एक जमाना था जब रत्ती लाल पिताजी सिर पर खोमचा लेकर गली-गली खस्ते बेचते थे। दादा जी के समय एक रुपये में 64 खस्ते मिला करते थे। मैंने अपने होश में पचास पैसे में एक खस्ता बेचा है। सबसे बड़े पुत्र रत्ती लाल ने ठेला लगाकर खस्ते बेचने शुरू किये। ये बात है 1937 की। फिर उनके पुत्र राजकुमार ने लाटूश रोड पर कंधारी लेन में एक छोटी सी दुकान किराये पर लेकर खस्ते की दुकान खोली। ये बात है 1965 की। अब धीरे-धीरे खास्ते के शौकीनों की भीड़ बढ़ने लगी और दो दशक में रत्ती के खस्तों का नाम शहर से निकल आसपास के जिलों ही नहीं दिल्ली, मुम्बई तक पहुंच गया….
खास्ता खाने के शौकीनों से अगर ये पूछा जाए कि शहर में किसके खस्ते बेहतरीन और स्वादिष्ट हैं तो वो बेसाख्ता कह उठेगा रत्ती के खस्ते। उनके खस्ते खाने में रत्ती भर मेहनत नहीं लगती।
मुंह में डालते ही खस्ता एकदम खस्ता हो जाता है। इनके खस्तों की खासियत है कि आप चार-पांच बड़े मजे से खा सकते हैं। जबकि और हलवाइयों के खस्ते आप एक से ज्यादा नहीं खा सकते, तेल की मात्रा अधिक होने के नाते गला चोक हो जाता है। रत्ती के खस्तों की एक खासियत ये भी है कि उनकी सब्जियों में लहसुन, प्याज और खटाई नहीं पड़ती है।
शताब्दी से दिल्ली का सफर करने वाले यात्री रात को ही अपनी बुकिंग करा देते हैं और सवेरे अपना पैकेट लेकर चले जाते हैं। दुबई और सिंगापुर की फ्लाइट पकड़ने वाले बल्क में खस्ता बंधवा ले जाते हैं। वे बताते हैं कि वहां उनके रिश्तेदार एयरपोर्ट पर ही खस्ते खाना शुरू कर देते हैं और कहते हैं कि अमां घर बाद में, रत्ती का खस्ता पहले।
एक जमाना था जब रत्ती लाल पिताजी सिर पर खोमचा लेकर गली-गली खस्ते बेचते थे। सबसे बड़े पुत्र रत्ती लाल ने ठेला लगाकर खस्ते बेचने शुरू किये। ये बात है 1937 की। फिर उनके पुत्र राजकुमार ने लाटूश रोड पर कंधारी लेन में एक छोटी सी दुकान किराये पर लेकर खस्ते की दुकान खोली। ये बात है 1965 की।
अब धीरे-धीरे खास्ते के शौकीनों की भीड़ बढ़ने लगी और दो दशक में रत्ती के खस्तों का नाम शहर से निकल आसपास के जिलों ही नहीं दिल्ली, मुम्बई तक पहुंच गया। रत्ती के बेटे राजकुमार, जो बीटेक हैं, बताते हैं कि तब हम सब बहुत छोटे हुआ करते थे। पिताजी कस्तूरबा गर्ल्स स्कूल के सामने खस्ते का ठेला लगाते थे। मैं भी कभी-कभी पहुंच जाता था।
मेरी माताजी श्रीमती लक्ष्मी देेवी जिनका पिछले दिनों देहान्त हुआ है, वे दाल पीसने से लेकर मसाला कूटने तक का सारा काम अकेले ही करती थीं। बाजार का काम पिताजी देखते थे। पिताजी चाहते थे कि मैं अच्छी शिक्षा ग्रहण करूं। मेरी स्कूलिंग सीएमएस से हुई है। बीटेक करने के बाद मैंने दुकान का काम सम्भाल लिया। अब चौथी पीढ़ी का मेरा बेटा रवि भी बीटेक और एमबीए कर चुका है और वह भी अपना पुश्तैनी काम सम्भालता है।
खस्तों की खासियत पूछने पर राजकुमार बताते हैं कि हमारे खस्ते बाकी लोगों से अलग इसलिए हैं कि इनमें जरा सा भी अतिरिक्त तेल नहीं होता है। दूसरों का एक खाकर आपका गला चोक हो जाता है लेकिन आप हमारे चार से पांच खस्ते मजे से खा सकते हैं। हमारी मटर व आलू की सब्जी में जो मसाला पड़ता है उससे पेट नहीं खराब हो सकता।
हम सारे मसाले चुन-चुन कर बाजार से लाते हैं। अपने सामने पिसवाते हैं और कुछ मसाले हमारे फैमिली ट्रेडीशनल है, जो सीक्रेट हैं, जो हमारे घर के लोग ही जानते हैं। मैदा हम सबसे अच्छी क्वालिटी का लेते हैं।
आलू और मैदा नया होनेे पर अच्छा टेस्ट नहीं देता। हमारा प्रयास होता है कि हम आलू और मैदा पुराना ही इस्तेमाल करें। चने की दाल भी हम कभी बाजार से नहीं खरीदते। हम चना लेकर उसे अपने सामने पिसवाते हैं। पहले पीसने, कूटने और छानने का काम हाथ से होता था अब ये सारे काम मशीनों से होते हैं।
अब नयी जनरेशन को हाईजीन का बहुत ख्याल रहता है। उनका मानना है कि खाने की वस्तुएं जितना कम हाथ से छूई जाएंगी, उतना ही हाईजेनिक रहेंगी। राजकुमार बताते हैं कि हमने ट्रांस गोमती के ग्राहकों की सहूलियत के लिए अलीगंज में भी अपना एक आउटलेट पट्रोल पम्प के पीछे खोला है। क्वालिटी कंट्रोल के लिहाज से हम मटर व सब्जी अपने कारखाने से बनवाकर भेजते हैं।
हम दो तरह के आलू बनवाते हैं एक बिना मिर्च के दूसरा मिर्च वाले। बाकी खस्ता व बड़ा वहां गर्मागर्म सर्व किया जाता है। हमारा विचार है कि हम शहर वासियों की सहूलियत के लिए कुछ और आउलेट खोलें।
हमने अपनी रेंज भी बढ़ा दी है। अब हम खस्ते के अतिरिक्त पूरी-सब्जी, बड़ा. जलेबीऔर मिठाई की पूरी रेंज तैयार करवाते हैं। आज तो नहीं पर सुबह छह तीस पर हमारी दुकान खुल जाती है।
शताब्दी से दिल्ली जाने वाले काफी यात्री फोन करके अपनी डिमांड को नोट करवा देते हैं और गाड़ी रोक कर पैक किये हुए खस्ते लेकर यात्रा पर निकल जाते हैं। आप ये भी कह सकते हैं कि शताब्दी के यात्रियों का ख्याल करते हुए हम अपनी दुकान सुबह खोल देते हैं। हमारी जो खास बात है वह ये कि हम अपनी सब्जियों में प्याज, लहसुन और खटाई का इस्तेमाल तनिक भी नहीं करते हैं।
राजकुमार बताते हैं कि जब कभी किसी धार्मिक अनुष्ठान में पूड़ी या खस्ते की आवश्यकता पड़ती है तो हमारी दुकान से ही सारा माल जाता है। यहां के एस्कॉन टेम्पल के महंत जी अक्सर अपने अनुयायियों को हमारे पास भेजते हैं भोजन करने के लिए।
प्याज, लहसुन तो समझ में आता है फिर खटाई के न पड़ने का प्रयोजन क्या है, इस पर राजकुमार बताते हैं कि खटाई हमारे मेहनत और कीमती मसालों को अरोमा दबा देती है। किसी भी खाने की जान उसका अरोमा ही होता है। उसकी पूर्ति के लिए हम प्याज व खटाई पसंद करने वाले ग्राहकों के लिए अलग से कटा प्याज व नीबू देते हैं।
इस प्याज को अलग रखा जाता है ताकि वह सब्जी से छूने न पाये। मेरे दादा जी के समय एक रुपये में 64 खस्ते मिला करते थे। मैंने अपने होश में पचास पैसे में एक खस्ता बेचा है। आज बारह रुपये का एक खस्ता मिलता है।
तब घर के सभी बंदे काम पर लगते थे आज भी यही परम्परा है। मेरे चाचा जी, मौसाजी, पत्नी व घर के बाकी सदस्य काम निपटवाते हैं तभी काम पूरा हो पाता है। हमें अपनी मेहनत का इनाम उस वक्त मिल जाता है जब दुबई और सिंगापुर की फ्लाइट पकड़ने वाले बल्क में खस्ता बंधवा ले जाते हैं। वे बताते हैं कि वहां उनके रिश्तेदार एयरपोर्ट पर ही खस्ते खाना शुरू कर देते हैं और कहते हैं कि अमां घर बाद में रत्ती का खस्ता पहले।