Friday - 25 October 2024 - 10:17 PM

नीतीश जानते हैं मंडल ही कमंडल को हरा सकता है, क्या कांग्रेस समझ रही है?

धनंजय कुमार

शोषक और माफिया-गुंडे अब सिर्फ़ सवर्ण जाति के लोग नहीं रहे, पिछड़ी और दलित जातियों और आदिवासियों की कुछ जातियों के लोग भी शोषण, माफियागिरी और गुंडागर्दी में पीछे नहीं हैं !

मंडल ने पिछली और दलित जातियों को भी शक्तिशाली और महत्वपूर्ण बनाया है ! लिहाजा कमंडल धारी राजनीति की मजबूरी या कहें मौकापरस्ती है कि वह अब पिछड़ी, दलित जातियों और आदिवासियों को महत्व देने लगी है।

लेकिन यह समझना जरूरी है कि क्या बीजेपी दलित और पिछड़ी जातियों को ताकतवर बनाना चाहती है? क्या वह चाहती है पिछड़ी, दलित और जातियाँ सवर्ण जातियों की बराबरी में खड़ी हो जाए?

इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है। पिछले 9 साल के शासन में बीजेपी ने दलित, पिछड़ी जातियों और आदिवासियों के कुछेक लोगों को सत्ता में स्थान तो दिया, लेकिन क्या नेतृत्व की कमान पिछड़ी, दलित और आदिवासी जातियों के नेताओं के हाथ में दिया? बीजेपी के इस 9 साल के शासन काल में देखें तो बीजेपी (संघ) ने एक राष्ट्रपति दलित को बनाया और दूसरा राष्ट्रपति आदिवासी बिरादरी से बनाया है। लेकिन दलितों-आदिवासियों के हाथ में सत्ता के नेतृत्व की कमान जाए, या दलित -आदिवासी मजबूत हो, इसके लिए क्या किया?

राष्ट्रपति सत्ता के सबसे ताकतवर व्यक्ति नहीं होते, बल्कि वह प्रतीक भर हैं। (रबर स्टांप कहना ठीक नहीं लगता मुझे) सत्ता की वास्तविक ताकत प्रधानमंत्री और मंत्री के पास होती है। इन नौ सालों में हम देख रहे हैं, मंत्रियों के पास भी वैसी ताकत नहीं रह गई है, जैसी कांग्रेस के जमाने में हुआ करती थी।

कांग्रेस के जमाने में मंत्रियों के दिमाग खुले होते थे, जबकि मौजूदा काल में दिमाग की चाभी पीएमओ कार्यालय में जमा करवा लिए गए लगते हैं। सत्ता की सारी ताकत प्रधानमंत्री और प्रधानमंत्री के चहेते गृह मंत्री के पास दे दिए गए हैं। बाकी मंत्री बस नाम के मंत्री हैं- नोटबंदी, कोरोना के समय लॉकडाउन और किसान आंदोलन के दौरान इसके प्रमाण भी मिले भी।

नीतीश कुमार और अखिलेश यादव से लड़ते वक़्त बीजेपी (संघ) ने ये भी ख्याल रखा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ओबीसी से आते हैं ये बताया जाता रहे। क्योंकि उसे पता है कि बीजेपी के सत्ता चक्र को कोई रोक सकता है तो वो कांग्रेस नहीं ओबीसी जातियाँ हैं।

बिहार में वह 2000 के दशक के दशक से देख रही है। नीतीश कुमार को यूं ही उसने सत्ता की कमान नहीं सौंपी, बल्कि उसे पता था कि लालू यादव की ताकत को किसी सवर्ण नेता-जाति या हिन्दूवाद के माध्यम से नहीं तोड़ सकती। इसलिए उसने मंडलवाद में उभरे पिछड़ी जातियों के दूसरे महत्वपूर्ण नेता नीतीश कुमार का इस्तेमाल किया। बीजेपी को लगा था वह नीतीश कुमार का शिखंडी की तरह इस्तेमाल कर लेगी, लेकिन नीतीश कुमार चतुर निकले।

पहले 2010 का विधानसभा चुनाव याद कीजिए, उस चुनाव में नीतीश कुमार-बीजेपी गठबंधन ने लालू प्रसाद यादव की पार्टी को 22 सीट पर समेट दिया था। उसके बाद 2014 के चुनाव में बीजेपी (संघ) ने राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी को उभारा। और यह भी ख्याल रखा कि मोदी को ओबीसी जाति से आए व्यक्ति के तौर पर प्रचारित किया जाए।

नीतीश कुमार ने बीजेपी (संघ) की राजनीति को तभी भांप लिया था, लिहाजा उन्होंने नरेंद्र मोदी का विरोध किया और 2014 का चुनाव बीजेपी से अलग होकर अकेले अपने दम पर लड़ा।

हालांकि नीतीश कुमार को इस चुनाव में भारी हार मिली, लेकिन नीतीश कुमार ने जान लिया था कि सत्ता की चाभी अब ओबीसी हाथ में है, और लालू को साथ लिए बिना बीजेपी (संघ) के ब्राह्मणवाद को बड़े नेता लालू प्रसाद का साथ लिए बिना काउंटर नहीं किया जा सकता। 2014 के लोकसभा से पहले उन्हें लगा था कि बिहार में उन्होंने जो सोशल इंजीनियरिंग की है, और विकास का जो रथ चलाया है, उसके भरोसे अकेले चुनाव जीत लेंगे, वोटर जाति और धर्म की सीमा तोड़कर उन्हें वोट करेंगे, लेकिन वास्तव में ऐसा हुआ नहीं।

भूमिहारों, मुसलमानों और पासवान जातियों ने मुख्य तौर पर उनका साथ नहीं दिया। यादव तो वैसे भी लालू को छोड़कर उन्हें वोट देने वाले नहीं थे, लेकिन मुसलमानों और भूमिहारों से अपेक्षा थी उन्हें कि वो उनका साथ देंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। मुसलमानों ने लालू यादव का साथ दिया और भूमिहारों ने बीजेपी।

पासवान तो सदा राम विलास पासवान को ही नेता मानते रहे, इसलिए जिधर रामविलास पासवान उधर पासवान का वोट यही वजह रही थी कि रामविलास पासवान की पार्टी को पहली बार इतनी बड़ी सफलता मिली 7 में से 6 सीटों पर जीत मिली। नालंदा सीट इस लिए रामविलास पासवान की पार्टी के उम्मीदवार हार गए कि नालंदा नीतीश की जाति कुर्मी बहुल सीट है और कुर्मियों ने नीतीश कुमार की लाज बचा ली।

नालंदा सीट से जनता दल (यू) के उम्मीदवार कौशलेन्द्र प्रसाद कुछ हजार के मामूली अंतर से जीते। नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यू) मात्र 2 सीट मिली। एक नालंदा की सीट और दूसरी पूर्णिया की सीट। पूर्णिया सीट से संतोष कुशवाहा जीते भाजपा के उदय सिंह को हराकर। पूर्णिया में ओबीसी, राजपूत और मुस्लिम निर्णायक वोटर हैं।

नीतीश कुमार ने जैसा सोचा था, वैसे परिणाम नहीं आए। फिर उन्होंने लालू यादव के साथ गठबंधन किया और 2015 के चुनाव में राजद की ताकत बढ़ी- बीजेपी की कम हुई।

राजद को नीतीश का साथ मिल जाने की वजह से 80 सीटें मिलीं- पिछली बार की तुलना में 58 सीट ज्यादा, जबकि बीजेपी की सीटें नीतीश कुमार के साथ छोड़ने की वजह से कम हुई, 53 सीटें मिलीं पिछली बार की तुलना में 38 सीटें कम हुई।

हालांकि नीतीश कुमार की सीटें भी कम हुईं, पिछली बार की तुलना में नीतीश कुमार को 44 सीटें कम मिलीं।
2015 में नीतीश कुमार ने बीजेपी से अलग होकर भी अपनी सरकार बना ली। और समझ लिया कि कमंडल के खिलाफ अगर लड़ना पड़ा तो ओबीसी जातियाँ इतनी ताकतवर हो गई हैं कि उनके भरोसे ब्राह्मणवाद से लड़ा जा सकता है।

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