कोई बडा और ताकतवर देश सिर्फ कमजोर देशो पर हमला करता है द्वितीय विश्वयुद्ध को छोड दे तो यही हुआ है…अमरीका प्रतिबंध प्रतिबंध खेलता रहता है जो उसका प्रिय खेल है अमरीका के झांसे मे आने वाले देशो का सदा नुक्सान ही हुआ है… रुस का जरूर मित्र देश के साथ खड़ा रहने का इतिहास है…
डा सी पी राय
चीन बडा व्यापारी देश बन चुका है और वो उतना ही सुरक्षा का इन्तजाम कर रहा है जो उसके लिये और दुनिया की बड़ी ताकतो से निपटने के लिये जरूरी है और वो तथा चीन दोनो 100 साल आगे की कल्पना कर अपनी तैयारी मे लगे है जबकि कुछ देश मंदिर मस्जिद बुर्का हिजाब जैसी चीजो को ही भविश्य मान बैठे है।
छोटे देश लाख कोशिश कर भी बड़ी ताकतो के हमलो को झेल नही सकते है हा बर्बाद होकर भी लड़ सकते है ।
दुनिया तेजी से बदली है और इसके युद्ध के नियम तथा हथियार भी बदले है।
जीतने के लिये जरूरी है मजबूत होना और मजबूत होने की पहली शर्त है देश का अन्दरूनी विवादो से ऊपर होना , देश मे एकता होना , आपसी सद्भाव तथा विश्वास होना ,सरकार पर विश्वास होना तथा इसकी शर्त है सरकार का पारदर्शी होना समझदार और दूरदर्शी होना और सम्पूर्ण जनता मे ये विश्वास पैदा करना की वो सब कुछ सबके लिये कर रहे है तथा सबके भविश्य और सुरक्षा के लिये कर रहे है।
अन्दर से टूटा हुआ देश आर्थिक प्रगति नही कर सकता तथा यदि अंदर झगडे है और कभी भी हालात बिगड़ने का अवसर है तो कही का भी इन्वेस्टर नही आयेगा और अन्दरूनी व्यापार भी प्रभावित होगा जबकि देश की मजबूती के लिये जरूरी है की देश आर्थिक रूप से बहुत मजबूत हो ,शैक्षणिक स्तर उच्च हो और स्वास्थ्य की गुणवत्ता भी उच्च कोटि की हो , बेरोजगारी ना के बराबर हो , कृषि से लेकर व्यापार तक सब सम्पन्न हो और वैज्ञानिक आत्मनिर्भरता हो सभी क्षेत्रो मे स्वाथ्य ,भविश्य की आवश्यकताओ तथा सैन्य जरूरतो के क्षेत्र मे तथा भविश्य मे आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से लेकर पृकृति संरक्षण और आवश्यक चीजो के असम्भव निर्माण तक।
इन सब चीजो के लिये वातावरण तभी बन सकता है जब नेतृत्व करने वाले सभी लोग दूरदर्शी हो और अपने ,अपनी पार्टी तथा सत्ता नही बल्कि आने वाली पीढियो के लिये सपने देखे ,सिधांत गढ़े और सन्कल्पित हो।
वरना स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा और भविश्य की पीढियो के लिये सपनो की पतिस्पर्धा के बजाय तू तू मैं मैं तो किसी भी देश को पीछे ही ले जाता है।
इतिहास के सपनो मे जीना या इतिहास की नफरत को ढोना और भविश्य की पीढियो को भी देकर जाने का इरादा सिर्फ और सिर्फ बर्बादी ही लाने वाला होता है।
इराक हो ,सीरिया हो,उक्रेन या अन्य ऐसे कोई भी देश वो कितना भी फौजी साजो सामान इकट्ठा कर ले पर अगर वो किसी बड़े को खटक गये तो उसकी बर्बादी तय है और इस गलतफहमी मे रहना की उसको हथियार बेचने और अपने हितो के लिये इस्तेमाल करने वाला कोई दूसरा देश उसके लिये लड़ने आयेगा गलतफहमी ही साबित होता रहेगा क्यो कोई भी देश खुद को दूसरे के लिये बर्बाद नही करता क्योकी युद्ध बहुत महंगा शौक है।
इसलिये छोटे , आर्थिक ,जनसांख्यिकी से कमजोर और विकासशील देशो के लिये सबसे अच्छा है की वो किसी बड़े की कठपुतली न बने और अपने हित अहित के साथ सबसे सम्बंध रखे और किसी बड़े के राजनीति का मैदान न बने ,चुनौती ही दे ।पहले और दूसरे विश्व युद्ध की विभिषीका कोई भी अभी भूला नही है।
किसी भी देश का अपना निर्माण खास माहौल और ऐतिहासिक परिस्थितयो और कारको से होता है और उन्ही हालातो मे सुखी होता है तथा तरक्की करता है ।कुछ समाज हमेशा से तानाशाही व्यवस्था मे रहे और उसके आदी है तो वहा उसी फ्रेम मे कोई भी व्यवस्था हो जनता को फर्क नही पडेगा जब तक की लोकतंत्र की हवा का एहसास उसके अन्दर घर न कर जाये और वो तब होता है जब पूरी जनता उसका खुद अनुभव करती है या उसे सहज जानकारी होती है।
भारत उन्मुक्त वातावरण का समाज रहा है यहा का समाज थोडे कम मे भी जी लेता है और संतुष्ट रहता है पर उसका उन्मुक्त वातावरण और उन्मुक्त हंसी उससे नही छिननी चाहिये इसलिये तानाशाही जैसा कोई कदम या सोच भारत के लिये आत्मघाती होगी।
भारत को धर्म और जातीय झगड़ो वाले समाजो और देशो से सबक लेने की जरूरत है और जितनी जल्दी समझ लेगा उतना ही देश मजबूत हो जायेगा तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तरक्की भारत को दुनिया के सामने शान्ती तथा सद्भाव की चुनौती देने लायक हो जायेगी तथा ये दुनिया मे शान्ती का सन्देश देने लायक हो जायेगा महात्मा गांधी को सामने रख कर।
ये वक्त फिर से विचार करने का है कि जवाहर लाल नेहरू द्वारा शुरु किया गया गुट निरपेक्ष आंदोलन कितना सार्थक था और वो खुद मे तीसरी धुरी था जी बाकी दो को बैलेंस करता था ।
पहले अमरीकी स्वार्थो ने काफी देशो को बर्बाद किया है और अब उक्रेन पूरी दुनिया के छोटे और कम बिकसित या विकासशील देशो के लिये नये सिरे से एक्जुट होकर नई रणनीति बनाने का वक्त है और भारत इन सबकी अगुवाई कर सकता है पर उसके लिये पहले भारत मे पूर्ण एकता और विश्वास जरूरी है।
उक्रेन तो एक हफ्ते मे निपट जायेगा परंतु ये अन्तिम साबित नही होगा बल्कि ये नये तरह के युद्ध का प्रारंभ है। चीन की चुनौती भारत के लिये कम नही है और वो चुनौती खुद की वैचारिक और रणनीतिक गल्तियो से पैदा हुयी है।
इन गल्तियो को तुरंत स्वीकार कर उसका परिमार्जन और अनुभव का उपयोग करते हुये उससे बाहर निकलना वक्त की मांग है चाहे वह राजनीतिक विरोधी के पास ही क्यो न हो।युद्ध से बचना है तो युद्ध को महंगा करना होगा और बंटा हुआ देश तथा अज्ञानी नेत्रत्व नही कर सकता।
(लेखक स्वतंत्र राजनीतिक चिंतक एवं वरिष्ठ पत्रकार)