अम्बिका नंद सहाय
उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव हालांकि अभी नौ महीने दूर है लेकिन राजनीतिक चौसर पर सभी दल गोटियां बिछाने लगे हैं। राजनीतिक मैदान में धारणा और हकीकत के बीच रोचक जंग छिड़ी है। राजनीतिक पंडित भी इस रोचक जंग अपने-अपने तर्कों के साथ सक्रिय हैं।
बेशक, अगर लोगों में पनप रही धारणा पर नजर डालें तो सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी तीन कारणों से जबर्दस्त दबाव में दिख रही है। सर्वप्रथम, जो लोग, चाहे वे शहर के हों या ग्रामीण इलाकों के, कोरोना महामारी की चपेट में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर आए हैं उनका प्रशासन से करीब करीब मोहभंग हो गया है। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान लोगों ने अस्पतालों से लेकर श्मशान घाटों तक जो नजारा देखा है उसमें राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र का बहुत विकृत चेहरा नजर आया है। लोगों ने अपने को बहुत लाचार महसूस किया है।
सभी वर्ग-जातियों -धर्म को मानने वाले एक तरफ से अगर बहुत आक्रोशित हैं तो यह उनका कोई पूर्वाग्रह या गलती नहीं है। केंद्र की सरकार हो या राज्य सरकार जनता के घावों पर मरहम लगाने में नकाम रहीं हैं। निर्विवाद रूप से सम्पूर्ण समाज ने सरकारी मशीनरी को चरमराते देखा है।
दूसरा दवाब का कारण यह भी है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को दोतरफा हमलों का सामना कर पड़ रहा है। सूत्रों की माने तो योगी की कार्यशैली भाजपा के कई केंद्रीय नेताओं को रास नहीं आ रही है। वहीं योगी को राज्य में भाजपा के ही कई विधायकों की नाराजगी का भी सामना करना पड़ रहा है। राजनीतिक गलियारों में सक्रिय लोग भी इस बात को मानते हैं कि हाल के दिनों के संकट से योगी आरएसएस की मदद से ही सम्मानजनक तरीके से बाहर निकलने में कामयाब हो पाए हैं।
राष्ट्रीय मुख्यधारा के मीडिया ने भले ही ए.के. शर्मा के मुद्दे को अधिक तरजीह नहीं दी हो लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति पर बारीकी से नजर रखने वाले भली भांति जानते हैं कि गुजरात के नौकरशाह से राजनेता बने और प्रधानमंत्री मोदी के बहुत खास श्री शर्मा को राज्य भाजपा में महज उपाध्यक्ष का पद क्यों और कैसे दिया गया। हालांकि यह भी कल्पना से परे है कि जिस नेता पर भाजपा हाईकमान का वरदहस्त है उसको पार्टी का मुख्यमंत्री पूरी तरह से खारिज कर दे। नि:संदेह लखनऊ में जमीनी स्तर पर आम जनता तो इसी धारणा को सही मान रही है। वैसे इसके पीछे की सही कहानी क्या है कोई नहीं जानता। और कोई इस जटिल सत्य को जान भी कैसे सकता है जिस पर न तो मुख्यमंत्री ने आज तक एक शब्द बोला हो और भाजपा हाईकमान ने भी पूरी तरह से चुप्पी कायम रखी है।
भाजपा और योगी के खिलाफ जाने वाला तीसरा कारण है हाल में पंचायत चुनाव में भाजपा का खराब प्रदर्शन। पंचायत चुनाव के नतीजों ने योगी सरकार के खिलाफ बनी नकारात्मक छवि को और मजबूत किया है। वास्तव में पंचायत चुनाव का विश्लेषण किया जाए तो समाजवादी पार्टी ने कहीं बेहतर प्रदर्शन किया है।
लेकिन यदि इन नतीजों को आधार माना जाए तो क्या भाजपा का अगला विधान सभा चुनाव हारना तय है? क्या मौजूदा धारणा या छवि को आधार बनाकार विस चुनाव के किसी निश्चित नतीजों पर पहुंचा जा सकता है?
जवाब है संभवत: नहीं। क्यों ?
इन जटिल सवालों के जवाब तक पहुंचने के लिए हमें चारों मुख्य दलों का ‘स्वॉट एनालिसिस’ करना पड़ेगा। इसके साथ ही साथ हमको दो बेहद प्रासंगिक सवालों पर मिलने वाले विचारों पर भी नजर रखनी पड़ेगी। पहला सवाल है क्या धार्मिक उन्माद या धामिक आधार पर वोटों का बंटवारा जातिवाद पर आधारित मतदान की परम्परा को फिर ध्वस्त कर देगा। और दूसरा विभाजित विपक्ष भाजपा के लिए किस हद तक मददगार साबित होगा।
सबसे पहले हमको 136 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी की ताकत का आंकलन करना चाहिए। कांग्रेस पार्टी की स्थिति इस समय गंभीर रोगी जैसी है। मौजूदा कांग्रेस में पार्टी के शानदार गौरवकाल की रत्ती भर झलक भी नहीं दिखती। जब कोई चुनाव आता है कांग्रेस को नई आक्सीजन या ताकत की जरूरत पड़ती है। इस बार समस्या है कि कांग्रेस को चुनाव मैदान में अकेले ही संघर्ष करना पड़ रहा है। अभी तक किसी ने कांग्रेस से तालमेल करने की बात नहीं की है।
सपा और बसपा दोनों ने साफ कर दिया है कि अगला विधान सभा चुनाव अकेले लड़ेंगी। इस बात आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर कांग्रेस विधान सभी 403 सीटों पर जुझारू प्रत्याशी भी उतार न पाए। यह भी याद रखना चाहिए जब 2017 के चुनाव में समाजवादी पार्टी के मिलकर लडऩे के बावजूद कांग्रेस को महज 7 सीटें ही मिलीं थीं। पूरी संभावना है कि कांग्रेस इस बार भी दयनीय चौथे नम्बर पर रहेगी।
मायावती की बहुजन समाज पार्टी की 2012 के चुनाव से शुरू हुई गिरावट थमने का नाम नहीं ले रही। कांशीराम ने आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों और दलित वोट बैंक को एकजुट किया था अब वह कहीं नजर नहीं आता। पश्चिम उत्तर प्रदेश में भी दलित वोट र्बैक में बिखराव आया है। मौजूदा समय में जाटवों का कुछ हिस्सा ही बसपा साथ है। इन्हीं तथ्यों को देखने से लगता है कि बसपा अगल विस चुनाव में तीसरे नम्बर से आगे नहीं जा पाएगी। मायावती के लिए सत्ता में वापसी की एक संभावना बनती है यदि चुनाव के बाद त्रिशंकु विधान सभा आए। ऐसी स्थिति में मायावती किंग मेकर बन जाएं। त्रिशंकु विधान सभा की स्थिति में किसी को इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मायावती एक बार फिर भाजपा को समर्थन दे दें।
यह समय उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिए मुख्य चुनौती बन समाजवादी पार्टी की स्थिति के आकलन करने का भी है। महंगाई, बेरोजगारी किसान आंदोलन और कोरोना महामारी के दौरान फैली अराजकता ने जनता में भाजपा सरकार के खिलाफ गुस्से को खासा बढ़ाया है। सपा मुखिया अखिलेश यादव ने युद्ध के मैदान में तलवार भांजना शुरू कर दिया है।
अखिलश दावा कर रहे हैं कि अगले विधान सभा चुनाव में समाजवादी पार्ट 403 में से 351 सीटें जीत कर इतिहास रचेगी। हो सकता है यहां पर अखिलेश अतिमहत्वाकांक्षी लग रहे हों , लेकिन यह फिजा बनाने में कामयाब हो गए हैं कि 2022 के विधान सभा द्विध्रुवीय होंगे। चुनाव में सीधा मुकाबला भाजपा और सपा में होगा।
जैसे- जैसे प्रदेश चुनाव की तरफ बढ़ रहा है जनता में यह धारणा और मजबूत होती जा रही है। धीरे-धीरे पुख्ता हो रही यह धारण दो कारणों से समाजवादी पार्टी लिए फायदेमंद है। एक तो मुस्लिम वोट बैक एकमुश्त होकर समाजवादी पार्टी के पाले में जा सकता है, और दूसरी ओर हिन्दुओं में भाजपा विरोधी मतदाता के पास अन्य दलों की कमजोर स्थिति को देखते हुए सपा के साथ जाने के अलावा कोई अन्य विकल्प नही बच रहा है। यहां पर एक बात गौर करने वाली है वोटों की इस रोचक जंग में मायावती को भाजपा को अप्रत्यक्ष सहयोगी माना जा रहा है।
चुनावी जंग में भाजपा के स्थिति का आंकलन किया जाए तो कई बिंदुओं पर गौर किया जाना चाहिए। भाजपा में चल रही अंदरूनी कलह के अलावा कोरोना महामारी के दौरान सरकारी तंत्र की घोर विफलता और सत्ता विरोधी लहर के बावजूद एक बात पूरी तरह से स्पष्ट है कि योगी की छवि ईमानदार प्रशासक की है। लोग योगी की राजनीति करने के तरीके का समर्थन या विरोध कर सकते हैं लेकिन योगी के ईमानदार होने पर किसी को कई शक नहीं है।
सार्वजनिक जीवन में ईमानदार होने की छवि बहुत मायने रखती है, और यदि मामला चुनाव का हो तो इसका महत्व और बढ़ जाता है। इन सब तथ्यों के बावजूद भाजपा चुनाव मैदान में एकजुटता दिखाने के लिए दिन रात एक किए हुए है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी योगी के समर्थन में मैदान में जम गया है। संघ यह सुनिश्चित करना चाहता है कि आगामी विधान सभा चुनाव और संभवत: उसके आगे के चुनाव योगी के नेतृत्व में ही लड़े जाएंगे।
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नि:संदेह केंद्र और राज्य में भाजपा सरकारों की छवि को खासा धक्का लगा है। साथ ही इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है अपेक्षाकृत कमजोर नरेंद्र मोदी अभी भी अपन प्रतिद्वंद्वियों से बहुत आगे हैं। विभिन्नय सर्वेक्षणों की माने तो लगभग 60 फीसदी स्वीकार्यता रेटिंग के साथ मोदी मजबूती से डटे हैं। उत्तर प्रदेश में मोदी की यही छवि चुनाव मे बहुत निर्णायक साबित होगी।
घारणा और जमीनी हकीकत के इस चुनाव में अभी बहुत कुछ होना है। यह तो आपको तय करना कि प्रचलित धारणा के साथ चलना है या जमीनी हकीकत पर भरोसा करना है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)