डॉ. श्रीश पाठक
1996 से लेकर 2001 तक के क्रूर घिनौने शासन में तालिबान ने जितना जनविरोध, प्रदर्शन नहीं देखा था, उससे अधिक पिछले तीन हफ्तों में उसे झेलना पड़ा है और ये रुकने का नाम नहीं ले रहे। तालिबान के मुताबिक जिन औरतों को बस बच्चा पैदा करना चाहिए उन बहादुर अफ़ग़ान औरतों ने सड़कों पर बंदूकें ताने तालिबानों की आँखों में आँख डालकर पाकिस्तान मुर्दाबाद, तालिबान मुर्दाबाद के नारे लगाए हैं। और यह केवल काबुल में ही नहीं हो रहा, हेरात, फराह, बल्ख, मजारेशरीफ और बाकी कई जगहों पर बदस्तूर हो रहा।
भूखे बच्चों, बूढ़ों और बीबी के लिए गरीब अफगानी कई जगहों पर हथियारबंद तालिबानों से भी भिड़ उनसे पैसे छीन रहे। भूख, लाचारी, बेबसी, गरीबी की ऐसी इन्तहा हो गयी है एक आम अफगानी के लिए कुछ डरने को कुछ खोने को बाकी नहीं रहा तो लगता है कि वह तालिबानियों से लड़ने-भिड़ने को तैयार हो रहा है। तालिबान के पहले शासन में महज दो गाड़ी में 7 बंदूक ताने तालिबानियों के कह देने से सब समान छोड़ गाँव के गाँव खाली हो जाते थे लेकिन अभी हेरात में एक अफगानी को जब तालिबानी ने सर पर मारा तो गिरते खून को देख वह चिल्लाया कि पट्टी कराकर फिर लौटता हूँ यहीं।
पिछले बीस सालों में अफगानिस्तान में एक नयी पीढ़ी आयी है, जिसे थोड़ी-बहुत नयी तालीम मिली है, कई अफगानी ऐसे हैं जो लोकल लैंग्वेज के साथ-साथ अँग्रेजी, फ्रेंच भी बोल सकते हैं, जिन्होंने आजादी का स्वाद थोड़ा चखा है, उन्हें पता चल गया है कि लोकतंत्र उनका हक है और ये भी उनकी किस्मत वे खुद लिखेंगे, कोई बाहरी नहीं; कम से कम पाकिस्तान कत्तई नहीं। इन्हें खूब पता है कि पाकिस्तान की सरपरस्ती वाला तालिबानी शासन कभी भी उनके देश का भला नहीं कर सकता है। आज नहीं खड़े होंगे तो अफगानिस्तान सचमुच बीस साल पीछे चला जाएगा।
यह अंतरिम तालिबानी सरकार, केवल कट्टर तालिबानी विचारधारा और पाकिस्तानी हित नुमाइंदगी करती है, पश्तूनों के भी सारे कबीले नहीं हैं इनके साथ तो और बाकी इथनिक कबीलों की बात ही क्या। तालिबान को आम अवाम का समर्थन बहुत ही कम है। अंतरिम सरकार पर पाकिस्तानी छाप देखकर और भी गुस्सा है आम जनता में। पंजशीर की सड़कों पर और कुछ इमारतों पर भले तालिबान काबिज हों लेकिन अंदर गाँवों में अभी भी वे नहीं पहुँच सके हैं। बेशक अफगानी जनता ढेर सारे कबीलों में बंटी है लेकिन फिलहाल एक होने का कारण मौजूद है – तालिबान। ईरान, टर्की, ताजिकिस्तान, भारत से मदद मिलने की सूरत बनती है- प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष । पिछले बीस सालों में कई रसूखदार अफगानियों ने बहुत पैसे बनाए हैं, अधिकांश वे अब दूसरे देशों में चले गए हैं लेकिन वे मदद को संसाधनों से तैयार हैं ।
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आज के हालात में सभी को डर है या डरने की वजहें है अफगानिस्तान में। पाकिस्तान-चीन को तालिबान से कि कहीं सीमा पार उनके देश में आतंकवाद को शह न मिल जाए और तालिबान को सबसे बड़ा डर ये है कि कहीं जनता खड़ी न हो जाए। आगे क्या होगा यह किसी को नहीं पता होता लेकिन एक तस्वीर धुंधली ही सही यह भी है आज के अफगानिस्तान की।
(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रवक्ता हैं)