शबाहत हुसैन विजेता
चाणक्य अगर चाहता तो खुद राजा बनकर सिंघासन पर बैठ सकता था. उसे क्या ज़रूरत थी कि चन्द्रगुप्त को राजा बना दे. चाणक्य कोई साधारण ब्राह्मण नहीं था जो अपने सर पर शिखा धारण कर अपनी शिखा को ही अपने जीवन यापन का ज़रिया बना ले. उनकी शिखा ही तो उनका अभिमान थी. उनकी शिखा ही तो उनकी पहचान थी लेकिन चाणक्य खगोल विज्ञान का बहुत बड़ा विद्वान था. समुद्र शास्त्र को उन्होंने जैसे घोलकर पी लिया था. उन्हें विद्वान अर्थशास्त्री के रूप में पहचाना जाता था. उनके भीतर ऐसी प्रतिभा थी कि वह सामने वाले का चेहरा देखकर ही समझ जाते थे कि वह इस वक्त क्या सोच रहा है.
चाणक्य एक बड़े विद्वान थे. अपनी विद्वता का फायदा वह सत्ता को देते थे लेकिन उन्होंने सत्ता को कभी यह छूट नहीं थी कि उनकी बेइज्जती कर सके. सत्ता ने जिस दिन चाणक्य को बेइज्जत किया उसी दिन उन्होंने पूरे साम्राज्य को मिटा देने की कसम खाते हुए अपनी शिखा यह कहते हुए खोल दी कि जिस दिन तक नन्द वंश का नाश नहीं हो जाएगा मैं अपनी शिखा नहीं बांधूंगा. चाणक्य ने जो कहा था वह कर दिखाया. नन्द वंश का नाश कर उन्होंने अपने शिष्य चन्द्रगुप्त को सिंघासन सौंप दिया और अपनी शिखा फिर से बाँध ली.
चाणक्य ने बताया कि धर्म का सम्मान क्या होता है. चाणक्य ने बताया कि शिखा की क्या वैल्यू होती है. चाणक्य ने यह समझाया कि साधू का वेश क्या मायने रखता है. सियासत में खुद को चाणक्य समझने का भ्रम तमाम लोग पाले हुए हैं मगर सच यही है कि चाणक्य नीति के पास से गुज़रना भी क्या होता है उन्हें नहीं पता है.
सत्ता के शीर्ष पर बैठकर कोई योगी जब अपनी प्रजा को हिन्दू-मुसलमान समझने लग जाए तब यह स्पष्ट हो जाता है कि वह राजा बनने के लायक नहीं रह गया है. हिन्दू-मुसलमान के बीच कोई फ़कीर कैसे भेद कर सकता है. भूखा क्या जाने कि धर्म क्या होता है. प्रजा भी भूख की तरह से होती है. प्रजा से कोई मतलब नहीं होता है कि उसका राजा किस धर्म को मानने वाला है. राजा जब धर्म के आधार पर अपनी प्रजा में फर्क करने लग जाये. राजा जब लाभ देने से पहले लाभार्थी का धर्म पूछने लगे. राजा जब अपनी प्रजा को अस्सी बनाम बीस फीसदी में बांटने लग जाए तो वास्तव में वह दुकानदार बन जाता है वह राजा नहीं रह जाता.
हिन्दुस्तान की सियासत में धर्म को ताकत की शक्ल में नहीं घुन की शक्ल में घोला गया है. हर बात में हिन्दू-मुसलमान ले आने की नादानी सत्ता में इसलिए आई है क्योंकि सत्ता के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति चाणक्य नहीं है. चाणक्य जैसा भी नहीं है. वह चाणक्य के शिष्य जैसा भी नहीं है. यह राजा फकीर की वेशभूषा को समझता है मगर फकीर की ताकत को नहीं जानता है.
प्रजा नासमझ हो सकती है. प्रजा नादान हो सकती है. प्रजा बहकावे में आ सकती है. प्रजा चंद सिक्कों में बिक सकती है. प्रजा शराबी हो सकती है. प्रजा चिलम पीने वाली हो सकती है. प्रजा को खरीदा जा सकता है. प्रजा की ज़रूरतें होती हैं और ज़रूरतें वक्त ज़रूरत बिक जाया करती हैं. प्रजा हिन्दू और मुसलमान हो सकती है. प्रजा में तमाम कमियाँ हो सकती हैं. कमियां हैं तभी तो वह प्रजा है. उसकी कमियों पर पर्दा डालने के लिए एक राजा की ज़रूरत होती है. राजा जो विद्वान हो. राजा जो प्रजा का पेट भरने वाला हो. राजा जो प्रजा के धर्म की इज्जत और रक्षा करने वाला हो, राजा जो अपनी प्रजा को तमाम नशों से दूर कर देने वाला हो, राजा जो बगैर मांगे प्रजा की ज़रूरतें पूरी कर देता हो मगर राजा जब यह चिंघाड़ना शुरू कर दे कि हिन्दू का घर जलेगा तो मुसलमान का भी जलेगा तो यह स्पष्ट मान लेना चाहिए कि वह कुछ भी हो सकता है राजा नहीं हो सकता.
राजा कभी अपने धर्म और दूसरे के धर्म में फर्क नहीं करता है. राजा कभी छाती पर गोली मारने की बात नहीं करता है. राजा के पास तो इतना तेज़ होना चाहिए कि जो भी सामने जाकर खड़ा हो जाए वह नतमस्तक हो जाए.
साधू के रूप की इस हिन्दुस्तान में हमेशा से पूजा होती रही है. साधू जब तक साधू रहता है तब तक सियासत उसकी दास होती है. सत्ता उसके चरणों में पड़ी रहती है, लेकिन जैसे ही साधू खुद सत्ता का हिस्सा बन जाता है वैसे ही उसके कद में गिरावट शुरू हो जाती है. सत्ता के शीर्ष पर बैठकर भी साधू बने रह जाना इंसान के वश की बात नहीं होती है. सत्ता के शीर्ष पर बैठकर साधू यह बात समझने के लायक नहीं रह जाता कि सत्ता चलाने के लिए कभी कड़क होना पड़ता है तो कभी नर्म भी होना होता है. सत्ता कभी झुकाती है तो कभी झुकती भी है. सत्ता जब तक घास की तरह होती है हर तूफ़ान का सामना कर लेती है लेकिन वह जैसे ही खुद को ताड़ जैसा समझने लगती है तूफ़ान के सामने हार जाती है. सत्ता की यह कमज़ोर नस चाणक्य ने अच्छी तरह से समझी थी यही वजह है कि छीनी हुई सत्ता शिष्य को सौंपी थी, खुद के लिए नहीं रखी थी क्योंकि चाणक्य को पता था कि शिखा का क्या सम्मान होता है.
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