देश में राष्ट्रभक्त नागरिकों की निरंतर कमी होती जा रही हैं। व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के आगे सामाजिक हित बौने हो चुके हैं। सुरक्षात्मक मुद्दों से लेकर राष्ट्रीय विकास जैसे कारक हाशिये पर पहुंच चुके है।
संविधान की धाराओं का मनमाना विश्लेषण नित नये विरोधाभाषों खडे कर रहा है। अफगानस्तान के मौजूदा हालातों को अनदेखा करने वाले लोग राजनैतिक लिबास पहिन कर अपने आकाओं के षडयंत्रकारी ऐजेन्डे को पूरा करने में जुटे हैं।
आज देश को सुरक्षा की गारंटी चाहिए, समानता की गारंटी चाहिए और चाहिए विकास की गारंटी। किन्तु ऐसे माहौल में भी राजनैतिक दल वोट बैंक के इजाफे की तरफ ही दौड रहे हैं। आम आवाम को लुभाने के लिए विशेषज्ञों की सेवायें ली जा रहीं हैं। वोट बटोरने की तकनीक इजाद करने का दावा किया जा रहा है और इजाद करने वालों ने स्वयं को स्वयंभू जीत दिलाने वाला ठेकेदार भी घोषित कर दिया है।
संयोग से कुछ ठेकेदारों की नीतियां काम आ गईं और सेवायें लेने वालों की जीत हो गई। तब से वोट कंसल्टेन्सी का फैशन चल निकला है। वर्तमान में कहीं किसानों को राजनीति में धकेल कर कुछ सफेदपोश अपने मंसूबे पूरे करने में जुटे हैं तो कहीं छात्रों को हथियार बनाया जा रहा है।
जातिगत मुद्दों, क्षेत्रगत भावनाओं, वर्गवादी हितों जैसे अनेक कारकों को हवा मिलने से राष्ट्रीय एकता खोखली होती जा रही है। पडोसी पर आने वाली विपत्ति को गैर की समस्या समझने वालों की संख्या बढने से मानवतावादी विचारधारा तार-तार होती जा रही है। महानगरों में पनपती मशीनी संस्कृति अब गांव-गांव, गली-गली फैलना चुकी है।
देश की दशा और दिशा पर चिन्तन की श्रंखला भी महानगरों के वातनुकूलित कमरों में आयोजित की जाती है। जागरूकता लाने के नाम पर किसी नामची के एनजीओ को बडा बजट आवंटित करके कागजी आंकडों पर स्वयं की पीठ थपथपा लेने की परम्परा पुरानी है। अधिकांश स्थानों पर कागजी विकास और धरातली प्रगति में जमीन-आसमान का स्पष्ट अंतर देखने को मिलता है।
ऐसे अनगिनत उदाहरण अपनी वास्तविकता को चीख-चीख कर बताते हैं परन्तु उनको सुनने वाला कौन है। सरकार और विपक्ष के मध्य स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का जमाना इतिहास बन चुका है। वह एक दौर था जब विपक्ष में बैठने वाली पार्टियों के सुझावों को सरकारें स्वीकार करतीं थी। तब सुझावों में राष्ट्रहित भी स्पष्ट रुप से परिलक्ष्ति होता था। तब विपक्ष की रचनात्मक भूमिका होती थी।
आज स्वार्थ की बदबू से नाक फटने लगती है। तुष्टीकरण की नीतियों से देश की एक बडी जनसंख्या को कामचोर, नकारा और आलसी बनाने का क्रम लम्बे समय से चला आ रहा है। जाति के आधार पर अन्य जातियों व्दारा जातिगत शब्दों के प्रयोग पर दण्डात्मक कानून, अयोग्य लोगों की नियुक्तियां, उन्हें क्रम से पहले पदोन्नति सहित अनेक लाभ का प्राविधान ही समाज में मानसिक व्देष का कारक बनते जा रहें। बाकी कमी को विभिन्न संघों, संगठनों, एसोसिएशन आदि ने झंडा ऊंचा करके पूरा कर दिया है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्म प्रदर्शन की आजादी, विशेेषाधिकारों की स्थापना जैसी धाराओं की ओट में स्वतंत्रता को स्वच्छंदता में परिवर्तित हो चुकी है। चन्द लोगों को आज भी स्वयं के हितों की पूर्ति ही दिखाई दे रही है जबकि पूरा विश्व एक खास खतरे की आहट सुन रहा है। तालिबान को सहयोग देने वाले राष्ट्र यदि कल को आईएसआईएस जैसे संगठनों को भी मान्यता देने के लिए आगे आ जायें, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। तब विश्व के अनेक देश स्वयं के हितों को ही साधने में जुटेंगे।
जिन देशों को आज अफगानियों की चीखें, खून से लथपथ लाशें नहीं दिख रहीं है वे ही कल अपने लिए मानवता का झंडा ऊंचा करने से नहीं चूकेंगे। ऐसे देशों से भी चार हाथ आगे बढकर हमारे देश के हालात होंगें। तब भी सरकारी प्रयासों पर प्रश्नचिन्ह लगाने वालों की एक लम्बी फेरिश्त होगी। कथित बुध्दिजीवियों की कतारें होंगी। तब भी किसान आंदोलन, छात्र आंदोलन, कर्मचारी आंदोलन, अधिकारी हित, दलगत स्वार्थ, व्यक्तिगत लाभ के लिए लोग लडते दिखेंगें।
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अंतर्कलह करके सरकारों को नयी समस्यायें देकर बाह्य आक्रांताओं को जयचन्द जैसा सहयोग ही देंगें। सुरक्षात्मक कदमों को उजागर करके के लिए बाध्य करेंगे। सर्जिकल स्ट्राइक के अपनों से ही सबूत मांगेंगे। सेना का मनोबल कमजोर करने की साजिश करेंगे। राष्ट्रवादी मानसिकता को तिलांजलि दे चुके ऐसे लोगों में से कुछ ने राजनैतिक जाम पहन लिया है तो कुछ ने समाजसेवी होने का ढोंग रचा लिया है।
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कुछ ने बुध्दिजीवी और विशेषज्ञ का स्वयंभू तमगा लगा लिया है तो कुछ ने धार्मिक ठेकेदार बनकर दलों की कठपुतली का नाच दिखाना शुरू कर दिया है। ऐसे अनेक वर्ग हैं जहां से राष्ट्रभक्ति हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो चुकी है। ऐसे लोग यह समझना ही नहीं चाहते कि जब राष्ट्र सुरक्षित रहेगा, तभी तो राजनीति हो सकेगी।
और राष्ट्र तभी सुरक्षित रहेगा जब आम आवाम व्यक्तिगत स्वार्थ की बुनियाद पर षडयंत्र करनेे वालों को उनकी औकात दिखा देगा। आज तालिबान खुलेआम लिख रहा है क्रूरताओं की नई इबारत। अफगानियों की खून से लथपथ चीखों को विश्व की ताकतें कर रहीं है अनसुनी। संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर अंतराष्ट्रीय सुरक्षा परिषद जैसे संगठन मौन हैं, निष्क्रिय हैं।
मानवता के विश्वभाल पर जुल्म की दास्तानें लिखीं जा रहीं हैं और हम अपने देश की सुरक्षा मजबूत करने के स्थान पर आपसी खींचतान और षडयंत्र में ही उलझे हैं। ऐसे खूनी चीखों के मध्य गूंजते राजनैतिक ठहाके कभी भी सुखद नहीं कहे जा सकते। रोम जलता रहा और नीरो बांसुरी बजाता रहा, की घटना आज पुन: देश में देखने को मिल रही है।
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विभिन्न संचार माध्यम तो अपने-अपने ढंग से मसाला परोस रहे हैं। पार्टियां आशीर्वाद यात्रायें और विरोध प्रदर्शन में लगीं हुई हैं। अधिकारी कागजी आंकडे बनाने हेतु अधीनस्तों पर दबाव बना रहे हैं। संगठनों का ऐजेन्डा दलगत आधारों पर तय हो रहा है। समाज सेवी संस्थायें सरकारी बजट हथियाने की चालें चल रहीं हैं।
बीमारियों के दावानल ने चिकित्सा माफियों की लाटरी लगा दी है। चारों ओर मनमानियों का तांडव हो रहा है। राष्ट्र की सुरक्षा, व्यवस्था और संपन्नता की प्राथमिकतायें कहीं गौड हो गईं हैं। बाह्य आक्रान्ताओं का जुल्म सहने वाली पीढियां आज हमारे मध्य नहीं है। उन पर हुये जुल्म का इतिहास कोई पढना नहीं चाहता। उनकी पीडा को कोई महसूस करना नहीं चाहता। अगर चाहता है तो केवल वर्तमान में भौतिक सुख के साधन, सामाजिक सम्मान और अकूत सम्पत्ति। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नयी आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।