जुबिली न्यूज़ ब्यूरो
लखनऊ. यूपी में 2022 में होने वाले विधान सभा चुनाव को लेकर सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी रणनीति को अंतिम रूप देने में जुटे हैं। इसी क्रम में बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को प्रदेश भर के चुनाव प्रचार और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद मिश्र के पुत्र कपिल मिश्र को ब्राह्मण युवाओं को पार्टी से जोड़ने का ज़िम्मा सौंपा है।
मायावती के इस फैसले की बहुत आलोचना हो रही है। विरोधी दल ही नहीं, दलित आंदोलन से जुड़े कई पुराने नेताओं ने भी मायावती के इस कदम पर उनकी आलोचना की है। विपक्षी दल इस कारण आलोचना कर रहे हैं कि अब तक मायावती खुद दूसरे दलों पर परिवारवाद को बढ़ाने का आरोप लगाती रही हैं, जबकि दलित आंदोलन से जुड़े पुराने नेताओं का कहना है कि सत्ता प्राप्ति की अभिलाषा तथा पहाड़ जैसी अपनी संपत्ति को बचाने के लिए मायावती बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर और कांशीराम के आदर्शों की अनदेखी करते हुए परिवारवाद को बढ़ावा दे रहीं हैं। मायावती का यह फैसला राज्य में वंचित समाज के संघर्ष को कमजोर करेगा।
चुनावी रणनीतिकारों का मत है कि चुनाव के ठीक पहले मायावती पर परिवारवाद को बढ़ावा देने को लेकर बसपा समर्थकों के बीच बन रहा यह माहौल मायावती के वोट बैंक को प्रभावित कर सकता है। वहीं दूसरी तरफ आरके चौधरी सरीखे कांशीराम के पुराने साथियों और कई दलित नेताओं ने इसलिए मायावती की निंदा की है कि कांशीराम ने दलित आंदोलन के प्रति पूर्ण समर्पण के लिए अपने परिवार से सारे संपर्क तोड़ लिए थे, लेकिन मायावती न सिर्फ अपने परिवार को पार्टी में जिम्मेदारी दे रही हैं, बल्कि पार्टी में सतीश चंद्र मिश्र जैसी सीनियर नेताओं के पुत्र और परिवार के लोगों को दायित्व सौंप रही हैं।
जबकि पार्टी में सभी को पता है कि संस्थापक कांशीराम ने मायावती को अपना राजनीतिक वारिस बनाया था और उनसे अपने काम को आगे ले जाने की उम्मीद की थी। देश में दलित आंदोलन को व्यापक रूप देने और बामसेफ तथा डीएस-4 जैसे संगठनों के जरिए बहुजन समाज पार्टी को खड़ा करने वाले कांशीराम ने दलित आंदोलन के लिए अपनी मां, बहन और भाई तक से नाता तोड़ लिया था।
कांशीराम की बहन सबरन कौर ने कई वर्ष पूर्व लखनऊ में हुई एक मुलाकात में यह बताया था कि दलित आंदोलन को व्यापक रूप देने के लिए कांशीराम ने कभी घर न लौटने, खुद का मकान न बनाने और दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों के घरों को ही अपना घर मानने की शपथ ली थी। उन्होंने अपने संबंधियों से कोई नाता नहीं रखने, किसी शादी, जन्मदिन समारोह, अंत्येष्टि आदि में भाग न लेने और बाबा साहब अंबेडकर का सपना साकार करने तक चैन से न बैठने की कसम खायी थी।
मायावती से भी उन्होंने ऐसी ही अपेक्षा की थी, परन्तु अब पार्टी में आकाश आनंद और कपिल मिश्र जैसे युवाओं को मिली जिम्मेदारी उन पार्टी कार्यकर्ताओं को दुखी कर रही है जो वर्षों से पार्टी हित में गांव -गांव में संगठन को मजबूत करने का कार्य कर रहे थे, लेकिन उन्हें अभी तक पार्टी संथान में जगह नहीं मिली है। ऐसे बसपा कार्यकर्ताओं में गोंडा के अरशद खान भी हैं। वह कहते हैं कि पार्टी में अब बहुत बदलाव हो गया है। पहले जहाँ कांशीराम सहित पार्टी के बड़े बड़े नेता जिलास्तर पर बैठकें कर वंचित समाज के लोगों की समस्याओं को जानकर उनका निदान के लिए आवाज उठाते थे, लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं होता। पार्टी के कोऑर्डिनेटर पार्टी कार्यकर्ताओं की समस्याओं को लेकर मायावती को क्या बताते हैं? किसी को कुछ नहीं पता।
अरशद बताते हैं कि 2021 की मायावती वो नहीं हैं जिसकी तारीफ के पुल कांशीराम बांधते थे। कभी साइकिल चलाकर दलित समाज से मिलने जाने वाली मायावती तो अब कार से भी जिलों में समाज के लोगों से मिलने नहीं जाती। अब तो वह दलित समाज के लोगों से घर के बाहर जाकर मिलना कब का छोड़ चुकीं हैं। कोरोना महामारी के दौरान भी वह लोगों से मिलने के लिए अपने घर के बाहर नहीं निकली। मायवती के इस रुख को देखते हुए ही उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति वित्त विकास निगम के अध्यक्ष लाल जी निर्मल कहते हैं कि वंचित समाज का हित अब मायावती के एजेंडे में नहीं है। अब तो अपनी पहाड़ जैसी दौलत को बचाने के लिए मायावती पार्टी में परिवारवाद को बढ़ावा दे रहीं है।
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मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को जो बीएसपी का प्राथमिक सदस्य तक नहीं था, उसे पार्टी का दूसरे नंबर का मुखिया घोषित किया था, बाद में इस फैसले को उन्होंने बदला। अब फिर मायावती ने अपने भाई के बेटे आकाश आनंद और पार्टी महासचिव सतीश चंद्र मिश्र के बेटे कपिल मिश्र को पार्टी में जिम्मेदारी सौप कर अपने आलोचकों को मौका दिया है। बसपा में परिवारवाद को दिए जा रहे बढ़ावे को लेकर बाबा साहब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर सुशील पांडेय कहते हैं कि लोकतंत्र की दलीय व्यवस्था में आंतरिक लोकतंत्र अत्याधिक आवश्यक है, इसके बिना लोकतंत्र वास्तविक भावना और उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकता। बसपा में अब इसकी अनदेखी हो रही है, इसके कारण जमीनी स्तर पर बसपा की मजबूती प्रभावित होगी और कर्मठ लोग बसपा से दूरी बनाएंगे। जिसका असर बसपा के मूवमेंट पर पड़ेगा।