प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव
ये उन दिनों की बात है जब शाम होते ही लखनऊ एक बड़ा तबका (जिसमें जवान से लेकर बुजुर्ग तक शामिल थे) गंजिंग करने निकलता था। फिजां में इत्र महकता था। हलवासिया से काफी हाउस तक के दो चक्कर लगाने के बाद जुबान पानी छोड़ने लगती थी। तब चाट के दो तीन ही ठीहा हुआ करते थे। मोती महल, चौधरी और शुक्ला चाट।
मोती महल और चौधरी में तो बैठकर खाने का चलन था जिसमें चाट का मचा आधा रह जाता था। चाट का असली मजा तो खड़े होकर खाने में है। इधर चटनी कम हुई … आप ने हाथ बढ़ाया और अगले ही क्षण टिक्की खट्टी मीठी चटनी के तालाब में डूब गयी।
सीटिंग अरेंजमेंट में यह सुविधा नहीं होती। चटनी दोबारा मांगने और आने तक टिक्की प्लेट पर पड़ी पड़ी ठंड का लाबादा ओढे़ बेस्वाद हो चुकी हो चुकी होती।
शुक्ला चाट के तवेे पर कलछुन की ठन ठन लोगों को अपनी तरफ खींच लेती। कैथेडल से बायें घूमते ही, चंद कदम चलते ही, शाहनजफ रोड की तरफ मुड़ते ही बायीं तरफ आलू की टिक्की की सोंधी सोंधी खुशबू नथुनों को बेबस कर देती। आइये इस चाट शॉप के इतिहास की ओर भी एक नजर डालते चलें।
1968 में मंगला प्रसाद शुक्ला जी ने “शुक्ला चाट” का श्री गणेश किया। लखनऊ चाट के लिए अपनी पहचान बना रहा था। पानी के बताशों में बताशा और पानी अगर सही नहीं हुआ तो लोग मुंह बिचकाकर चल देते।
जिस तरह एक चावल से पूरी हांडी का हाल पता चल जाता है उसी तरह नया ग्राहक पहले पानी के बताशे खाकर पता करता है कि बाकी आइटम का हाल क्या होगा। यह इंसानी फितरत से मंगला प्रसाद जी वाकिफ थे सो पानी के बताशों पर विशेष ध्यान दिया गया।
‘हमने अपने बताशे स्वयं बनाने का फैसला किया। सुबह छह बजे से दोपहर दो बजे तक निरंतर बताशे बनते रहते। हमारे बताशे इतने कुरकुरे और स्वादिष्ट होते कि बहुत से चाट वाले हमीं से खरीदकर ले जाते।
” बताते हैं मंगला प्रसाद जी के सबसे बड़े बेटे दिनेश शंकर शुक्ला। ‘हमारी माता जी को चाट बनाने का बहुत शौक था। चाट में पड़ने वाले सारे मसाले वही अपनी देखरेख में तैयार करती थीं। जिस मसाले को इमाम दस्ता में कूटा जाता था उसे कभी पिसवाया नहीं गया।
वह आज भी कूटा जाता है। माताजी के देहांत के बाद पिताजी ने दुकान में आना कम कर दिया। मेरे बाकी तीनों भाई करूणा शंकर, कृपा शंकर और प्रेम शंकर भी समर्पण भाव से इसी काम में लगे हुए हैं।
हमारे दही बड़े के मुरीद पूर्व प्रधानमंत्री स्व.अटल बिहारी बाजपेयी बहुत ज्यादा थे। एक बार जब वो प्रधानमंत्री थे तो अचानक मेरी दुकान के आसपास सिक्योरिटी की हलचल बढ़ गयी। ट्रैफिक रोक दिया गया।
सामने से अटल जी पैदल ही चलकर दुकान तक आये और फटाफट दही बड़े खाकर चले गये। जब वे प्रधानमंत्री नहीं बने थे केवल मंत्री थे तब भी रात को आ जाते थे दही बड़े खाने। मैं तो ज्यादा लोगों को पहचानता नहीं हूं। एक बार कंगना रनाउत भी आयीं तो हमारे हेल्पर ने पहचाना अौर हमने फोटो खिंचवाई।
आलू की स्टफ टिक्की, दही बड़े, पानी के बताशों, दही चटनी के बताशों के अलावा मटर टिक्की और पापड़ी चाट हमारी स्पेशियालिटी है। हमारी स्पेशल मटर टिक्की ज्यादातर लोग पैक कराकर ले जाते हैं।
दो टिक्की से आपका पेट भर जाएगा। हम कभी बची सामग्री को अगले दिन इस्तेमाल नहीं करते। हमारे वहां हर आइटम ताजा बनता है और ताजा ही बिकता है।” बताते हैं दिनेश भाई।
अपने टेस्ट को बरकरार रखने के लिए वे किसी भी नये आइटम का इजाफा नहीं करना चाहते। बात जब आज के दौर की सबसे हॉट डिमांड बन चुकी बास्केट चाट की आयी तो इस पर उनका साफ कहना था कि बास्केट चाट में टिक्की, दही बड़ा, पापड़ी, मटर चटनी, दालमोठ, मुरमुरा आदि सभी कुछ पड़ जाने के बाद स्वाद गडमड हो जाता है। चाट का स्वाद तो अलग अलग आइटम को पत्ते केे दोने में लेकर उसे धीरे धीरे स्वाद लेकर खाने में आता है। नकल के चक्कर में हम अपना परम्परागत टेस्ट भी गंवा देंगे।
बात जब सीक्रेट मसाले की आयी तो दिनेश जी ने राज खोलते हुए कहा, ‘मसाले तो सभी वही होते हैं। बस खूबी उसके अनुपात को बैलेंस करने की होती है। जो यह बैलेंस सीख गया वही बादशाह हो जाता है।
हमारी स्वर्गीय माताजी कौशल्या देवी जी के बताये मसालों को ही हम लेकर चल रहे हैं। हम चारों भाई और तीन हेल्पर सुबह तड़के मटीरियल तैयार करने में जुट जाते हैं।
यह बहुत ही मेहनत का काम है। आज की जनरेशन इस काम से दूर से ही नमस्कार करती है। उन्हें चाट का काम रास नहीं आता। मेेरी एक बेटी प्रिंसपल है और दो बेटे फाइनेंस आर्गनाइजेशन में अच्छे पदों पर हैं। हमारे भाई लोग इस पुस्तैनी काम को आगे ले जाएंगे।”