Tuesday - 29 October 2024 - 10:31 AM

चमक खोते ब्रांड मोदी और यूपी में बढ़ती चुनौती से कैसे निपटेगी भाजपा

डॉ. उत्कर्ष सिन्हा

पहले बंगाल में करारी शिकस्त और फिर यूपी में मची उथलपुथल के बाद बीते 7 साल से अश्वमेध का घोडा दौड़ा रही भाजपा पहली बार कुछ ठिठकी सी नजर आ रही है।

7 साल पहले के नज़ारे को याद करें । 2014 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी एक ऐसे विजेता बन कर उभरे जिसे चुनौती देने वाला भारतीय राजनीति में कोई नहीं दिखाई दे रहा था। लार्जर देन लाईफ वाली चमत्कारी छवि के जरिए मोदी ने न सिर्फ लोकसभा जीती बल्कि एक के बाद एक राज्यों में भी भगवा परचम फहराया। एक वक्त तो ऐसा भी आया जब चुनिंदा राज्यों को छोड़ कर करीब करीब तीन चौथाई देश में भाजपा सत्ता पर काबिज हो चुकी थी।

लेकिन राजनीति के रंग बदलते देर नहीं लगती। 7 सालों के भीतर भाजपा के हाँथ से महाराष्ट्र,राजस्थान, छतीसगढ़, झारखंड और पंजाब जैसे राज्य निकाल गए और मध्यप्रदेश हारने के बाद किसी तरफ से दलबदल का सहारा ले कर भाजपा फिर से सत्ता में आ सकी। दूसरे प्रमुख राज्यों की बात करें तो फिलहाल भाजपा के पास उत्तर प्रदेश, कर्नाटक,असम,हरियाणा,और गुजरात ही बचे हैं, इनके अलावा उत्तराखंड और हिमाचल के अलावा कुछ दूसरे छोटे राज्य ही हैं। बिहार में भाजपा छोटे भाई की भूमिका के साथ एक इसे सरकार का हिस्सा है जिसके स्थिर होने पर समय समय पर संदेह जताया जाता रहा है।

इन सब घटनाक्रमों से ब्रांड मोदी को बड़ा धक्का लगा और रही सही कसर बीते दिनों हुए पाँच राज्यों के चुनावों में मिली हार ने पूरी कर दी, जहां भाजपा सिर्फ असम में सरकार बना सकी और कांग्रेस के टूटे विधायकों के साथ पांडिचेरी में वो सत्ता की साझीदार हुई। तमिलनाडु और केरल की हार ने दक्षिण भारत में भगवा फहराने की हसरत एक बार फिर नाकामयाब हुई।

एक के बाद एक विधानसभाओ के हारने के बाद नरेंद्र मोदी की अपील और अमित शाह के प्रबंधन पर सवाल उठने लाजमी हैं। एक साल पहले तक जिस मोदी के सामने कोई चुनौती नहीं दिखाई दे रही थी और यहाँ तक कि भाजपा पर नियंत्रण रखने वाले आरएसएस को भी कई बार खामोश रहना पड़ जाता था, अब पार्टी के भीतर से भी क्षत्रापो की चुनौतियां भी मिलने लगी हैं।

आइए अब यूपी के बारे में बात करते हैं।

यूपी में अगले साल की शुरुआत में ही विधानसभा के चुनाव होने है और पार्टी के भीतर सबकुछ ठीक नहीं होने के संकेत सियासी आसमान पर साफ दिखाई दे रहे हैं।

बीते 20 दिन पूरे देश की निगाहें उत्तर प्रदेश पर टिकी रही जहां इस बात को ले कर चर्चा तेज हो गई थी कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह के साथ सीएम योगी आदित्यनाथ के रिश्तों में कुछ तल्खी आ गई है। हालांकि पार्टी के नेता इस बात  को सार्वजनिक तौर पर भले ही नकारते रहे मगर जिस तरह से यूपी में केन्द्रीय आलाकमान के नेताओं और संघ के बड़े नेताओं का लगातार आना शुरू हुआ संगठन के भीतर से मुख्यमंत्री के साथ समन्वय की कमी की खबरे लीक होने लगी थी वो इस बात की ओर पुख्ता इशारा कर रही थी कि कहीं तो कुछ है जिसका मैनेजमेंट किया जा रहा है।

यूपी की जमीनी राजनीति पूरी तरह से जातीय समीकरणों पर टिकी हुआई है इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता। 2017 के चुनावों में भाजपा की जबरदस्त जीत के पीछे ओबीसी में शामिल प्रमुख जातियों का भरपूर समर्थन मिलना ही था। लेकिन सरकार बनने के बाद पार्टी के प्रमुख पिछड़े नेताओं और जातीय आधार पर दल चलाने वाले गठबंधन की पार्टियों ने उपेक्षा की शिकायत तेज कर दी।

मामला इतना बढ़ा कि गठबंधन के एक प्रमुख नेता ओम प्रकाश राजभर ने सरकार से इस्तीफा दे दिया और खुद को गठबंधन से अलग कर लिया। निषाद पार्टी के प्रमुख संजय निषाद और अपना दल की नेता अनुप्रिय पटेल भी अपनी उपेक्षा से नाराज हुए ।

अब जब चुनाव सामने आ गए हैं तो पार्टी को पिछड़े वोटों की चिंता सता रही है और इसीलिए बीते हफ्ते अनुप्रिय पटेल और संजय निषाद ने केंद्र और राज्य में मंत्रिपद मांगने का दबाव भी बढ़ा दिया है।

दूसरी तरफ पार्टी के पिछड़े वर्ग से आने वाले विधायक भी नाराज है। इनमे से करीब 45 विधायकों ने पार्टी छोड़ने का मन भी बना लिया है।

सूबे के ताकतवर माने जाने वाले ब्राहमन वोटरों ने भी भाजपा से अपनी नाराजगी खुल कर जाहिर की है । कई विधायकों ने अपरोक्ष रूप से सरकार पर जातिवादी होने और ठाकुरों की सरकार होने का भी आरोप लगाया।

रही सही कसर पंचायत चुनावों में पार्टी के खराब प्रदर्शन ने निकाल दी। पश्चिम यूपी के ताकतवर जाट वोटरों ने किसान आंदोलन के कारण भाजपा का विरोध किया।

भाजपा की चिंता अनायास नहीं है । ब्राह्मण,ओबीसी और गैर जाटव दलित जातियों ने अगर अपना रुझान बदल दिया तो भाजपा को 100 सीटों का आंकड़ा पाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। यही वो वोट बैंक है जिसने 2014 से 2017 तक भाजपा के प्रचंड विजय की राह बनाई थी।

इस बीच ये भी खबर आ रही है कि आरएसएस ने तय किया है कि राज्यों के चुनावों में नरेंद्र मोदी की सक्रियता काम की जाएगी। यदि ये सच हुआ तो पार्टी को और भी नुकसान होने की संभावना बढ़ जाएगी क्योंकि ऐसे वोटर भी बड़ी संख्या में हैं जो ब्रांड मोदी से अति प्रभावित रहे हैं।

कोरोना संकट, बढ़ती बेरोजगारी, और बढ़ती महंगाई के साथ बिगड़ती सोशल इंजीनियरिंग और कमजोर पडते ब्रांड मोदी के बीच ब्रांड योगी कितनी सफलता दिला पाएगा ये भी भविष्य के गर्भ में है।

 

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