स्वाधीनता के पहले की व्यवस्था और सामाजिक संरचना का ढांचा तत्कालीन मापदण्डों के अनुरूप शासकों ने निर्धारित किया था। लोकतंत्र लागू होते ही भारत गणराज्य में एक नई व्यवस्था का ढांचा सामने आया।
यूं तो वह ढांचा लंदन में बैठकर तैयार करवाया गया था। सो उसमें ज्यादतर व्यवस्थायें गोरी सरकार के नक्स-ए-कदम पर ही रेखांकित की गईं। समय के साथ सत्तासीनों ने वोट बैंक को प्रभावित करने हेतु दूरगामी चालें चलीं।
शुरूआत में उन चालों ने अपना लक्ष्य भेदन किया और सिंहासन की सौगात चालें चलने वालों की झोली में आती चलीं गईं। धीरे-धीरे देश की सामाजिक व्यवस्था और तंत्र का स्वरूप बदलता चला गया। वर्तमान में देश के अन्दर अघोषित दो सम्प्रदायों ने पूरी तरह से अपना राज्य फैला लिया है जिसे बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के नाम से जाना जाता है।
जीवन जीने की पध्दति के आधार पर आस्था के आयाम तय होते रहे। क्षेत्र विशेष की जनगणना के आधार पर यह विभाजन किया जाता रहा और फिर अल्पसंख्यकों को लुभाने हेतु उन्हें राष्ट्रहित की कीमत पर दी जाती रहीं सुविधायें।
अल्पसंख्यकों की आर्थिक स्थिति का मूल्यांकन किये बिना ही उन्हें जन्म के आधार पर संसाधनों की टोकरा परोसा जाता रहा। परिणामस्वरूप अन्य नागरिकों के समूहों ने भी सुविधाओं की मांग करना शुरू कर दी। कुल मिलाकर बांटों और राज्य करों की अंग्रेजी नीति ठहाके लगाने लगी।
यह तो रही देश को दो सम्प्रदायों में बांटने की कहानी, इसके बाद शुरू हुआ, तंत्र को अघोषित जातियों में विभक्त करने का सिलसिला। पहली और सर्वोच्च जाति मेें संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) के माध्यम से चयनित आईएएस, आईपीएस, आईएफएस जैसे कैडर को स्थापित किया गया।
देश की वास्तविक बागडोर इसी जाति के हाथों में हैं। सरकार किसी भी राजनैतिक दल की हो, परन्तु इनकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं खडक सकता। आखिर इस जाति के लोग बुध्दिजीवी और ज्ञान की पराकाष्ठा पर आसीत होते है, सो इसके कर्तव्यों की सूची अधिकारों की सूची से सामने दासी के रूप में होती है।
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दूसरी जाति में राज्य सिविल सेवा (पीसीएस) से चयनित लोगों को रखा गया है। यह यूपीएससी से चयनित वर्ग से कुछ नीचे की श्रेणी में रखी जाती है परन्तु इनके पास भी पहली जाति की तरह ही अधिकारों की भरमार होती है। मगर एक शर्त भी रहती है कि अपने से ठीक बडे अधिकारी को विश्वास में लेकर ही दूरगामी निर्णय करें।
इन दो जातियो के बाद आती है तीसरी जाति जिसे सरकारी कर्मचारी (स्थाई) कहा जाता है। यह जाति मोटी तनख्वाय पाने के बाद भी अपनी मर्जी से दायित्वों का निर्वहन करती है। स्थाई होने और देश के कानून के लचीलेपन के कारण इनको किसी का भी खौफ भी नहीं होता।
यह जाति ज्यादातर एक ही स्थान और एक ही सीट पर लम्बा समय गुजार देती है। अधिकारों की संख्या यद्यपि कम होती है परन्तु अन्य अधिकारों को प्रभावित करने की क्षमता के कारण प्रभावी होते हैं।
इसके बाद चौथे क्रम पर आती है सबसे निरीह जाति यानी संविदाकर्मी। यह योग्यता की चरमसीमा पर होते है। इन्हें संविदा समाप्त करने की धमकी पर कर्मचारियों-अधिकारियों के व्दारा हमेशा काम के बोध से लादा जाता है।
किसी भी स्थाई कर्मचारी की गलती भी इन्हीं के सिर मढकर सेवायें समाप्त करके न्याय करने का ढोल पीटा जाता है। इनका प्रारब्ध ही शायद इनकी इस विडम्बना का कारण है, जो उच्च योग्यताओं और क्षमताओं के बाद भी निरंतर शोषण का शिकार होने के लिए बाध्य होतेे हैं।
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पांचवीं जाति के रूप में आउट सोसिंग की ठेकेदारी प्रथा से सरकारी महकमों में काम करने वाले कर्मचारी। यह पूरी तरह से आरक्षित वर्ग के होते हैं क्यों कि आउट सोसिंग वाली कम्पनियों को या तो राजनेताओं के खास लोग संचालित करते हैं या फिर प्रशासनिक सेवाओं से जुडे लोगों के शुभचिन्तक।
इन कम्पनियों के कर्मचारियों की ऊपर तक पकड के कारण काम के प्रति उदासीन होने पर भी कारण बताओं नोटिस तक जारी नहीं होता। पहली तीन जातियों को सामाजिक व्यवस्था की सवर्ण श्रेणी में रखा जाता है और अन्तिम को विशेष संरक्षित श्रेणी में।
यदि वास्तव में देखा जाये तो संविदा पर काम करने वाली योग्य प्रतिभाओं की दम पर ही आज देश खडा है जबकि इन्हें न तो समान काम – समान वेतन ही दिया जाता है और न ही सेवा निवृति के बाद के लाभ।
मुट्ठी भर पैसों में जीवन यापन करने वाले यह हमेशा ही असुरक्षा के दायरे में रहते हैं। तनाव झेलते हैं, मेहनत करते है और डांट भी खाते है। कब किस अधिकारी या अधिकारी के खास कर्मचारी की नाक पर मक्खी बैठ जाये और बस इन्हें थमा दिया जाये संविदा समाप्त का फरवान।
ऐसे में इनके सामने फिर से बेरोजगारी की लाइन में खडे होकर किसी चौराहे पर मजदूरी तलाशने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा। एक ही काम के लिए अलग-अलग वेतन का प्राविधान, अलग-अलग सेवा शर्तें, अलग-अलग लाभ की स्थितियां आखिर कब तक चलतीं रहेंगी।
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अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की गणना केवल जन्म के आधार पर या जीवन जीने के ढंग पर करना क्या समाचीन है। अधिकारी, जनप्रतिनिधि, सरकारी कर्मचारी जैसे पदों पर आसीत लोग कब तक आम नागरिकों पर रौैब डालते रहेंगे।
नेताजी, अधिकारी जी, सरकारी कर्मचारी जी जैसी श्रेणियां समाप्त किये बिना समानता का राग अलापना सुखद कदापि नहीं हो सकता। यह एक बडा जोखिम है जिसे सोच समझकर किस्तों में सुलझाना ही होगा अन्यथा जो भी सरकार इस मुद्दे पर हाथ डालेगी, उसे यह तीनों सवर्ण जातियां एक जुट होकर सबक सिखाने के लिए मैदान में कूद पडेंगी।
यह पूरा कुनवा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से लेकर अपने-अपने संगठनों के बैनर तले न केवल छाती पीटता नजर आयेगा बल्कि पहल करने वालों पर कानूनी दावपेंचों से षडयंत्र करके प्रतिशोध लेने से भी नहीं चूकेंगा।
कुल मिलाकर देश के लिए घातक होता जा रहा है दो सम्प्रदाय में नागरिक और पांच जातियों में तंत्र का बटवारा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।