जुबिली न्यूज डेस्क
जिस पार्टी में तमाम कमजोर, वंचित और शोषित वर्ग की बड़ी आबादी एकजुट हो जाया करती थी, वही बहुजन समाज पार्टी अब मध्य प्रदेश में कमजोर पड़ती दिखाई दे रही है। पार्टी के घटते जनाधार से उसके वोटबैंक पर कब्जा जमाने के लिए भाजपा और कांग्रेस के बीच इन दिनों होड़ लगी है।
15 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिलते रहे हैं
दरअसल, बसपा प्रमुख मायावती जब तक उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री रहीं और या फिर विपक्ष के रूप में सक्रियता रही, तब तक देश के अन्य राज्यों की तुलना में मध्य प्रदेश में बसपा का वोटबैंक मजबूत होता रहा। अलग-अलग चुनावों में उसे 15 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिलते रहे।
बसपा के कमजोर होने से उसका यह वोटबैंक इधर-उधर जा रहा है। खासतौर से एससी वर्ग के लोगों ने पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का दामन थाम लिया था। यही वजह है कि आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए इन वर्गों के लिए दोनों ही पार्टियां बढ़-चढ़कर घोषणाएं कर रही हैं।
पिछले चुनाव में सिर्फ दो सीट
पहले भाजपा ने संत रविदास की जयंती से शुरू कर आंबेडकर जयंती (14 अप्रैल) तक कई कार्यक्रम करने का निर्णय किया। सौ करोड़ रुपये की लागत से संत रविदास का मंदिर बनाने की भी घोषणा भी शिवराज सिंह ने हाल ही में की है। कांग्रेस आंबेडकर जयंती पर विशाल कार्यक्रम कर इसका तोड़ निकालने की तैयारी कर रही है। बता दें कि 230 सदस्यीय विधानसभा में 35 सीटें एससी वर्ग के लिए आरक्षित हैं। 2018 के चुनाव में इसमें से भाजपा को 18 और कांग्रेस को 17 सीटें मिली थीं। बसपा केवल दो सामान्य सीटों पर जीत दर्ज कर पाई थी।
सेंध की कोशिश की वजह ये आंकड़े
आंकड़ों में देखें तो मध्य प्रदेश में 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 41.6 प्रतिशत और बसपा को 5.1 प्रतिशत वोट मिले थे। वर्ष 2020 में 28 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में भाजपा ने 19 सीटें जीतीं और उसे 49.46 प्रतिशत वोट मिले थे। बसपा का खाता नहीं खुला लेकिन 5.75 प्रतिशत वोट मिले थे। बसपा के प्रभाव का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वर्ष 2003, 2008 और 2013 के विधानसभा चुनावों में औसतन 69 सीटों पर पार्टी का वोट शेयर 10 प्रतिशत से अधिक रहा है।
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