कृष्णमोहन झा
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘एक देश एक चुनाव ‘ के विचार को एक ऐसा राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया है जिस पर अंतहीन बहस का सिलसिला प्रारंभ हो गया है।
इस मुद्दे पर सभी राजनीतिक दलों ने पक्ष विपक्ष में अपने जो अलग अलग तर्क दिए हैं उनसे हाल फिलहाल केवल यही नतीजा निकाला जा सकता है कि निकट भविष्य में तो ‘एक देश एक चुनाव’ के मुद्दे पर देश के सभी राजनीतिक दलों को एक आमराय बनाने के लिए सहमत कर पाना केंद्र सरकार के लिए संभव नहीं है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि जो राजनीतिक दल देश में एक साथ सारे चुनाव कराने के विचार से असहमत हैं वे इस विचार को राजनीतिक नफा नुकसान की दृष्टि से देख रहे हैं।
एक देश एक चुनाव के विचार का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों में अधिकांश क्षेत्रीय दल हैं जो क्षेत्रीय मुद्दों को उठाकर चुनाव जीतते रहे हैं। उन्हें यह भय सता रहा है कि ‘ राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ होने से क्षेत्रीय मुद्दों पर राष्ट्रीय मुद्दे हावी हो जाएंगे जिससे क्षेत्रीय मुद्दों के आधार पर चुनाव जीत कर सत्ता में आने की उनकी उम्मीदों पर पानी फिर सकता है।
जाहिर सी बात है कि ऐसे राजनीतिक दलों को यह आशंका सता रही है कि देश में अगर एक साथ सारे चुनाव होने लगेंगे तो उनके लिए यह घाटे का सौदा साबित होगा लेकिन दूसरी ओर भाजपा नीत केंद्र सरकार एक देश एक चुनाव के विचार के पक्ष में जो तर्क दे रही है वे इसलिए मजबूत प्रतीत होते हैं क्योंकि वे राजनीतिक नफा नुकसान की भावना से प्रेरित नहीं हैं।
सरकार के इस तर्क से भला कैसे असहमत होना कठिन है कि सारे चुनाव एक साथ कराने से न केवल धन की बर्बादी को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी बल्कि सरकार के कामकाज भी बाधित नहीं होंगे और केंद्र और राज्य सरकारों को अपनी नीतियों और कार्यक्रमों के समयबद्ध क्रियान्वयन का मार्ग प्रशस्त होगा।
गौरतलब है कि चुनावों की घोषणा होते ही चुनाव आयोग आदर्श आचार संहिता लागू कर देता है जो चुनाव परिणामों की घोषणा होने तक जारी रहती है और आदर्श आचार संहिता लागू रहते जनहित में भी कोई सरकार नयी घोषणाएं नहीं कर सकती।
अगर मोदी सरकार की एक देश एक चुनाव की पहल मूर्त रूप ले सकती तो यह समस्या काफी हद तक हल हो सकती है। इसलिए इस पहल का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों से यह अपेक्षा गलत नहीं होगी कि एक देश एक चुनाव की केंद्र सरकार की पहल को उन्हें क्षेत्रीय नजरिए से ऊपर उठकर देखना चाहिए।
इसमें दो राय नहीं हो सकती कि संसदीय लोकतंत्र को सफल बनाने में जितनी महत्वपूर्ण भूमिका निष्पक्ष चुनावों की होती है उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका राजनीति दलों की भी होती है।
चुनाव में भाग लेने वाले हर राजनीतिक दल से अगर यह अपेक्षा की जाती है कि वे बेदाग छवि रखने वाले नेताओं को ही चुनाव मैदान में उतारें तो चुनाव आयोग से भी यह अपेक्षा स्वाभाविक है कि वह चुनाव की संपूर्ण प्रक्रिया को पारदर्शी और निष्पक्ष बनाए रखने की अपनी जिम्मेदारी का निष्ठा पूर्वक निर्वहन करें ।
चुनाव और राजनीति को एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता। कोई भी राजनीतिक दल स्वयं को चुनावी राजनीति से अलग नहीं रखता और अगर राजनीतिक दल चुनावों से खुद को दूर रखेगा तो उसका अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगेगा।
संसदीय लोकतंत्र की सफलता के लिए चुनाव प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी और निष्पक्ष हो यह तो अनिवार्य ही है परन्तु यह भी आवश्यक है कि चुनाव प्रचार में हर राजनीतिक दल आरोप प्रत्यारोप में मर्यादा का पालन करे। धर्म , जाति , भाषा के आधार पर अथवा व्यक्तिगत आक्षेपों से हर दल परहेज करे ।
धन बल , बाहुबल के लिए राजनीति में कोई स्थान नहीं है।नीतियों, सिद्धांतों और दलीय कार्यक्रमों पर आधारित राजनीतिक प्रतिद्वंदिता ही संसदीय लोकतंत्र की सफलता का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। इस दिशा में
अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। हमें यह याद रखना होगा कि सिद्धांतों पर आधारित राजनीति और चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता ही संसदीय लोकतंत्र की सफलता की पहली शर्त है।