी नहीं देखता।

हमें अगर सच में कशमीर को अपना बनाना है तो समस्या का समाधान खोजना होगा ना कि खून के बदले खून की राजनीति। वह काम सेना कर लेगी और इसमें वह पूरी तरह सक्षम है। हमें एक रणनीति के तहत अलगाववादियों को अलग थलग करना पड़ेगा, रोज़गार के साधन मुहैया कराने होंगे। स्कूल कॉलेज बनाने होंगे जिससे वहां का युवा पढ़ सके, मदरसों की शिक्षा पद्धति से अलग एक ऐसी शिक्षा की नींव डालनी होगी जो भारत और भारतीयता के मानी को एक मजबूत तरीके से रख सके। साथ ही हमारी इंटेलिजेंस को मजबूत करना होगा जिससे नफ़रत के बीज बोए जाने से पहले ही जलाए जा सकें।

 

एक नागरिक के तौर पर भी हमें एक बड़ी भूमिका निभानी होगी और अपने कश्मीरी भाई बहनों को उसी तरह अपनाना होगा जैसे कि हम अपने अन्य राज्यों के लोगों के साथ करते हैं। शायद ऐसा करने से हम एक नए कश्मीर की नींव रख सकें और आने वाली पीढ़ियों को दहशतगर्दी और आतंक से मुक्त एक अमन पसंद कौम दे पाएं।

आमीन।

(लेखक के निजी विचार है )

Radio_Prabhat
English

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com