प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव
1888 में अमीनाबाद एकदम जंगल हुआ करता था। सूरज ढलते ही यहां शरीफ आदमियों से यह स्थान खाली हो जाता था।
यहीं पर एक तख्त पर बुद्धुलाल केसरवानी अपनी चटपटी चाट लगाते थे। लोग फुर्सत से आते और इत्मीनान से बैठ कर बतियाते।
जब उनका नम्बर आता तभी उन्हें चाट नसीब होती। अगर किसी ने भूल से जल्दी कर दो कह भर दिया तो बुद्धूलाल जी का पारा सातवें आसमान पर होता और वे उसे तख्त से तुरंत खड़ाकर चलता करते।
उनका कहना था कि जब तक चाट उनके मन की नहीं बन जाती वे कतई नहीं दे सकते।
लकड़ी के कोयले पर धीमी आंच में देशी घी में देर तक आलू टिक्की और मटर भूनी जाती। चटनी में इमली और अमरस पड़ता था। बताशे का पानी नहीं हकीमी पानी समझिये। कितना भी खा लें सब हजम और भूख भी बढ़ जाए सो अलग।
लोग घंटों इंतजार करते अपनी बारी आने का। स्वाद ही कुछ ऐसा नायाब होता था उनकी चाट का। उनके बेटे रामनाथ केसरवानी ने इस विरासत को आगे बढ़ाया।
फिर तीसरी पीढ़ी के पंकज केसरवानी ने बाग डोर सम्भाली। अब चौथी पीढ़ी के शेखर और शशांक इस पुश्तैनी रवायत को आगे बढ़ा रहे हैं।…
‘साहब अब तो हलवाई चाट बनाने लगे हैं। चीनी से निकली सारी गंदगी से मीठी चटनी बना देते हैं। फटाफट देने के चक्कर में टिक्कियों को तेल के तालाब में डीप फ्राई करके तेज मसालों के साथ पेश कर देते हैं।
लेकिन जो लोग लखनऊ की खांटी चाट स्वाद लेना पसंद करते हैं वो असली जायके की दुकान ढूंढ ही लेते हैं। जिस तरह हमारी पीढ़ी दर पीढ़ी चाट के व्यवसाय से जुड़ी है उसी तरह हमारे ग्राहक भी पीढ़ी पर पीढ़ी आज भी आते हैं।
” शेखर बढ़ते कामर्शिलाइजेशन से खासे नाराज दिखते हैं। उन्हें इस बात से भी काफी कोफ्त हैं कि नयी पीढ़ी चाट की जगह विदेशी फास्ट फूड और चाइनीज पर ज्यादा झुकी हुई है।…
‘पहले जब मॉल कल्चर नहीं था तो लोग शॉपिंग के लिए जब अमीनाबाद आने का मूड बनाते थे, उनकी सामान की जरूरी लिस्ट में दो डेस्टीनेशन जरूर होते थे एक केसरवानी की चाट और दूसरी प्रकाश की कुल्फी।
जामने से लोग हमारे दही बड़े और पालक की चाट के ज्यादा मुरीद हैं। वैसे अभी हमारे वहां दही बड़े, आलू की टिक्की, मटर चाट, पालक चाट, पापड़ी चाट, सुहाल, पानी के बताशे, दही चटनी के बताशे, खस्ता, करेला भी मिलता है।
हम देशी का ही इस्तेमाल करते हैं। हम अपने घर पर ही दूध की मलाई से घी तैयार करते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री के बेेटे अनिल शास्त्री, सुनील शास्त्री जो विद्यान्त कालेज में पढ़ते थे वे हमारे रेगुलर विजिटर थे।
सामजसेवी और कारोबारी बेनी प्रसाद हलवासिया, मेडिकल कालेज के न्यूरो के डा. कार के अलावा शायद ही कोई नेता होगा जिसने हमारी चाट यहां आकर या घर मंगवाकर न खायी हो।” बताते हैं शेखर।
‘पीढ़ियों से हमारे पूर्वज अपनी नयी जनरेशन को यही बताती आयी है कि प्रॉफिट चाहे कम लो लेकिन क्वालिटी से कभी समझौता न करो। आज भी हम सारे मसाले खुद परचेज करके अपने सामने पिसवाते हैं।
चाट का असली मजा तब आता है जब सारा घर इस काम में लगता है। हम छोटी छोटी बातों पर विशेष ध्यान देते हैं। आलू मटर जैसी चीजें भी काफी सख्ती से देख सुन कर लायी जाती हैं।
अगर हमें अपनी दुकान पर अच्छा सामान नहीं मिलता तो हम दूसरी दुकान से लाते हैं। पर कोई समझौता नहीं करते। अगर आपको स्वाद नहीं आयेगा तो क्या आप दोबारा आयेंगे खाने?” सफलता का राज खोलते हैं शेखर।
बताशे के आयुर्वेदिक पानी के मसाला का पैकेट ग्राहकों की जरूरत के अनुसार तैयार रहता है। पानी में मसाला घोलिए, पिसी धनिया, नीबू रस और पुदीना मिलाइये, हो गया पानी के बताशे का इंसटेंट पानी तैयार। अभी तक वो यह मसाला अपने विदेश में रहने वाले पुराने ग्राहकों को ही देते थे। वह साल भर का मसाला ले जाते हैं जब इंडिया आते हैं।…