यशोदा श्रीवास्तव
नेपाल सुप्रीम कोर्ट का बहुप्रतीक्षित सुप्रीम फैसला स्वागत योग्य है।तराई से लेकर काठमांडू वैली तक जश्न मनाकर इस फैसले का स्वागत किया गया वहीं ओली के एमाले खेमें में मायूसी का मंजर है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर नेपाली कांग्रेस के शेरबहादुर देउबा पांचवी बार पीएम पद की शपथ ले चुके हैं। उन्हें भारत समर्थक नेपाली राजनेता बताया जा रहा है।
नेपाल चुनाव सदन ने प्रस्तावित 12 और 19 नवंबर के मध्यावधि चुनाव की तिथि निरस्त कर दी है।यूं तो नेपाल की राजनीति में नेपाली कांग्रेस को अन्य दलों की अपेक्षा भारत की करीबी पार्टी की दृष्टि से देखा जाना नया नहीं है लेकिन देउबा को अब जब भारत का करीबी बताया गया तो 2018 के आम चुनाव में उनके नेपाल के हिंदू राष्ट्र की पुनर्बहाली के मुद्दे को खास तौर पर ध्यान में रखा गया।
ध्यान रहे 2016 में नेपाल को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र घोषित करते वक्त प्रचंड तत्कालीन सरकार के साथ थे,अब वे देउबा के साथ हैं।ओली को सत्ता से दूर कर इस बार देउबा को इस कुर्सी तक पंहुचाने में प्रचंड की भूमिका को दुनिया ने खुली आंखो देखा है। ऐसे में नेपाल को मजबूत लोकतंत्रिक देश के रूप में देखने वाले लोकतांत्रिक देशों की नजर देउबा सरकार मे प्रचंड की भूमिका पर होगी ।
प्रचंड 2018 के आम चुनाव के पहले देउबा के ही नेतृत्व वाले नेपाली कांग्रेस सरकार के साथ थे। आम चुनाव आया तो नेपाल भर में चर्चा थी कि नेपाली कांग्रेस और माओवादी केंद्र (प्रचंड) साथ साथ चुनाव लड़ेंगे लेकिन प्रचंड ने एमाले(ओली) से हाथ मिलाकर नेपाली राजनीति के धुरंधर समीक्षकों और विश्लेषकों को चौंका दिया।
नेपाल का यह पहला आम चुनाव बड़ा दिलचस्प था जब नेपाली कांग्रेस नेपाल के हिंदू राष्ट्र के पुर्नबहाली के मुद्दे पर चुनाव लड़ रही थी वहीं ओली का चुनावी मुद्दा खुलकर भारत विरोध का था। चूंकि प्रचंड भी ओली के साथ थे इसलिए इसे दो भारत विरोधियों का मिलन बताया गया। थोड़ा पीछे हटकर देखेंगे तो प्रचंड की राजनीतिक पृष्ठभूमि में उनका भारत विरोधी तेवर साफ नजर आएगा।
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लेकिन अब प्रचंड के भारत विरोधी रुख में थोड़ी नरमी आई है। पिछले साल जब उत्तराखंड के लिपुलेख, लिंपियाधुरा और कालापानी को लेकर ओली ने भारत के खिलाफ आग उगलना शूरू किया तब प्रचंड ने ओली की भारत के प्रति कड़े मिजाज को गलत ठहराते हुए भारत के एतराज का साथ दिया था।
अब प्रचंड अपनी भारत की नीति को लेकर कितना बदल पाए हैं,इसका आकलन कर पाना जल्दबाजी होगी लेकिन भारत विरोध के मामले में ओली अलग थलग जरूर पड़ चुके हैं। हालांकि अपनी सरकार के विदा होने के कुछ रोज पहले उन्होंने भी भारत से गलतफहमियां दूर होने की बात कहकर अपनी हठधर्मिता का प्रयाश्चित कर लिया है।
देखें तो देउबा की यह सरकार नेपाली कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार है जिसमें एमाले का भी एक खेमा साझीदार है। इस तरह पांचवी बार पीएम बने देउबा की यह सरकार नेपाली कांग्रेस समेत पांच दलों के समर्थन वाली सरकार है जिसमें जनता समाजवादी पार्टी,माधव कुमार नेपाल धड़ा वाली एमाले, प्रचंड गुट की माओवादी केंद तथा राष्ट्रीय जनमोर्चा (नेपाल) शामिल हैं।
इन पांचो दलों को प्रतिनिधि सभा के शेष करीब डेढ़ साल के कार्यकाल तक साधे रखना बड़ी चुनौती है लेकिन एक उम्मीद भी है क्योंकि देउबा के समर्थन में उनके साथ के चारों दलो के नेता अंजाम तक सुप्रिमकोर्ट में उनके साथ खड़े रहे और इन्हीं के समर्थन से वे सुप्रिमकोर्ट तक सदन में बहुमत होने की 146 सदस्यों की सूची प्रस्तुत कर सके।
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सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर केपी शर्मा ओली का पीएम की कुर्सी छोड़ना अचरज भरा रहा। उनके इतनी आसानी से कुर्सी छोड़ने की संभावना नहीं थी,क्योंकि दूसरी बार मध्यावधि चुनाव की जिद लिए सुप्रिमकोर्ट का सामना कर रहे ओली ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट को पीएम नियुक्त करने का अधिकार नहीं है।
ओली ने यह तब कहा था जब बतौर कार्यकारी पीएम उनके द्वारा नियुक्ति मंत्रियों को सुप्रीम कोर्ट ने अपदस्थ करने का निर्णय सुनाया था।दरअसल सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद ओली को उनकी सरकार के प्रति सुप्रीम कोर्ट के नजरिए का अंदाजा हो गया था।ओली का सुप्रीम कोर्ट के प्रति यह बयान उनकी बौखलाहट का प्रकटीकरण था।
इस बीच ओली को हर हाल और हर बार सेफ करने की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी की दिलचस्पी पर प्रचंड का यह कहना कि राष्ट्रपति जैसी सर्वोच्च संस्था की ऐसी बदनामी होगी,इसकी कल्पना नहीं थी,नेपाल मीडिया की सुर्खियां बनी और इस पर जमकर चर्चा हुई।
बहरहाल नेपाल के बदली हुई कथित भारत परस्त देउबा सरकार में प्रचंड की भूमिका रिमोट कंट्रोल जैसी रहने की चर्चा है, तो फिर ओली से अलग हुए एमाले के वरिष्ठ नेता माधव कुमार नेपाल,बामदेव गौतम की भूमिका क्या होगी और फिर समाजवादी जनता पार्टी के नेता उपेंद्र यादव कहां होंगे?
देउबा को संसद में विश्वास मत हासिल करने के लिए 30 दिन का समय मिला है। अभी शपथग्रहण के वक्त चार मंत्रियों ने ही शपथ ली है जिसमें प्रचंड गुट के दो मंत्रियों को जगह मिली है। उपेंद्र यादव देउबा सरकार में उपप्रधानमंत्री बनाए जा सकते हैं। इसी के समकक्ष कोई पद माधव नेपाल गुट के किसी वरिष्ठ नेता को मिल सकता है तो राष्ट्रीय जनमोर्चा का भी सरकार में सम्मान जनक स्थान होगा।
आशय यह कि देउबा सरकार भले ही पांच दलों की सरकार है, लेकिन सरकार की नेकनामी और बदनामी नेपाली कांग्रेस के ही हिस्से आएगी और यदि दूसरे आम चुनाव के पहले सरकार के डगमगाने की स्थिति उत्पन्न हुई तो इसका तोहमत प्रचंड के मत्थे आना तय है।ऐसे में देउबा,प्रचंड और अन्य सरकार समर्थक दलों की प्राथमिकता जनता को परिवर्तन की अनुभूति दिलाना होनी चाहिए।अब दूसरे आम चुनाव तक यह गठबंधन बचा रह गया तो नेपाल के मजबूत लोकतंत्र और उज्ज्वल भवीष्य के लिए उत्तम है वरना चुनाव में मतभेद मतैक्य तो बनते बिगड़ते रहते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं )