Monday - 28 October 2024 - 5:06 PM

मायावती की ’कुर्सी’ पर अखिलेश की नजर

जुबिली न्‍यूज डेस्‍क

उत्‍तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव 2022 में होने हैं। बीजेपी समेत सभी दल चुनाव की तैयारियों में लग चुके हैं। सीएम योगी अपने विकास कार्यों के जरिए जनता के बीच जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं तो वहीं कांग्रेस प्रियंका गांधी के नेतृत्‍व में आगे बढ़ रही है।

वहीं कभी यूपी की सत्‍ता की रेस में नंबर एक और दो की पायदान पर रहने वाली समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी अपने वोट बैंक को फिर से मजबूत करने में लगे हैं। अखिलेश यादव सपा का वोट बैंक को बढ़ाने के लिए दूसरे दलों खासकर बसपा के नेताओं को पार्टी में जोड़ रहे हैं तो वहीं मायावती जनता के बीच में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने की नाकाम कोशिश कर रही हैं।

दरसअल, विपक्ष के रूप में पिछले कई सालों से प्रदेश से बसपा गायब है। एक विपक्षी दल के रूप में मायावती अपनी भूमिका का निर्वाहन करती नहीं दिखी हैं बल्कि कई ऐसे मौके देखे गए हैं जब मायावती सरकार के सलाहकार की भूमिका में खड़ी दिखी हैं।

यही वजह है कि बसपा नेताओं और विधायकों के साथ-साथ दलित वोटर का मायावती से मोहभंग हो रहा है और वो अपने नए राजनीतिक विकल्प तलाश रहे हैं। ऐसे में सपा प्रमुख को अपने राजनीतिक स्टैंड भी बदलने पड़ रहे हैं, क्योंकि हाल ही में दलित समुदाय के तमाम नेता सपा में जुड़े हैं।

शायद यही वजह है कि सपा जिस प्रमोशन में आरक्षण का विरोध करती रही है। अब उसी प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे को अमलीजामा पहनाने का वादा कर रहे हैं। लेकिन इसका सियासी फायदा कितना मिलेगा यह देखना होगा।

अखिलेश के इस कदम को मायावती के दलित वोट बैंक में सेंधमारी के तौर पर भी देखा जा रहा है। लंबे समय तक दलितों की आवाज बुलंद करने वाल बसपा सुप्रीमो पिछले काफी समय से जनता और खास कर अपने करीबी नेताओं का भरोसा खोते जा रही हैं। दलित वोटरों और मायावती के बीच बढ़ती दूरियों को अखिलेश यादव भरने की कोशिश कर रहे हैं।

बसपा छोड़ कर सपा में शामिल हुए एक वरिष्‍ठ नेता ने कहा कि मायावती को पहले दलितों का मसीहा कहा जाता था लेकिन अब वो बीजेपी के साथ चली गईं हैं, जिसके बाद दलित वोटर अखिलेश यादव की तरफ देख रहे हैं।

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश की सत्ता में रहते हुए समाजवादी पार्टी हमेशा प्रमोशन में आरक्षण का विरोध करती रही है। मुलायम सिंह यादव से लेकर अखिलेश यादव तक मुख्यमंत्री रहते हुए इसके खिलाफ खड़े रहे और सपा संसद से सड़क तक इसके विरोध में आवाज उठाती रही।

वक्त और सियासत ने सपा प्रमुख अखिलेश यादव को ऐसी जगह लाकर खड़ा कर दिया है कि अब उसी प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे को अमलीजामा पहनाने का वादा कर रहे हैं। माना जा रहा है कि दलित समुदाय को साधने के लिए सपा ने प्रमोशन में आरक्षण पर यूटर्न लिया है।

दरअसल, आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति ने राजनीतिक दलों से मिलकर पदोन्नति में आरक्षण देने की व्यवस्था को लागू करने का अभियान शुरू किया है। इसी कड़ी में संघर्ष समिति के संयोजक अवधेश वर्मा के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल ने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव से सोमवार को मुलाकात कर पदोन्नति में आरक्षण बिल को संसद में पास कराने और पिछड़े वर्गों को भी पदोन्नति में आरक्षण देने की व्यवस्था लागू कराने में मदद करने की मांग की।

इस पर अखिलेश ने भी आश्वासन दिया है कि सपा की सरकार बनने पर प्रदेश में पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था लागू करने के साथ ही रिवर्ट किए गए दलित व पिछड़े वर्ग के कर्मियों को दोबारा प्रमोशन दिया जाएगा।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए मायावती ने प्रमोशन में आरक्षण लागू किया था, लेकिन 2011 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पदोन्नति में आरक्षण के उत्तर प्रदेश सरकार के फैसले को रद्द कर दिया था। इसके बावजूद यूपी की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती दलित समुदाय को प्रमोशन में आरक्षण देती रही।

Quota untenable in promotions | Deccan Herald

हालांकि, उत्तर प्रदेश में सत्ता में अखिलेश यादव के आने के बाद करीब 2 लाख दलित कार्मिकों को रिवर्ट किया गया था, जिन्हें मायावती ने प्रमोशन दिया था। अखिलेश सरकार ने आधिकारिक आदेश के जरिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कर्मियों के लिए पदोन्नति को समाप्त कर दिया था, जिसका जमकर विरोध हुआ था। इस मामले को कोर्ट ने संज्ञान लिया था।

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प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे पर हाईकोर्ट के फैसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई थी। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में अनुसूचित जाति-जनजाति के (SC/ST) कर्मचारियों से संबंधित प्रमोशन में आरक्षण मामले में ऐतिहासिक फैसला दिया था और कोर्ट ने प्रमोशन में आरक्षण पर रोक नहीं लगाई है और साफ कहा कि केंद्र या राज्य सरकार इस पर फैसला ले सकती है। इसी को लेकर आरक्षण बचाओ संघर्ष समिति ने आंदोलन शुरू किया है, जिसके तहत देश के सभी राजनीतिक दलों के अध्यक्ष के साथ मुलाकात कर समर्थन मांग रहे हैं।

सपा प्रमुख ने समिति के लोगों से वादा किया है कि प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनते ही सबसे पहली कैबिनेट की मीटिंग में अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को लागू कराते हुए रिवर्ट कार्मिकों का पूर्व तिथि से सम्मान वापस किया जाएगा और साथ ही पिछड़े वर्गों के लिए भी पदोन्नति में आरक्षण की पूर्व प्राविधानित व्यवस्था को बहाल कराया जाएगा।

जानकारों की माने तो सपा प्रमुख अखिलेश यादव का प्रमोशन में आरक्षण पर ऐसी ही यूटर्न नहीं लिया है बल्कि इसके पीछे सियासी मायने भी हैं। सूबे में 85 विधानसभा सीटें अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित हैं और यहां कुल 23 फीसद दलित मतदाता हैं।

ऐसे में उत्तर प्रदेश में किसी भी पार्टी की सरकार बनवाने और बिगाड़ने में दलित वोटरों की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। अस्सी के दशक तक कांग्रेस के साथ दलित मतदाता मजबूती के साथ जुड़ा रहा, लेकिन बसपा के उदय के साथ ही ये वोट उससे छिटकता ही गया।

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यूपी का दलित समाज दो हिस्सों में बंटा है। एक, जाटव जिनकी आबादी करीब 14 फीसदी है और जो मायावती की बिरादरी की है। इसके अलावा सूबे में गैर-जाटव दलित वोटों की आबादी तकरीबन 8 फीसदी है। इनमें 50-60 जातियां और उप-जातियां हैं और यह वोट विभाजित होता है. हाल के कुछ वर्षों में दलितों का उत्तर प्रदेश में बीएसपी से मोहभंग होता दिखा है।

गैर-जाटव दलित मायावती का साथ छोड़ चुका है। लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में गैर-जाटव वोट बीजेपी के पाले में खड़ा दिखा है, लेकिन किसी भी पार्टी के साथ स्थिर नहीं रहता है। इस वोट बैंक पर कांग्रेस और सपा की नजर है। यही वजह है कि अखिलेश यादव दलित मतदाताओं को साधने के लिए प्रमोशन में आरक्षण रके मुद्दे पर अपने पुराने स्टैंड से हटकर अब दलित के साथ खड़े होना चाहते हैं।

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2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से करीब 2 दर्जन से ज्यादा बसपा नेताओं ने पार्टी को अलविदा कहकर सपा का दामन थाम लिया। इसमें ऐसे भी नेता शामिल हैं, जिन्होंने बसपा को खड़ा करने में अहम भूमिका अदा की थी।

इनमें बसपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दयाराम पाल, कोऑर्डिनेटर रहे मिठाई लाल, पूर्व मंत्री भूरेलाल, इंद्रजीत सरोज, कमलाकांत गौतम और आरके चौधरी जैसे नाम शामिल हैं।

अभी हाल ही में बसपा के पूर्व सांसद त्रिभुवन दत्त, पूर्व विधायक आसिफ खान बब्बू सहित कई नेताओं ने सपा की सदस्यता हासिल की है। इतना ही नहीं कांशीराम के दौर के तमाम नेता मायावती का साथ छोड़ चुके हैं या फिर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है।

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