जुबिली न्यूज डेस्क
एक फरवरी को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने देश का आम बजट पेश किया। इस बजट को लेकर जहां सरकार अपनी पीठ थपथपाती नजर आई तो वहीं आम आदमी इस बजट से मायूस नजर आया।
इस बार के बजट में कोरोना का साया साफ नजर आया। इस बार सरकार ने कई महत्वपूर्ण योजनाओं के बजट में कटौती किया है। जहां शिक्षा क्षेत्र में 6,000 करोड़ रुपये की कटौती की गई है तो वहीं मैला ढोने वालों (मैनुअल स्कैवेंजर्स) के पुनर्वास के लिए चलाई जा रही योजना के बजट में करीब 73 फीसदी की कटौती की गई है।
सबसे खास बात यह है कि वित्त मंत्रालय ने ऐसे समय पर इस योजना के बजट में कटौती की है जब मैला ढोने वालों की संख्या में कम से कम तीन गुना बढ़ोतरी हुई है।
हालांकि पिछले वित्त वर्ष 2020-21 के लिए इस योजना के तहत 110 करोड़ रुपये का आवंटन किया था, लेकिन इस बजट में कटौती (संशोधित) करते हुए इसे 30 करोड़ रुपये कर दिया गया है। यह आवंटित राशि की तुलना में 72.72 फीसदी कम है।
इसके अलावा आगामी वित्त वर्ष 2021-22 के लिए इस योजना का बजट 100 करोड़ रुपये रखा गया है, जो कि पिछले साल की तुलना में कम है।
मालूम हो कि मैला ढोने वालों का पुनर्वास सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की ‘मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए स्व-रोजगार योजनाÓ (एसआरएमएस) के तहत किया जाता है।
इसे लागू करने का काम मंत्रालय की संस्था नेशनल सफाई कर्मचारी फाईनेंस एंड डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएसकेएफडीसी) को दिया गया है।
देश में करीब 56,808 लोग मैला ढोने का कर रहे काम
साल 2018-19 के दौरान एनएसकेएफडीसी द्वारा एक सर्वे कराया गया था जिसमें 42,303 नए मैनुअल स्कैवेंजर्स की पहचान की गई थी। ये लोग 14 राज्यों के 86 जिलों के रहने वाले हैं।
दरअसल ये आंकड़ा वर्ष 2013 में कराए गए पिछले सर्वे के मुकाबले करीब तीन गुना अधिक है। उस वक्त 13 राज्यों में सर्वे कराए गए थे, जिसमें 14,505 मैनुअल स्कैवेंजर्स की पहचान की गई थी।
इस तरह दोनों सर्वे को मिलाकर देश में कम से कम 56,808 लोग मैला ढोने का काम कर रहे हैं। इसमें से करीब 70 फीसदी से भी ज्यादा महिलाएं हैं।
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इस तरह के सर्वे कराने के पीछे सरकार का मकसद ये था कि मैला ढोने वालों की पहचान करके उनका जल्द से जल्द पुनर्वास किया जाए, ताकि पूरी तरह से प्रतिबंधित इस कार्य को खत्म किया जा सके।
हालांकि बीते सोमवार को पेश किए गए बजट के आंकड़े सरकार के दावों पर सवालिया निशान खड़े करते हैं।
कई महीनों तक नहीं जारी हुआ कोई फंड
सरकारी दस्तावेजों से पता चलता है कि मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए पिछले बजट में से करीब छह महीने तक कोई फंड जारी नहीं हुआ था।
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय में राज्य मंत्री रामदास अठावले द्वारा 20 सितंबर 2020 को लोकसभा में पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान मैनुअल स्कैवेंजर्स के पुनर्वास के लिए 15 सितंबर 2020 तक कोई भी फंड जारी नहीं किया गया था, जबकि इसके लिए 110 करोड़ रुपये आवंटित था।
इसके पिछले साल 2019-20 के दौरान भी 110 करोड़ रुपये का फंड आवंटित किया गया था, लेकिन मंत्रालय ने 84.80 करोड़ रुपये ही जारी किया।
वहीं वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान सबसे कम पांच करोड़ रुपये का आवंटन हुआ था, जिसकी वजह से सरकार को काफी आलोचनाओं हुई थी।
बताते चले कि एसआरएमएस योजना के तहत मुख्य रूप से तीन तरीके से मैला ढोने वालों का पुनर्वास किया जाता है।
इसमें ‘एक बार नकदी सहायता’ के तहत मैला ढोने वाले परिवार के किसी एक व्यक्ति को एक बार 40,000 रुपये दिया जाता है। इसके बाद सरकार मानती है कि उनका पुनर्वास कर दिया गया है।
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इसके अलावा मैला ढोने वालों को प्रशिक्षण देकर उनका पुनर्वास किया जाता हैद्घ इसके तहत प्रति माह 3,000 रुपये के साथ दो साल तक कौशल विकास प्रशिक्षण दिया जाता है।
इसी तरह स्व-रोजगार के लिए एक निश्चित राशि (3.25 लाख रुपये) तक के लोन पर मैला ढोने वालों को सब्सिडी देने का प्रावधान है।
भारत सरकार द्वारा संसद में पेश आंकड़ों के मुताबिक साल 2020-21 में 15 सितंबर तक 13,990 मैनुअल स्कैवेंजर्स को 40,000 रुपये की नकद सहायता दी गई थी। हालांकि इस दौरान किसी को भी स्किल डेवलपमेंट की ट्रेडिंग नहीं दी गई।
इसके अलावा 30 लोगों को लोन पर सब्सिडी देने के प्रावधान से लाभान्वित किया गया।
इस तरह साल 2017-18 के दौरान 1171, 2018-19 के दौरान 18079 और 2019-20 के दौरान 13,246 लोगों को एसआरएमएस योजना के तहत ‘एक बार नकदी सहायता’ दी गई है।
वहीं 2017-18 में 334, 2018-19 में 1682 और 2019-20 में 2532 मैनुअल स्कैवेंजर्स को स्किल डेवलपमेंट की ट्रेनिंग दी गई थी।
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प्रतिबंध के बाद भी मैला ढोने का काम हो रहा
देश में पहली बार साल 1993 में मैला ढोने की प्रथा पर प्रतिबंध लगाया गया था। इसके बाद 2013 में कानून बनाकर इस पर पूरी तरह से बैन लगाया गया, बावजूद आज भी समाज में मैला ढोने की प्रथा मौजूद है।
कानून में प्रावधान है कि अगर कोई मैला ढोने का काम कराता है तो उसे सजा दी जाएगी, लेकिन केंद्र सरकार खुद ये स्वीकार करती है कि उन्हें इस संबंध में किसी को भी सजा दिए जाने की कोई जानकारी नहीं है।
इस दिशा में कार्य कर रहे लोगों का आरोप है कि कई राज्य सरकारें जानबूझकर ये स्वीकार नहीं कर रही है कि उनके यहां अभी तक मैला ढोने की प्रथा चल रही है।
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