डा. रवीन्द्र अरजरिया
लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ विकेन्द्रीकृत व्यवस्था की स्थापना से जुडा है। सत्ता से लेकर विकास के मापदण्डों तक यही सिध्दान्त लागू होना चाहिए ताकि समाज के आखिरी छोर पर बैठे व्यक्ति तक सुविधायें और संसाधनों की सीधी पहुंच हो सकेगी।
लगभग 138 करोड नागरिकों वाले देश में संवैधानिक व्यवस्थायें निरंतर पतन की ओर जा रहीं है। समानता के अधिकार की दुहाई देने वाले तंत्र को शक्तिशाली के हाथों गिरवी रख दिया गया है।
शक्ति का बहुमुखी स्वरूप कभी जुटाई गई धनशक्ति के रूप में सामने आता है तो कभी बुलाई गई जनशक्ति के रूप में। अधिकार शक्ति तो इन दौनों शक्तियों पर भारी है जो व्यवस्था से लेकर सुविधाओं तक को केन्द्रीकृत करती जा रही है। महानगरों के निवासियों को दी जाने वाली सुविधायें हमेशा से ही ग्रामीणों को मुंह चिढाती रहीं हैं। व्यवस्था को नियंत्रित करने वाली संस्था और संस्थान महानगरों में ही स्थापित हो रहे हैं।
आश्चर्य तो तब होता है जब आयुर्वेद पर शोध करने वाले देश के सबसे बडे संस्थान की स्थापना व्यस्ततम शहर दिल्ली में होती है। आयुर्वेद की दुर्लभ विधायें आज भी छत्तीसगढ के आदिवासी इलाकों में जीवित हैं।
वनौषधियों की जो ज्ञान वहां के अनपढ आदिवासियों को परम्परागत ढंग से हस्तांतरित हुआ है, वह अंग्रेजी में लिखी पुस्तकों में नहीं मिल सकता। वहां के दुर्गम इलाके में रहने वालों को भी एलोपैथी अस्पतालों में जाने हेतु बाध्य किया जा रहा है।
संस्थागत प्रसव की अनिवार्यता की जा रही है। जडी-बूटियों से निर्मित औषधियां हाशिये पर पहुंचाई जा रहीं है जबकि विदेशी दवा कम्पनियां इन्हीं आदिवासियों के मध्यम से घातक रोगों की उपचार पध्दति प्राप्त करके अपने ट्रेडमार्क के साथ उनके ही देश में मनमाने दामों पर बेच रहीं है।
ऐसे में समाज की मुख्य धारा से अलग-थलग पड चुके आदिवासी इलाकों में यदि आयुर्वेद पर शोध करने वाले बडे संस्थानों की स्थापना होती तो संस्थान को व्यवहारिक लक्ष्य की प्राप्ति होती और उस पिछडे क्षेत्र का विकास भी होता। वहां रोजगार के अवसर उपलब्ध होते। वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं के अतिआधुनिक दृष्टिकोण के साथ मिलकर देश की परम्परागत चिकित्सा पध्दतियां एक नये रूप में सामने आती।
प्राकृतिक चिकित्सा पर अनुसंधान करने हेतु एक विस्त्रित परियोजना का मुख्यालय भी देश की राजधानी में ही बनाया गया है। बीएसएनएल की सभी इकाइयों को नियंत्रण करने वाला प्रधान कार्यलय पूना में स्थापित किया गया है।
ऐसे अनेक उदाहरण है जिन्हें रेखांकित किया जा सकता है। देश को विकास देने वालों की दृष्टि जब तक महानगरीय सीमा से नहीं हटेगी तब तक वास्तविक विकास की परिभाषा स्थापित नहीं हो सकेगी।
आज देश के 6,28,221 गांवों पर चन्द शहर भारी हैं। उन शहरों की स्थितियां ही मूल्यांकन का आधार होतीं है। ऐसे में उन महानगरों की ओर रोजगार, सुविधाओं और संसाधन पाने वालों का पलायन रोकने की कल्पना करना, मृगमारीचिका के पीछे भागने जैसा ही है। सरकारों के इस तरह के निर्णयों के पीछे राजनेताओं से लेकर अधिकारियों तक की सुखभोगी नीतियां उत्तरदायी हैं।
गांव का बच्चा जब अधिकारी बन जाता है तो वह भी भौतिक सुख और आश्रितों के उज्जवल भविष्य की कल्पना से महानगरों में ही आशियाना बना लेता है। यही हाल जिले की राजधानी, प्रदेश की राजधानी और देश की राजधानी पहुंच चुके जनप्रतिनिधियों का भी है। कोई भी गांव में वापिस नहीं आना चाहता है।
आखिर आये भी क्यों? उसे पता है कि विकास के मायने महानगरों तक ही सिमटे हुए हैं, संस्थाओं से लेकर संस्थानों तक की स्थापनायें महानगरों में ही हैं, अंग्रेजी में रची बसी संस्कृति ही सम्मानित होती है। तो फिर आने वाली पीढी को विरासत में सम्मान ही क्यों न दिया जाये।
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यह तो है व्यवहारिक दर्पण में दिखने वाली वास्तविक तस्वीर, परन्तु सैद्धान्तिक रूप में आंकडों की बाजीगरी के मध्य गांवों के विकास की चमक आकाशीय गर्जना के साथ पैदा की जा रही है।
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उस पर प्रश्नचिंह अंकित करना, स्वयं के दुर्भाग्य को आमंत्रित करने जैसा है। व्यवस्था के विरोध में स्वर निकलने की संभावनाओं पर ही कानून के चाबुकों की बरसात शुरू हो जाती है और फिर नक्कारखाने में तूती की आवाज सुनने वाला भी कोई नहीं होता। शायद इसी लिए कानून की देवी की आंखों पर पट्टी बांध दी गई है।