डा. रवीन्द्र अरजरिया
देश में दलगत राजनीति ने हमेशा से ही फूट डालो, राज करो की नीति अपनाई। दूरगामी योजनायें बनाकर शतरंज की चालें चलीं। जातिगत, आस्थागत और व्यवहारगत विभेदों को हमेशा ही हवा देकर टकराव की स्थितियां पैदा की।
भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवानी ने सितम्बर सन 1990 में सोमनाथ से रथ यात्रा निकालकर अयोध्या मुद्दे को आंधी बनाने की कोशिश की तब कांग्रेस ने 1991 के लोकसभा चुनाव के पहले वायदा किया कि यदि केन्द्र में कांग्रेस की सरकार आती है, तो वह संसद में ऐसा कानून पारित करेगी जिससे सभी वर्तमान धार्मिक स्थलों को उसके वर्तमान स्वरूप में संरक्षित किया जा सकेगा।
निर्वाचन के बाद केन्द्र में कांग्रेस की सरकार बनी। देश में धार्मिक स्थलों को संरक्षण देने के नाम पर 1991 में प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम 1991 बनाया।
इस अधिनियम के अनुसार 15 अगस्त 1947 से पहले मौजूद किसी भी धर्म के उपासना स्थल को किसी दूसरे धर्म के उपासना स्थल में बदला नहीं जा सकता अगर कोई ऐसा करने की कोशिश करता है तो उसे जेल भी हो सकती है।
यानी जो जहां है उसे स्वाधीनता के बाद भी उसी रूप में ही मानने की बाध्यता होगी। इस कानून की तीसरी धारा में स्पष्ट किया गया है कि अगर यह सिध्द भी होता है कि वर्तमान धार्मिक स्थल को इतिहास में किसी दूसरे धार्मिक स्थल को तोडकर बनाया गया था, तो भी उसके वर्तमान स्वरूप को बदला नहीं जा सकता।
इसी कानून में यह भी उल्लेखित किया गया है कि धर्म स्थल को किसी दूसरे धर्म के पवित्र धार्मिक स्थल को उसी धर्म के किसी दूसरे पंथ में भी नहीं बदला जा सकता।
अधिनियम की धारा 4(2) में कहा गया कि पूजा स्थल की प्रकृति को परिवर्तित करने से संबंधित सभी मुकदमे, अपील या अन्य कार्यवाइयां, जो 15 अगस्त 1947 को लंबित थी, इस अधिनियम के लागू होने के बाद समाप्त हो जायेंगी और ऐसे मामलों पर कोई नई कार्यवाही नहीं की जा सकेगी।
इसी कानून की आड में वाह्य आक्रान्ताओं की मनमानियों और तानाशाही को सही बनाते का काम किया जाने लगा। इसी मध्य अनेक मामलों का प्रत्यक्षीकरण हुआ। न्यायालयों ने अन्य कानूनी प्राविधानों के तहत स्वविवेक और जनभावनाओं के आधार पर अनेक मामलों की सुनवाई की।
यह भी पढ़ें : सुखद नहीं है धर्म के नाम पर कट्टरता परोसना
यह भी पढ़ें : अधिकारों पर अतिक्रमण का तीव्र होता दंश
यह भी पढ़ें : विश्वयुध्द की तेज होती बयार में शांति का शंखनाद
यह भी पढ़ें : सुखद परिणामों तक पहुंचाती है संकल्प शक्ति
वर्तमान में उत्तर प्रदेश के वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में सर्वे का काम न्यायालय के कडे रुख के कारण ही शुरू हो सका। पहले मुस्लिम समुदाय ने भीडबल के आधार पर न्यायालय के कार्य में व्यवधान उत्पन्न करने की कोशिश की।बाद में ऊपर की अदालतों के दरवाजों पर कानून की मनमानी व्याख्याओं के सहारे दस्तक दी परन्तु अन्तत: न्यायालयीन आदेश के आगे झुकना ही पडा।
सूत्रों की माने तो सर्वे के दौरान ज्ञानवापी मस्जिद के तहखाने में ढेर सारे खम्भेनुमा पत्थर, मूर्तियां, कलश मिले। गौरी श्रृंगार मंदिर की जैसी तस्वीर है वैसा ही मिला। दीवारों पर कमल और स्वास्तिक के निशान, खण्डित मूर्तियां, मगरमच्छ की प्रतिमा, जो लगभग 2 फुट की बताई जाती है, जिसे ढककर रखा गया था।
इस प्रतिमा की सुन्दरता आज भी नयनाभिराम है। सर्वे के दौरान लगभग 3 ट्रक खम्भेनुमा पत्थरों की मौजूदगी, पत्थरों पर मूर्तियों की छवि और खण्डित प्रतिमायें चीख-चीखकर अपने स्वरूप का वर्णन स्वयं कर रहीं हैं।
यह भी पढ़ें : लगातार दूसरी बार टारगेट हासिल करने में नाकाम रहा रेलवे
यह भी पढ़ें : एफडी कराने की सोच रहे हैं तो जान लें RBI का नया नियम
यह भी पढ़ें : क्या वाकई ट्विटर खरीदेंगे अरबपति एलन मस्क ?
30 साल पहले वाराणसी निवासी तथा वंदे मातरम् पत्रिका के संपादक राम प्रसाद सिंह ने 1991 से 1993 के मध्य इस स्थल की अनेक तस्वीरें ली थीं। श्री सिंह के अनुसार मस्जिद के एक-एक हिस्से की तस्वीरें उनके पास हैं जिनसे वहां के हालातों का मिलान किया जा सकता है।
तस्वीरों में विशाल नन्दी बाबा, ज्ञानवापी कूप, उसके आसपास अनेक छोटे-छोटे मन्दिर, दीवारों पर सनातन धर्म से जुडे हुए प्रतीक चिन्ह, दीवारों के टूटे हिस्से के मध्य घण्टी के निशान तथा पीछे के हिस्से में स्थित चबूतरे पर श्रृंगार गौरी का प्राचीन मंदिर भी तस्वीरों में दिखाई देता है जहां कुछ फूल भी चढे हैं।
इन तस्वीरों के आने के बाद से तो स्थिति लगभग साफ ही हो जाती है। शायद इन्हीं प्रमाणों को दबाने-छुपाने के लिए सर्वे का विरोध करने हेतु भीडबल का प्रयोग किया गया था, जिसे न्यायालयीन आदेश ने समाप्त कर दिया।
आगामी 17 मई तक कोर्ट के समक्ष कमीशन को अपनी कार्यवाही की आख्या वीडियोग्राफी सहित प्रस्तुत करना है। देश में आस्था के नाम पर कभी स्थानों को मुद्दा बनाया जाता है तो कभी परम्पराओं का सहारा लेकर माहौल को तनावपूर्ण बनाने के प्रयास होते हैं।
कभी निजता के लिए मनमाने आचरण की छूट मांगी जाती है कभी धार्मिक अनुबंधों की दुहाई दी जाती है। वास्तविकता तो यह है कि ऐसे सभी प्रयासों से भाईचारे की मिठास में न केवल कडुवाहट पैदा होती है बल्कि आपसी टकराव की स्थितियां भी निर्मित होतीं है।
आपातकाल का दौर और तानाशाही का परचम आज भी उस दौर के लोगों को याद होगा। जब खबरनवीसों को अपने समाचारों को भेजने के पहले उस पर एक अधिकारी से स्वीकृति प्राप्त करना पडती थी।
नसबंदी के शिकंजे में केवल और केवल एक ही समुदाय के लोगों को जकडने के शासकीय फरमान, आज की जनसंख्या विसंगतियों के लिए उत्तरदायी बन चुके हैं। वाह्य आक्रान्ताओं के अनुयायियों ने अपनी पैत्रिक संस्कृति को तिलांजलि देकर पूर्वजों पर की गई बरबरता को जायज ठहराना शुरू कर दिया है।
अब तो हालात यहां तक पहुंच गये हैं कि गंगा-जमुनी संस्कृति को भी तार-तार किया जाने लगा है। देश के अनेक स्थानों पर अभी भी पुरातन परम्पराओं का दिगदर्शन समुदाय विशेष के वैवाहिक कार्यक्रमों में देखने को मिलता है किन्तु कट्टरता की आंच से उन परम्पराओं को भी नस्तनाबूत किया जाने लगा है।
शतरंजी चालों से राजनैतिक दलों ने बिगाडा है देश का माहौल। इस दिशा में अब आम आवाम को स्वयं सोचना पडेगा, सत्ता के गलियारे तक पहुंचने के लिए मृगमारीचिका दिखाने वालों को पहचानना होगा और उठाना होंगे सशक्त कदम, जिससे स्थापित हो सके भाईचारे का वातावरण और खुशहाल राष्ट्र में बह सके अपनत्व की बयार।
इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है । यह लेख उनका नीजि विचार है)