- अनुपम खेर की पहली शादी लखनऊ में दोस्तों ने घर के कमरे में करायी थी
अनुपम खेर जी के कश्मीरी पंडित पिता श्री पुष्करनाथ खेर वन विभाग में क्लर्क थे। वे 1953 में कश्मीर से शिमला आ गये थे। अनुपम खेर का जन्म 7 मार्च 1955 को शिमला के लेडी रीडिंग अस्पताल में जब हुआ तो वहां की अंग्रेज नर्स ने उनकी मां श्रीमती दुलारी खेर से कहा कि यह बच्चा मुझे दे दीजिए। इस पर पिताजी ने सख्ती से मना कर दिया। उनकी शिक्षा डीएवी कालेज शिमला में हुई। जब वो क्लास नौ में थे तो पहाड़ से गिरकर उनकी जुबान पत्थर से घायल हो गयी। जिसके चलते वो तोतले हो गये।
वे ‘क” को ‘त” बोलने लगे। तभी उनका एक लड़की से एक तरफा इश्क हो गया। जिसका नाम था कविता कपूर। उसकी पहली शर्त थी कि अगर अनुपम उसका सही नाम ले लें तो वह उनसे दोस्ती कर लेगी।
अनुपम कामयाब नहीं हुए और पहली बार उनका दिल टूट गया। कालेज के जमाने से नाटकों से जुड़े होने के चलते उन्होंने इस फील्ड में कैरियर बनाने की सोची। घर में गरीबी थी।
तभी अखबार में एक एड छपा पंजाब यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट आफ इंडियन थियेटर का जिसमें सेलेक्शन होने पर दो सौ रुपये स्टाइपेंड व एक साल का कांट्रेक्ट विद डिप्लोमा।
उन्होंने माताजी के पूजा घर में रखे एक सौ आठ रुपये में से सौ रुपये चुराये और पहुंच गये चंडीगढ़। घर लौटे तो पुलिस आ गयी थी मां की शिकायत पर कि उनका सौ रुपया चोरी हो गया है।
फिर एक दिन पिताजी ने पूछा कि फलां दिन तुम पिकनिक कहकर गये थे आज सही सही बताओ कहां गये थे। सब सच उगल दिया। मां एक जोरदार थप्पड़ लगाया।
पिताजी भी आगे बढ़े तो कान पकड़ लिया कि मैं नाटक नहीं करूंगा लेकिन पिताजी ने एक लेटर देते हुए कहा कि चल जा नाटक कर। माता जी ने कहा कि मेरे सौ रुपये? ‘अरे उसे दो सौ रुपये महीना मिलेगा। तेरे सौ भी लौटा देगा।
चंडीगढ़ में उनकी पहली मुलाकात जमींदार किरन सिंह ठाकुर (बाद में किरन खेर) से हुई। मन में प्यार के अंकुर फूटे लेकिन मन ही में रह गये। उनका आसमान विशाल था।
फिर दाखिला राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली में हो गया। वो अब्राह्म अलकाजी से बेहद मुतासिर थे। बहुत कम लोग जानते होंगे कि अनुपम खेर ने एनएसडी पास आउट करने के बाद 1979 में लखनऊ के भारतेन्दु नाट्य केन्द्र में टीचिंग की है।
टीचिंग के दौरान वो अपने एक स्टूडेंट के साथ रूम व साइकिल शेयर करते थे। जब पहली तन्ख्वाह मिली तो उन्होंने एक लेडीज साइकिल खरीदी। इसी खुशी में रोवर्स हजरतगंज में अपने खास स्टूडेंट्स को आइसक्रीम की दावत दी थी।
तब भारतेन्दु नाट्य केन्द्र गोमती नगर में न होकर रविंद्रालय में था। उन दिनों वो उर्मिल कुुमार थपलियाल निर्देशित नाटक ‘यहूदी की लड़की” कर रहे थे।
दर्पण संस्था के सचिव डा. अनिल रस्तोगी ने पहले ही कह दिया था कि हम पैसा नहीं दे पायेंगे। वो बिना पैसे की नाटक करने को तैयार थे। लेकिन उनकी एक ही शर्त थी कि उन्हें पौने नौ बजे के बाद न रोका जाए क्योंकि उसके बाद उनका ढाबा बंद हो जाएगा। उनकी दिल्ली एनएसडी की एक प्रेमिका मधु मालती कपूर उनसे मिलने लखनऊ आतीं।
उन दिनों वे आलमबाग में कृष्णा श्रीवास्तव जी के मकान में किराये पर रहते थे। यहीं पर उनके कुछ दोस्तों हेमेंन्द्र भाटिया आदि ने उनकी शादी करा दी।
फिर वो निराला नगर रहने आ गये। लेकिन कुछ दिनों बाद उन पर एक अमीर हसीना का दिल आ गया। तभी बम्बई से उनका बुलावा आ गया। वो प्रेमिका और नाटक को बीच में छोड़कर चले गये।
लड़की के घर वालों ने अन्यत्र उसकी शादी कर दी और नाटक में यहूदी का मुश्किल रोल डा. अनिल रस्तोगी को करना पड़ा। लखनऊ के उभरते फिल्मकार मुजफ्फर अली से उनकी मित्रता थी।
वे उत्तर प्रदेश सुगरकेन सीड डेवलेपमेंट कारपोरेशन की प्रमोशनल फिल्म बना रहे थे, फिल्म का नाम था ‘आगमन”। ये बात है 1982 की। फिल्म में सईद जाफरी, सुरेश ओबेराय, दिलीप धवन आदि कलाकार थे।
फिल्म का मेन लीड रोल अनुपम जी को ऑफर हुआ। वे फिल्मों में इंट्री का इंतजार ही कर रहे थे। फिल्म गन्ना डिपार्टमेेंट की प्रमोशनल फिल्म होने के नाते कोई कमाल न कर सकी।
लेकिन इस फिल्म ने अनुपम में आत्मविश्वास जगा दिया। चल पड़े बम्बई। दो साल तक स्ट्रगल करने के बाद फिर उन्हें राजश्री प्रोडक्शन की महेश भट्ट के निर्देशन में बनने वाली फिल्म ‘सारांश” मिली।
जिसमें वे खुद 28 साल के होने के बावजूद साठ साल के एक रिटायर्ड मराठी मानुष का रोल करना था जिसका बेटा विदेश में मर जाता है और उसकी अस्थियां स्वदेश में आनी हैं। इस रोल के लिए उन्हें कई पुरस्कार मिले।
उनकी गाड़ी चल निकली। अब उनके राह में लखनऊ का स्टेशन छूट चुका था। फिल्मों के आफरों के ढेर लग गये। लेकिन ज्यादातर रोल बूढ़े व्यक्ति के थे।
ओल्ड मैन की छाप न लग जाए इस डर से उन्होंने ज्यादातर रोल ठुकरा दिये। उनके खाते में जो फिल्में आयीं और जिनसे उनके अभिनय की गहराइयों का पता चलता है उनमें ‘जाने भी दो यारों”, ‘खोसला का घोसला”, ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे”, ‘डर”, ‘नागिन”, ‘लुटेरे”, ‘बेटा”, ‘शोला और शबनम”, ‘खेल”, ‘त्रिनेत्र”, ‘राम लखन”, ‘त्रिदेव”, ‘कर्मा”, ‘मिसाल”, ‘कहो ना प्यार है”, ‘डैडी”, ‘मैंने गांधी को नहीं मारा”, ‘ए वेडनेसडे”, ‘दिल है कि मानता नहीं”, ‘कुछ कुछ होता है”, ‘वीर जारा”, ‘एम एस धोनी”,’लम्हे”,’सूर्यवंश”, ‘द एक्सीडेंटल प्राइममिनिस्टर” को रखा जा सकता है।
उन्होंने पंजाबी, मलयालम, अंग्रेजी, मराठी व गुजराती व हिन्दी सहित 500 से अधिक फिल्मों मेें कामेडियन, करेक्टर रोल व विलेन की भूमिकाएं निभायींं।
हिंदी फिल्मों में काम करने के अलावा, उन्होंने कई प्रशंसित अंतरराष्ट्रीय फिल्मों में भी काम किया है, जैसे गोल्डन ग्लोब कैटेगरी नामिनेटेड-‘बेंड इट लाइक बेकहम” (2002)”, एंग ली की गोल्डन लायन जीतने वाली ‘वासना-सावधानी” (2007), और डेविड ओ रसेल की अस्कर विजेता ‘सिल्वर लाइनिंग्स प्लेबुक” (2012)।
उन्हें ब्रिाटिश टेलीविजन सिटकाम की ‘द ब्वाय विद द टाप नॉट” (2018) में उनकी सहायक भूमिका के लिए बाफ्टा नामांकन प्राप्त हुआ।
इसके बाद, उन्होंने टीवी शो जैसे ‘कुछ ना कहना”, ‘अनुपम अंकल”, ‘सावल दस करोड़ का”, ‘लीड इंडिया”, और ‘अनुपम खेर शो – कुछ भी हो सकता है” की मेजबानी की।
उन्होंने फिल्म ‘ओम जय जगदीश” (2002) के साथ निर्देशन में कदम रखा और निर्माता रहे। उन्होंने फिल्म ‘मैंने गांधी को नहीं मारा” (2005) का निर्माण और अभिनय किया। उनके प्रदर्शन के लिए उन्हें कराची अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव से सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला।
यही नहीं भारत में केंद्रीय फिल्म सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष के पद पर कार्य किया। 31 अक्टूबर 2018 को, उन्होंने अमेरिकन टेलीविजन शो ‘न्यू एम्स्टर्डम” पर अपने काम का हवाला देते हुए इंडियन फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट इंडिया (आईएफटीआईआई) के अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया, जिसे उन्होंने एक साल पहले ही ज्वाइन किया था।
लखनऊ के भातेन्दु नाट्य अकाडमी के 1999 से तीन साल के लिए चेयरमैन रहे। फिर 2001 से 2004 के बीच वे नेशनल स्कूल आफ ड्रामा के निदेशक रहे।
सिनेमा और कला के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें 2004 में पद्म श्री और 2016 में पद्म भूषण से सम्मानित किया।
दो राष्ट्रीय पुरस्कार व 8 फिल्मफेयर पुरस्कार विजेता रहे हैं। अनुपम जी ने मधु मालती से तलाक लेकर और उधर किरन खेर अपने पति से तलाक लेकर दोनों ने शादी कर ली।
उनकी पहली शादी से एक बेटा सिकंदर खेर भी फिल्मों से जुड़ा है आैर पिताजी का एक्टिंग स्कूल बम्बई अौर दुबई में देखता है।
उनका एक नाटक ‘कुछ भी हो सकता है” जो काफी कुछ उनके जीवन की घटनाओं पर आधारित है जिसका मंचन दर्पण की गोल्डेन जुबली में 2010 में लखनऊ में होना था।
दर्पण संस्था के सचिव डा. अनिकल रस्तोगी बताते हैं कि उनके स्टाफ ने कहा कि उनकी फीस पांच लाख है। बाद में वे लखनऊ में अपना नाटक करने की तमन्ना के चलते एक लाख में तैयार हो गये।
पचास हजार एडवांस भेज दिया गया। जब नाटक खत्म हुआ तो बाकी के पचास हजार जब उन्हें पेमेंट किये जा रहे थे तभी एक फोन आया और पैसे की कमी बताकर एक नाटक को कैंसिल करना पड़ रहा था। अनुपम खेर जी बोले आप मेरे पचास हजार भूल जाओ और उस नाटक को बुला लो।