सुधीर कुमार
कोरोना काल के कई कहावतों के मायने ही बदल दिए। साकात्मक सोच वाली कहावत आपदा को अवसर में बदलने को लोगों ने अपनी स्वार्थी व सीमित सोच के चलते कलंकित कर दिया। लोगों ने आपदा में घिरे लोगों की मजबूरी का बहुत बेशर्मी से फायदा उठा और अपनी जेबें भरीं।
जैसे स्लोगनों के हर स्थिति में भले ही अलग अलग मायने होते हैं लेकिन कोरोना 2 की विनाश लीला के बाद लोगों ने अपनी सुविधा और अनुभवों को देखते हुए इसके मायने बदल दिए हैं। अब तो यह कहावत चल पड़ी है कि किसी मुद्दे को लेकर तब शोर तब मचाओ जब हालात अनुकूल हों।
इतिहास हमें बताता है महाविपत्तियां या तो युद्ध के कारण आई हैं या प्राकृतिक आपदाओं के जरिए, जिसमें बड़े पैमाने पर जनहानि हुई। लेकिन प्रभावित देश के लोगों ने अपनी अटूट राष्ट्र भक्ति और दृढ़ता का परिचय देते हुए फिर से अपने को स्थापित किया और खोयी शक्ति और राष्ट्र गौरव को पुन: प्राप्त किया। सही मायनोंं में इसको आपदा को अवसर में बदलना कहा जा सकता है।
विश्व युद्ध 2 दौरान परमाणु बम के हमले और जबरदस्त हार से राख के ढेर में तब्दील छोटा सा जापान सशक्त चरित्र का परिचय देते हुए फिर से उठ खड़ा हुआ और आर्थिक व तकनीकि क्षेत्र में सुपरपावर बना। इसके साथ ही जापान अन्य देशो के लिए विकास व उन्नत जीवनशैली की मिसाल भी बना ।
इसी तरह दूसरे विश्व युद्ध में मित्र देशों के हाथों बहुत करारी हार और निरंकुश शासक हिटलर के हाथों यहूदियों के बर्बर व्यवहार का अमिट कलंक लगने के बावजूद जर्मनी के लोगों ने जुझारू चरित्र परिचय दिया व अपने को राष्ट्र तौर पर गतिशील किया और विश्व पटल पर फिर सम्मानजनक स्थान हासिल किया। विश्व इतिहास में ये अद्वितीय उदाहरण हैं।अपने जुझारू चरित्र के नाते ही जर्मन यूरोप की सबसे सशक्त आर्थिक शक्ति बनने के साथ ही साथ यांत्रिक और ऑटोमोबाइल शक्ति बनने में कामयाब रहा।
करीब एक दशक तक चले युद्ध में अमेरिका की शर्मनाक वापसी ने वियतनाम की विपरीत परिस्थितियोंं में जमे रहने की क्षमता का लोहा पूरी दुनिया को मनवा दिया। मौजूदा समय में वियतनाम तेजी से उभरती हुई आर्थिक शक्ति होने के साथ-साथ मैन्यफैक्चरिंग हब के क्षेत्र में चीन को कड़ी टक्कर दे रहा है। मानव जाति के इतिहास में सर्वाधिक काला अध्याय माना जाने वाला ज्यूज़ होलोकास्ट भी यहूदियों के जज्बे को तोड़ नहीं सका। घूमते कालचक्र के साथ यहूदियों ने असाधारण रूप से अपने को विकसित करते हुए इजराइल को बेहद शक्तिशाली राष्ट्र, सैन्य शक्ति, बौद्धिक सम्पदा , तकनीकि और विज्ञान शक्ति के रूप में स्थापित किया। यह सब चंद प्रेरणादायी उदाहरण हैं वरना लिस्ट तो बहुत लम्बी है।
हमने भी पिछले कुछ समय के दौरान अब तक की सबसे खतरनाक महामारी को झेला है। पूरे देश ने मौतों और दुश्वरियों का जो खौफनाक मंजर देखा है उससे जनमानस हिल सा गया है। महामारी-2 कोरोना की पहली लहर से कहीं अधिक जानलेवा व घातक थी। लेकिन हम भारत के बेहद हिम्मती और उत्साही लोग मौके को भुनाने की विचारधारा में विश्वास करते हैं। इसी सोच ने कहावत ‘आपदा में अवसर को जनता में प्रचलित कर दिया।
जैसेे ही कोरोना महामारी ने भारत में पैर पसारने शुरू किए ज्यादातर बड़े और जनता में स्थापित नेता नदारद हो गए, जबकि उनकी मौजूदगी कराह रही जनता के जख्मों पर मरहम लगा सकती थी।
निजी अस्पतालों में फर्जी मरीजों के नाम पर बड़ी संख्या में बिस्तर भर दिए गए, जिससे बेहद गंभीर रूप से बीमार लोगों को समय पर इलाज नहीं मिला। नतीजतन बड़ी संख्या में कोरोना मरीजों की मौत हो गई। निजी अस्पतालों में केवल अमीर और प्रभावशाली लोगों की ही सुनी जा रही थी।बाजार में जरूरी दवाएं नदारद थीं। गंभीर रोगियों के लिए प्राणरक्षक माने जाने वाला रेेमडिसीवर (6 इंजेक्शन) एक-एक लाख से अधिक कीमत में मिले, जबकि सामान्य रूप से यह 5-6 हजार में मिल जाते थे। प्राण रक्षक स्टेरायड आईजीआईवी कई-कई लाख रुपए की आसमान छूती कीमतों पर मिल रहे थे। ऑक्सीजन सिलेंडर और ऑक्सीजन कंसंट्रेटर तो मनमाने दामे पर बेचे जा रहे थे। सभी अमीर और प्रभावशाली लोगों में आवश्यक सामान व दवाओं की जमाखोरी करने की होड़ लगी थी।
निजी अस्पताल का रवैया भी बेहद संवेदनहीन दिखाई पड़ा। इलाज के नाम पर अनाप शनाप वसूली की गई। कहीं-कहीं तो आर्थिक रूप से सक्षम लोगों के लिए भी अस्पतालों के बिल भारी पड़ गए। आम आदमी को तो कोई पूछने वाला भी नहीं था। आईसीयू या सीसीयू में भर्ती मरीजों को पीपीई किट पहन कर देखने आने वाले डॉक्टर एक बार की फीस 5000 रुपए तक ले रहे थे। इस तरह से केवल पीपीई किट के नाम पर निजी अस्पतालï लाखों रुपए की कमाई कर रहे थे। प्लाजमा चढ़ाने की फीस अनाप शनाप ली जा रही थी। इसके अलावा मरीजों के बिलों में मनमानी मदों के तहत चार्जेज लगाए जा रहे थे।
यह सब अनैतिक कार्य तो अवैध वसूली की श्रेणी में माने जाने चाहिए। एक अनौपचारिक सर्वेक्षण के अनुसार ठीक ठाक अस्पताल में मरीज का एक दिन का खर्च करीब 50,000 से 75,000 रुपए तक था। लेकिन अस्पताल का स्टाफ मरीज के परिजनों या तीमारदारों को मरीज की स्थिति के बारे में या लाइन ऑफ ट्रीटमेंट के बारे में जानकारी नहीं देता था। कहीं-कहीं मरीज के परिजनों के साथ दुव्र्यवहार की भी शिकायतें मिलीं हैं। मरीजों के इलाज में जुड़े सभी लोग पैसा कमाने की होड़ में लगे थे।
सोशल मीडिया भी इस अवसर को भुनाने में लगा था। घर पर ही आईसीयू बनाने व प्रशिक्षित नर्सिंग- पैरा मेडिकल स्टाफ व अन्य सुविधाएं य दिलाने के खूब विज्ञापन आ रहे थे। उनकी फीस भी ज्यादा थी और एडवांस पेमेंट पूर्व शर्त थी। तमाम भोले भाले लोगों को इन विज्ञापनों के झांसे में आकर खासा नुकसान भी हुआ । लेकिन मेडिकल एसोसिएशंस व ऐसी जिम्मेदार संस्थाएं मूक दर्शक बनी रहीं। संस्थाओं ने निजी अस्पतालों, लैब और डायग्नोस्टिक सेंटर के हितों की रक्षा करने में ही अपनी उर्जा लगाई। एम्स के निदेशक की तरफ सीटी स्कैन से बचने की सलाह पर मेडिकल एसोसिएशंस ने हो हल्ला मचाया था।
स्वदेशी का बढ़चढ़ कर समर्थन करने व बहुत मामूली फायदे पर काम करने वालों ने भी इम्यूनिटी बूस्टर के नाम पर पुरानी दवाओं के नाम बदलकर और उनको नई पैकिंग में दाम बढ़ाकर बाजार में उतार दिया। कहते हैं इस कंपनी ने कोरोना काल में हजारों करोड़ रुपए अपनी झोली में अंदर कर लिए। हालांकि इस कंपनी की दवाओं की प्रभावोत्पादकता (एफीकेसी) या मेडिसिनल वेल्यू की जानकारी सार्वजनिक प्लेटफार्म में नहीं है।
कोरोना प्रभावित परिवारों की व्यथा कथा यहीं खत्म नहीं हो जाती । दुर्भाग्यवश यदि कोरोना पीडि़त की मौत हो जाती है तो यहां से आपदा में अवसर की नई कहानी शुरू होती है। जब तक बकाया बिलों का पूरा भुगतान नहीं हो जाता तब तक निजी अस्पताल शव परिजनों को नहीं सौंपते। मार्चरी में रखे शवों की पहचान करने और उनको हासिल करने के लिए संबंधित व्यक्ति को सुविधा शुल्क चढ़ाना पड़ता है। एम्बुलेंस वालों ने भी मजबूरी का फायदा उठाते हुए बेहिसाब वसूली की। अंतिम संस्कार के लिए लोगों को शवदाह स्थलों पर लंबी – लंबी लाइनों मेंं लग कर इंतजार करना पड़ा। जलती चिताओं की तस्वीरें हमें डरावनी फिल्मों के सीन की याद दिलाती हैं। अगर किसी को जल्दी काम कराना है तो उसके भी वहां खुले रेट थे। सर्विस प्रोवाइडर जैसे धंधे भी शुरू हो गए थे। दाह या अंतिम संस्कार कराने वाले पंडों से लेकर अंतिम क्रिया कराने की पैकेज डील होने लगी थी। संस्कार में लगने वाली लकङ़ी आदि सबकुछ पैकेज डील में उपलब्ध थी, लेकिन सवभाविक रूप से कहीं अधिक कीमत पर। यही नहीं यदि किसी शव को कंधा देने के लिए लोग पूरे नहीं जुट पा रहे तो इसके लिए भी किराए पर लोग मिल जा रहे थे।
बड़े पैमाने पर अचानक हुई मौतों और अंतिम क्रिया में होने वाले खर्चो में बेहिसाब बढ़ोत्तरी से शवो को नदी में विसर्जित करने या नही के किनारे दफनाने के लिए परिजनों को मजबूर होना पड़ा। घाटों पर जलती चिताओं नदीं में उतरातीं लाशों व जल्दबाजी मेÓ किनारे पर दफनाए शवों की भयावह तस्वीरे रोंगटे खड़ी करने वाली थीं। इन स्थितियों ने प्रशासनिक प्रबंधतंत्र की पोल खोल कर रख दी।इन तस्वीरों को विश्व मीडिया में छपने के बाद हमारा सिर शर्म से झुक गया।
इस निराशापूर्ण माहौल में कुछ उम्मीद की किरणें भी नजर आयीं। बड़े पैमाने पर गैर सरकारी संगठन और स्वैच्छिक संस्थाएं पीडि़त परिवारोंं की मदद के लिए आगे आयीं। स्थानीय गुरुद्वारों ने ऑक्सीजन लंगर लगाए जिससे पडि़त परिवारों को बहुत राहत मिली। कहीं कहीं आईसीयू बेड से लैस अस्थायी अस्पलात भी बनाए गए। जरूररतमंद लोगों के लिए मुफ्त भोजन की व्यवस्था पैड़े पैमाने पर की गई थी। मुफ्त एम्बुलेंस सेवा भी कई जगह शुरू हुई। अंतिम संस्कार के लिए भी व्यवस्थाएं दुरुस्त की गईं। लेकिन इस दौरान जो अपूर्णनीय क्षति हुई और जो भयावह तस्वीरें जहन में बैठ गई हैं उनसे उबर पाना आसान नहीं है।
सरकारी मशीनरी अगर सही समय पर सतर्क होकर मैदान में उतर जाती तो मौतों की सख्या घटायी जा सकती थी। अस्पतालों में बेड, दवाओं आौर ऑक्सीजन सिलेंडरों की उपलब्धता को सख्ती से मॉनीटर किए जाने की जरूरत थी। अंतिम क्रिया स्थलों पर इंतजाम और वयवस्थित किए जाने की जरूरत थी। शवदाह के लिए लकडिय़ों के पर्याप्त इंतजाम होना चाहिए था। अस्पताल के बिलों का औचक ऑडिट भी समय समय पर होना चाहिए था।
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हम अपनी गलतियों से सबक लेते हैं, इसी तरह एक समाज और देश भी सीखता है। हर तरह का संकट व्यक्ति को मजबूत बनाता है, उसी तरह आपदाएं या विपत्तियां राष्ट्रीयता की भावना को मजबूत करती हैं। अब समय है आत्ममंथन का और भारत को राष्ट्र के तौर पर रोल मॉडल बनाने के लिए एकजुट होने का। हमारे देश में असीमित क्षमता है। पर क्षमता का भरपूर दोहन तभी संभव है जब हमारे नेता अपने नेतृत्व में हमको सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करें। आईए देश को बेहतर बनाने के लिए हम सब शपथ लें और जापान-जर्मनी जैसे देशों का अुनसरण करते हुए विपत्ति को अवसर में बदलें ।
देश भौगोलिक की दृष्टि से जमीन का एक टुकड़ा नहीं है, बल्कि हम लोग मिलकर इसको देश बनाते हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार है )