उबैद उल्लाह नासिर
सबसे पहले दो महिलाओं की बात करते हैं। दोनों सेलेब्रिटी हैं — पहली हैं सुश्री तवलीन सिंह, देश की वरिष्ठतम पत्रकारों में से एक।
दूसरी हैं मशहूर गायिका अनामिका जैन अंबर। दोनों स्वघोषित मोदी भक्त हैं। तवलीन सिंह जी तो कांग्रेस विरोध की पैदाइश और नेहरू–गांधी परिवार से बीमारी की हद तक नफरत करने वाली पत्रकार के तौर पर जानी जाती हैं। वहीं, सुश्री अनामिका जैन अंबर ने नेहा सिंह राठौर के “यूपी में का बा” के जवाब में “यूपी में बाबा का बुलडोजर बा” गा कर खासी लोकप्रियता हासिल की थी।
ये दोनों महिलाएं संघ परिवार की प्रिय रही हैं, लेकिन अब उन्हें यह एहसास हो रहा है कि विगत दस वर्षों से देश में जो कुछ हो रहा है, उसका निशाना भले ही मुसलमान और कांग्रेस रहे हों, पर वास्तव में यह जंगल में लगी आग की तरह है — जो पेड़ को यह देख कर नहीं जलाती कि वह मीठे फल का है या कड़वे, कसैले, ज़हरीले फल का।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ ऐसे फैसले सुनाए हैं, जिससे संघ परिवार और मोदी सरकार की बेचैनी बढ़ गई है। उत्तर प्रदेश विधानसभा में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उर्दू भाषा को लेकर जो नफरत भरा, अज्ञानी और असंवैधानिक बयान दिया था, उसके कुछ ही दिनों बाद महाराष्ट्र के एक नगर निगम द्वारा उर्दू के साइनबोर्ड हटाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उर्दू की हिमायत करते हुए यह फैसला सुनाया कि उर्दू भारत में ही जन्मी और पली-बढ़ी भाषा है और साइनबोर्ड हटवाना गलत है।
योगी जी ने यह कहते हुए कि उर्दू ‘एक वर्ग विशेष की भाषा’ है, यह तक नहीं सोचा कि उर्दू उत्तर प्रदेश की दूसरी आधिकारिक भाषा है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर तवलीन सिंह ने जब ट्विटर पर प्रसन्नता जताई और समर्थन किया, तो संघ परिवार का ट्रोल ब्रिगेड उन पर टूट पड़ा और उनके चरित्र, चाल–चलन आदि पर अभद्र टिप्पणियां करने लगा। किसी भी सभ्य समाज में किसी महिला पर इस तरह की अशोभनीय टिप्पणियां बेहद शर्मनाक हैं, जिनकी जितनी निंदा की जाए, कम है।
दूसरी ओर, जब मुंबई में एक लगभग सौ साल पुराने जैन मंदिर पर बुलडोजर चलाया गया, तो अनामिका जैन अंबर भी कराह उठीं।
अब उन्हें बुलडोजर अन्याय, क्रूरता और अत्याचार का प्रतीक लगने लगा है। अब देखना यह है कि हर मस्जिद के नीचे मंदिर खोजने वाले और उसके लिए अदालतों में याचिका लगाने वाले जैन पिता-पुत्र इस प्राचीन जैन मंदिर के विध्वंस पर क्या प्रतिक्रिया देते हैं।
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लेकिन इतना तय है कि पूरा जैन समाज आंदोलित है। मुंबई में लाखों जैनियों ने सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन किया, जिसमें अन्य समुदायों और राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता भी शामिल हुए। अगर यही प्रदर्शन उत्तर प्रदेश में होता, तो क्या योगी सरकार जैन प्रदर्शनकारियों के साथ भी वही बर्ताव करती जो वह मुसलमानों के साथ करती है?
तवलीन सिंह, अनामिका जैन अंबर और उनके जैसे अन्य मोदी–योगी समर्थकों को भी आत्ममंथन करना चाहिए कि देश में यह माहौल कब, कैसे और किसने पैदा किया? क्या 10–12 साल पहले हमारे समाज में भाषा की मर्यादा इतनी गिर चुकी थी? क्या कभी किसी महिला के लिए ‘जर्सी गाय’, ‘कांग्रेस की विधवा’, ‘50 करोड़ की गर्लफ्रेंड’ जैसे शब्दों का प्रयोग होता था?
क्या इससे पहले सियासी विरोधियों को खुलेआम ‘देशद्रोही’ कहा जाता था? और मुसलमानों के लिए तो क्या-क्या नहीं कहा गया — किस तरह उन्हें घृणा और हिंसा का निशाना बनाया गया, कैसे संविधान की शपथ लेने वाले पदाधिकारी भी उनके खिलाफ बयानबाज़ी करते हैं। मॉब लिंचिंग, बुलडोज़र न्याय, और नमाज़ पढ़ने तक पर आपत्ति जताना — ये सब किस कालखंड की पहचान बन चुके हैं?
मुसलमानों को कुछ राज्यों में यहूदियों की तरह अलग-थलग कर दिया गया है। एक हजार साल की साझा विरासत को भुलाकर, पड़ोसी को ही दुश्मन समझा जाने लगा है। यह सब कुछ सिर्फ 10–12 वर्षों में नहीं हुआ, बल्कि इसकी जड़ें आरएसएस की विचारधारा में हैं। अयोध्या आंदोलन ने इस ज़हर के बीज को अंकुरित किया, और मोदी–योगी युग ने इसे विशाल, विषैला वृक्ष बना दिया।
आज सिर्फ संघ ट्रोल ब्रिगेड ही नहीं, बल्कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी सुप्रीम कोर्ट जैसी सर्वोच्च संस्था को निशाना बना रहे हैं। क्या किसी लोकतांत्रिक देश में यह संभव है कि उपराष्ट्रपति, मंत्री, या सांसद सुप्रीम कोर्ट पर भद्दे आरोप लगाएं?
सांसद निशिकांत दुबे द्वारा सुप्रीम कोर्ट पर देश में गृह युद्ध भड़काने का जो अभूतपूर्व आरोप लगाया गया है, वह क्षमायोग्य नहीं है। और केवल भाजपा अध्यक्ष द्वारा इससे पल्ला झाड़ लेने से बात खत्म नहीं हो जाती। यह सुप्रीम कोर्ट की खुली अवमानना है, और वह भी एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा। सुप्रीम कोर्ट को इसका स्वत: संज्ञान लेकर सख्त कार्रवाई करनी चाहिए, क्योंकि यह जानबूझकर न्यायपालिका की गरिमा पर किया गया हमला है।लोकतंत्र का इससे बड़ा अपमान और कुछ नहीं हो सकता।