डा. रवीन्द्र अरजरिया
उधार लेकर घी पीने की कहावत सुनी जरूर थी परन्तु उसे सरकारों के माध्यम से चरितार्थ होने की निरंतर स्थिति में तीव्रगामी होते पहली बार देखा। सरकारों के बजट पर ईमानदार करदाताओं की खून पिपाषु नीतियां हमेशा से लागू होती रहीं है परन्तु इन दिनों विकास के नाम पर कुछ ज्यादा ही तेज हो रहीं हैं।
क्षेत्र विशेष के कथित विकास को रेखांकित करने वाली परियोजनाओं का निर्माण वातानुकूलित कार्यालयों में करवाने के बाद उसे सत्ताधारी दल द्वारा व्यापक प्रचारित किया जाता है ताकि भविष्य के चुनावी काल में उन्हें उपलब्धियों के रुप में स्थापित किया जा सके। यह अलग बात है कि उन परियोजनाओं के लिए केन्द्र से पैसा उधारी पर उठाया गया हो।
प्रदेश सरकारों के खजाने में पर्याप्त धनराशि न होने के बाद भी ऐसी परियोजनाओं को अमली जामा पहनाने की नीतियां, वास्तव में कहावत को ही पुन: जीवित करती है। प्रशासनिक सेवा की कडी परीक्षायें उत्तीर्ण करने वाले प्रतिभाशाली अधिकारियों से अदूरदर्शिता पूर्ण निर्णय कैसे हो रहे है, यह एक विचारणीय बिन्दु है।
किसी मार्ग पर सीसी रोड का निर्माण करने के पहले क्या यह सुनिश्चित नहीं किया जाना चाहिये कि भविष्य में यहां पर जलापूर्ति हेतु पाइप लाइन, संचार सुविधा हेतु टेलीफोन की लाइन, प्रकाश हेतु बिजली की केबिल, सीवर लाइन आदि डालना पडेगी। योजनावध्द ढंग से परियोजनाओं के निर्माण के दायित्व हेतु आखिर कौन उत्तरदायी है।
सत्ताधारी दल के माननीय या फिर प्रशासनिक व्यवस्था से जुडे लोग। जिस सुगम कच्चे रास्ते पर पहले चौकोर पत्थर लगाकर सुविधायुक्त किया गया था वहीं पर बाद में चीपें लगाने, उसके बाद सीसी रोड बनाने का क्या औचित्य था।
सीसी रोड बनने के बाद उसे पहली बार बिजली की केबिल हेतु तोडा गया, पुन: मरम्मत हुई। दूसरी बार जलापूर्ति हेतु तोडा गया, पुन: मरम्मत हुई और फिर अनेक बार संचार कम्पनियों ने अपनी-अपनी फाइबर लाइन बिछाने के लिए तोडा।
यानी रास्ता आज भी टूटा-फूटा, ऊबड-खाबड ही है। ऐसे में पहले का कच्चा रास्ता ही ठीक था, जो खुदाई के बाद केवल एक ट्राली मुरम डालकर सुगम हो जाता था। बरसाती पानी भी धरती में सूखता, भूमिगत जलस्तर भी ठीक रहता और खर्चा भी कुछ नहीं होता था, परन्तु ऐसे में कथित विकास, विकास के नाम पर खर्च और खर्च से जुडा खर्चा न होने से चंद लोग बेहद दु:खी थे।
धनबल पर समीकरण बैठाने वाले और सम्पत्ति संचय की आकांक्षा रखने वाले दोनों ने मिलकर ईमानदार करदाताओं के पैसे को दुरुपयोग करना शुरू कर दिया। आज सुभाष चन्द बोस, चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, असफाक उल्ला जैसे आदर्श कहीं खो से गये हैं। मुहल्ला के ईमानदार कल्लू भारती की गरीबी पर उसके जुगाडू बेटे आर.एस. भारती की भारी संपत्ति हावी हो गई है।
ऐसे में मुहल्लावासियों के मध्य कल्लू का भारती साहब बन चुका बेटा ही तो आदर्श बनकर उभरा है। इस आधुनिक आदर्श की सीधी पहुंच सरकारी दफ्तरों से लेकर दलगत कार्यालयों तक धनबल पर बन चुकी है। नैतिकता, कर्तव्यपरायणता, दायित्वबोध जैसे शब्द मंचीय भूमिका के दौरान ही कहे-सुने जाते हैं। वास्तिविक व्यवहार में को वे कब के हाशिये पर पहुंच चुके हैं।
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इसे भयावह आहट के रूप में लिया जाना चाहिए। हमारा पडोसी देश इसी मृगमारीचिका के पीछे भागने के कारण ही अपने टापूओं की नीलामी कर रहा है। आखिर उधार लेकर घी पीने का यही तो हस्र होता है। हमें बचना होगा इस उधार लेकर घी पीने की आदत से अन्यथा आने वाला कल हम से अपने अतीत का हिसाब मांगेगा और हम मौन रहकर नतमस्तक होने के लिए बाध्य होंगे।