- पहले सत्ता में बैठे नाकाबिल लोग तो हटें
यशोदा श्रीवास्तव
पांच प्रदेशों के चुनाव परिणाम पर गौर करें तो प.बंगाल विधानसभा चुनाव में टीएमसी की जीत के आगे शेष चार प्रदेशों के चुनाव परिणाम पर जनता का ध्यान न के बराबर है।
हां चुनाव व राजनितिक विश्लेषक चुनावी राज्यों में कांग्रेस को ऐसे ढूंढ रहे हैं जैसे कभी दिल्ली के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को ढूंढा करते थे। वे भूल रहे हैं कि प.बंगाल का चुनाव केंद्र सरकार, भाजपा की जंबो फौज और हवाई चप्पल वाली एक अकेली महिला के बीच था।
हां! प.बंगाल विधानसभा चुनाव में ममता के चुनाव प्रबंधक पीके की साफगोई की दाद देनी होगी। उन्होंने ममता के चुनाव हारने की आशंका कभी नहीं जाहिर की लेकिन बीजेपी के बढ़त को इग्नोर भी नहीं किया।
यूं तो असमंजस में वे भी थे लेकिन यह भी कहते रहे कि बीजेपी यदि दो अंको से ज्यादा पर आ गई तो उन्हें शायद अपनी यह दुकानदारी बंद करने को सोचना पड़े। दरअसल प.बंगाल के चुनाव में उनकी पारखी नजर उन वोटरों पर थी जो हैं तो गैर बंगाली लेकिन बस गए हैं प.बंगाल में।
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इन गैर बंगाली वोटरों की संख्या करीब एक करोड़ है और कहना न होगा कि प.बंगाली के कोने कोने में छिटके यही गैर बंगाली मतदाता वहां मोदी और अमित शाह की रैलियों की शोभा बन रहे थे।
मोदी शाह की रैली में उमड़ रहे इन मतदाताओओं ने बंगाल के चुनावी रुख को सशंकित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और शायद यही कारण था जो पीके को बीजेपी की महज तीन चार सीटों वाली बंगाल में टीएमसी को कड़ी टक्कर देने का भय लगा।
चुनाव परिणाम पर गौर करें तो साफ दिखता है कि प.बंगाल में इस बार का चुनाव बंगाली और गैर बंगाली के बीच का था। ममता बनर्जी के इस हैट्रिक के पीछे इस वजह को इग्नोर नहीं किया जा सकता।
बता दें कि ये गैर बंगाली वोटर बंगाल के चुनाव में लेफ्ट के खिलाफ कांग्रेस के वोटर हुआ करते थे। इस बार कांग्रेस का लेफ्ट के साथ आ जाने से वे अपना मूड बदल चुके थे। बंगाल के मतुआ समुदाय को अपनी ओर खींचने की मोदी और शाह की जादुई अंदाज से भी स्थिति असमंजस की थी।
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बीजेपी भी इस उपकार का बदला चुकाने में जरा भी देर नहीं की।अपने इस कृपापात्र चुनाव आयुक को अवकाश ग्रहण के दूसरे ही दिन गोवा का गवर्नर बना दिया गया।
प.बंगाल का चुनाव परिणाम अपेक्षाकृत ममता के चुनाव प्रबंधक पीके के भविष्य वाणी के अनुरूप ही आया। उनलोगों को धक्का लगा होगा जो पीके की दुकान बंद होने की आश लगाए बैठे थे।
अब इसी क्रम में उन राजनीतिक विश्लेषकों पर भी दो शब्द जो प.बंगाल के चुनाव में कांग्रेस को ढूंढ रहे हैं। हैरत है कि ये सिजनल विश्लेषक अभी भी कांग्रेस को अपने पुराने चश्मे से देखने से बाज नहीं आ रहे।
आज की कांग्रेस प्रियंका और राहुल की कांग्रेस है जिनकी प्राथमिकता में सत्ता हासिल करना नहीं सत्ता में बैठे नाकाबिलों का हटाना है। प.बंगाल में कांग्रेस चाहती तो दस पाच सीटों के साथ टीएमसी का हिस्सा बन सकती थी लेकिन हासिल क्या करती? लेफ्ट प.बंगाल में अभी भी अकेले लड़कर चुनाव परिणाम प्रभावित करने की हैसियत में है।
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सपा कांग्रेस का गठबंधन बुरा नहीं था लेकिन जहां जहां कांग्रेस नहीं लड़ी,उसके अपने वोटर बीजेपी में चले गए।और ऐसा ही सपा के परंपरागत वोटरों ने भी किया।वरना 325 सीटें बीजेपी के हिस्से में आने का कोई आधार नहीं था।
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कांग्रेस शायद अब आगे किसी भी चुनाव में यह गलती न दोहराए। प.बंगाल में जो लोग कांग्रेस को ढूंढ रहे हैं, उन्हें कांग्रेस की इस रणनीति को समझना होगा। अब वे हतप्रभ हैं।
बीजेपी सत्ता में आती तो वे ढोल मजीरा बजाकर इसका ठीकरा कांग्रेस कम राहुल प्रियंका पर फोड़ने से बाज नहीं आते,अब बीजेपी सत्ता में नहीं आई तो वे वहां कांग्रेस को ढूंढ रहे हैं? मोदी शाह की बड़ी जीत यही है कि प.बंगाल में गैर बंगाली वोटरों के बदौलत बीजेपी पहले की अपेक्षा कई गुना सीटों के साथ मजबूत विपक्ष में आ गई।
अब बात करते हैं तमिलनाडु की।यहां कांग्रेस का एलायंस भारी बढ़त के साथ सत्ता में वापसी कर रहा। कांग्रेस को यहां नहीं ढूंढा जा रहा है? केरल में कांग्रेस की गति पर आंसू बहाने वाले,यह तो जान लेते कि वहां लेफ्ट के साथ लड़ने पर बीजेपी एलायंस को सत्ता में आने से रोकना आसान नहीं था।
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लेफ्ट और कांग्रेस का प.बंगाल में एक होकर लड़ने से जिस तरह बीजेपी को सत्ता में आने से रोकने में कामयाबी मिली,उसी पैटर्न पर केरल में दोनों के अलग लड़ने से बीजेपी को रोक पाने में लेफ्ट और कांग्रेस कामयाब हुए।
असम का चुनाव परिणाम कांग्रेस के लिए ठीक नहीं रहा फिर भी पहले की अपेक्षा उसने अपनी सीटों में सम्मानजनक इजाफा किया है। यहां कांग्रेस से चूक हुई,उसे इसकी समीक्षा करनी होगी।
पाड्डूचेरी में बीजेपी ने सारी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी थी जैसा उसने एमपी में कमलनाथ सरकार को गिराने के बाद 28 सीटों के उपचुनाव पर लगा दिया था।30 सदस्यीय विधानसभा वाले इस छोटे प्रदेश में भी सत्ता के लिए बीजेपी को क्या क्या नहीं करना पड़ा?