उबैद उल्लाह नासिर
एक वीडियो वायरल हुआ है, जिसमें पत्रकार चित्रा त्रिपाठी को कश्मीर के लोग हूट कर रहे हैं और ‘गोदी मीडिया मुर्दाबाद’ के नारे लगा रहे हैं। यह पहला मामला नहीं है। चित्रा त्रिपाठी, अंजना ओम कश्यप, अमन चोपड़ा (जिस पर तो जुर्माना भी लग चुका है) जैसे कई पत्रकार कई बार इस स्थिति से गुजर चुके हैं। इसका कारण केवल उनकी एजेंडा-चालित पत्रकारिता, साम्प्रदायिक माहौल को भड़काना, सरकार परस्ती और जन सरोकारों की उपेक्षा है।
पत्रकार को कमज़ोर की लाठी, सच का सिपाही और सबसे बढ़कर स्थायी विपक्ष कहा जाता है, जिसका मुख्य काम सत्ता से सवाल करना और उसकी गलतियों तथा कमजोरियों को उजागर करना होता है। सरकार अपनी पब्लिसिटी और अपने कार्यों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए सूचना विभाग के माध्यम से अरबों रुपये खर्च करती है, यह काम उसी पर छोड़ देना चाहिए।
मशहूर सहाफी और शायर, उर्दू ‘ब्लिट्ज’ के पूर्व संपादक हसन कमाल साहब ने एक वाकया सुनाया—”वी. पी. सिंह की मुहिम में मैं पूरी तरह उनके साथ था। राजीव गांधी का खूब विरोध किया, और वह चुनाव हार गए। वी. पी. सिंह प्रधानमंत्री बन गए। कुछ दिनों बाद उन्होंने मिलने के लिए बुलाया। मुलाक़ात हुई तो पूछा — हसन साहब अब क्या इरादा है? मैंने मुस्कराते हुए कहा, ‘अब आपका विरोध करूंगा।'”
बात 1989-90 की है। ‘कौमी आवाज़’ में नया-नया रंगरूट पत्रकार था। अयोध्या आंदोलन अपने चरम पर था। गोंडा ज़िले के करनैलगंज कस्बे में साम्प्रदायिक दंगा हुआ। मैं अपने फोटो जर्नलिस्ट साथी नय्यर जैदी के साथ रिपोर्टिंग के लिए गया। दृश्य इतने वीभत्स थे कि शब्द नहीं हैं।
स्व. सांसद मुन्नन ख़ान ने कहा, “अंदर दूर-दराज़ इलाक़ों में आपका जाना सुरक्षित नहीं है, सारी खबरें यहीं मिल जाएँगी।” लेकिन नया जोश था, ज़िद्द कर बैठा तो उन्होंने अपने एक सुरक्षा कर्मी को साथ कर दिया। यह सिलसिला 2-3 दिन चला।
एक दिन जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि हमारे संपादक स्व. उस्मान गनी साहब ने कहा—”मार-धाड़, दंगा-फसाद की खबरें तो सभी ला रहे हैं और वे खूब छप भी रही हैं। तुम लोग ऐसी खबरें लाओ जिनमें लोगों ने एक-दूसरे को बचाया हो, सुरक्षा दी हो, सामाजिक सद्भाव बनाए रखा हो। पत्रकारिता आग लगाने के लिए नहीं, आग बुझाने के लिए की जानी चाहिए।”
उनका यह निर्देश मानते हुए मैंने रिपोर्टिंग की दिशा बदली। एक गांव में ठाकुर साहब का नाम सुना। उनके पास पहुंचे तो पता चला, उन्होंने अपने फाटक के अंदर न केवल अपने गांव बल्कि आस-पास के गांवों के कई मुस्लिम परिवारों को शरण दी हुई है। उम्रदराज़ थे, कद-काठी साधारण, मगर हिम्मत असाधारण। बंदूक लेकर गेट पर खड़े थे। उनके बेटे भी साथ थे। उन्होंने कहा—”जब तक आख़िरी गोली है, हम अपने इन मुस्लिम भाइयों की रक्षा करेंगे, चाहे जान चली जाए।”
एक और किसान मिला, भैंसें चरा रहा था। बोला—”गांव में दो-तीन घर मुस्लिम बहनों के हैं। दंगाइयों से कह दिया है, इनकी तरफ़ देखबो न किहेव… हमई तेल पिलाई लठ तैयार है!”
इस रिपोर्टिंग को बहुत पसंद किया गया। जब अखबार एक्सचेंज के ज़रिए दूसरे शहरों में भी पहुँचे और मेरी रिपोर्टिंग उनमें छपी दिखी, तो दिल गर्व से भर गया। चीफ़ एडिटर, पद्मश्री इशरत अली सिद्दीकी साहब ने दस रुपये का नोट पुरस्कार स्वरूप दिया, जिस पर उनके हस्ताक्षर थे। मैंने उसे तबर्रुक की तरह बहुत दिन तक संभाल कर रखा — पर अफसोस, एक दिन वह भी सिगरेट की नज़र हो गया।
पत्रकारिता के सफर में उर्दू अकादमी समेत कई सामाजिक संस्थाओं से पुरस्कार मिला, मगर सबसे बड़ा पुरस्कार था — इलाहाबाद हाईकोर्ट (लखनऊ बेंच) के तत्कालीन जज जस्टिस सगीर अहमद (बाद में सुप्रीम कोर्ट के जज बने) द्वारा रिपोर्टों से प्रभावित होकर अपने चैम्बर में बुला कर चाय पिलाना और कहना—”Well done, young man. Keep it up!” ये शब्द आज भी ऊर्जा देते हैं।
अब ज़रा पहलगाम कांड की रिपोर्टिंग देखिए। पहले दिन से ही लग रहा था कि मुर्शिदाबाद के बाद पहलगाम कांड की रिपोर्टिंग भी बीजेपी के हिन्दू-मुस्लिम विभाजन के एजेंडे का हिस्सा है। पहलगाम का यह शर्मनाक कांड सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों की घोर लापरवाही का नतीजा है। एक ऐसा राज्य, जो आतंकवाद का शिकार है, वहां के टूरिस्ट स्पॉट पर सुरक्षा का नामोनिशान नहीं था। यह पुलवामा जैसी लापरवाही के अलावा कुछ नहीं।
कथित ‘जेम्स बॉन्ड’ अजीत डोभाल और ‘चाणक्य’ अमित शाह क्या इस लापरवाही के लिए नैतिक रूप से ज़िम्मेदार नहीं हैं?
मीडिया आतंकवादियों का धर्म पूछ-पूछ कर गोली मारने की बात कर रहा है, लेकिन सच्चाई यह है कि आतंकवादी कहीं छुपकर अंधाधुंध गोली चला रहे थे — उनके पास पूछने का समय ही कहाँ था?
एक मुस्लिम गाइड सय्यद शाह एक आतंकवादी से निहत्थे भिड़ गया, रायफल छीनने की कोशिश में शहीद हो गया। मीडिया ने इस बलिदान को नजरअंदाज़ कर दिया।
नजाकत अली, एक टैक्सी ड्राइवर, ने छत्तीसगढ़ के 11 पर्यटकों की जान बचाई, उन्हें अपने घर में पनाह दी — यह खबर भी मीडिया से नदारद है।
पहलगाम के स्थानीय लोगों ने पर्यटकों को पनाह दी, होटल वालों ने खाना और आश्रय मुफ्त दिया, कमरे का किराया नहीं लिया। शाम को कैंडल मार्च निकाला। अगला दिन पूरे कश्मीर में बंद रहा। मीरवाइज़ तक सड़कों पर उतर आए।
कश्मीर के सभी अखबारों ने काले फ्रंट पेज के ज़रिए विरोध जताया। सैकड़ों वीडियो वायरल हैं जिनमें फंसे पर्यटक स्थानीय लोगों की मेहमाननवाज़ी की प्रशंसा कर रहे हैं। इसके उलट, एयरलाइंस ने किराए दोगुने कर दिए — मीडिया में इसकी भी कोई चर्चा नहीं।
पत्रकारिता केवल पेशा नहीं, एक धर्म है। इस धर्म को निभाने के लिए न जाने कितने पत्रकारों ने जान दी, भूख सही, मगर अपने मूल्यों से पीछे नहीं हटे। आज पत्रकार सेलेब्रिटी तो बन गए हैं, मगर आम आदमी न उन पर भरोसा करता है, न उन्हें इज़्ज़त देता है।
भारतीय पत्रकारिता यूँ ही अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग में सबसे निचले पायदान पर नहीं पहुँची। शहीद मौलवी बाकर और शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी के वारिसों ने उनके नाम को मिट्टी में मिला दिया है।
क्या ये पत्रकार कभी आत्मावलोकन (introspection) करेंगे?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)