प्रीति सिंह
एक कहावत है करें कोई लेकिन भरे कोई और। इसका मतलब है दूसरे की गलती की सजा किसी और को मिले। यह कहावत वर्तमान हालात में उन लोगों पर सटीक बैठती है जो लोग वायु प्रदूषण फैलाने के जिम्मेदार हैं।
शहरों में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण मोटर वाहन हैं और उसका सबसे ज्यादा नुकसान रिक्शा चालकों, दिहाड़ी मजदूरों और फुटपाथ पर अपनी रोजी-रोटी जुटाने को मजबूर गरीब महिलाओं और पुरुषों को उठाना पड़ता है। शहरों में रहने वाले एक बड़ा वर्ग को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।
पिछले डेढ़ माह से दिल्ली का वायु प्रदूषण चर्चा में है। लोगों की निगाहे दिल्ली में जगह-जगह लगे एयर क्वालिटी इंडेक्स पर लगी रहती है। किसी-किसी दिन तो दिल्ली की हवा इतनी खराब हो जाती है कि लोगों का सांस लेना दूभर हो जाता है। इसमें सबसे ज्यादा प्रभावित गरीब हो रहा है। अमीर लोग तो अपने घरों में एयर-कन्डिशनर और एयर-प्योरिफायर जैसे यंत्र लगा रहे हैं। इतना ही अमीर लोग ऑक्सीजन बार जाकर शुद्ध वायु का सेवन कर रहे हैं, लेकिन बेचारे गरीब के पास इससे बचने के लिए कोई विकल्प नहीं है।
वायु प्रदूषण एक बहुत गंभीर समस्या बन गई है। भारत में सालाना 16 लाख से ज्यादा लोग वायु प्रदूषण के कारण अकाल मौत के शिकार होते हैं। इतनी बड़ी समस्या के बावजूद सरकारें इससे निजात पाने का प्रयास करती नहीं दिख रही। दरअसल सरकार स्थायी समाधान न ढूंढकर वैकल्पिक समाधान ढूढऩे में लगी है। इसलिए इस समस्या से निजात नहीं मिल रहा।
वैज्ञानिक शोध से पता चला है कि भारत में वायु प्रदूषण की वजह से होने वाली मौतों में से 75 प्रतिशत से ज्यादा मौतें ग्रामीण क्षेत्र में होती हैं। इस तरफ किसी का ध्यान ही नहीं जाता।
चूंकि दिल्ली राजधानी है इसलिए चर्चा में आता है। सबसे बड़ी विडंबना है कि दिल्ली में वायु प्रदूषण के लिए हरियाणा और पंजाब के किसानों को जिम्मेदार ठहराया जाता है। कहा जाता है कि किसानों द्वारा पराली जलाए जाने की वजह से दिल्ली की हवा खराब होती है, जबकि दिल्ली में भारी संख्या में उद्योग धंधे, सड़कों पर प्रतिदिन चलने वाली लाखों की संख्या में वाहन और घरों-दुकानों में लगे लाखों-करोड़ों की संख्या में एयरकंडीशन प्रदूषण बढ़ाने के बड़े जिम्मेदार हैें।
गांवों में वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण घरों के भीतर खाना बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाला लकड़ी का चूल्हा है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर घरों में महिलाएं लकड़ी पर खाना बनाती है और इसका सबसे ज्यादा खामियाजा महिलाओं को भुगतान पड़ता है।
आंकड़ों के मुताबिक पूरी दुनिया में सिर्फ 10 प्रतिशत लोग ग्लोबल वार्मिंग से जुड़ी ग्रीन हाउस गैसों की अधिकतर मात्रा के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन उसका नुकसान पूरी दुनिया,खासतौर से गरीब देशों व गरीब लोगों को उठाना पड़ रहा है। यह ऐसे ही है कि करें कोई लेकिन भरे कोई और।
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पर्यावरण के प्रति पिछले कई सालों से वैज्ञानिक, दुनिया के सभी देशों के सरकारों को आगाह कर रहे हैं, लेकिन हम इंसान अपने अलावा कहां किसी के बारे में सोच पाते हैं। मजबूत अर्थव्यवस्था और विकसित देशों की श्रेणी में आने के लिए जितना प्रकृति का दोहन कर सकते हैं कर रहे हैं।
ग्लोबल वार्मिंग का असर दिखने के बावजूद भी हम अलर्ट नहीं हो रहे हैं। हर साल दुनिया के अधिकांश देशों के राष्ट्राध्यक्ष जलवायु समिट में इकट्ठा होकर कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए हुंकार भरते आ रहे हैं, लेकिन हकीकत में इस पर शायद कोई ही देश अमल कर रहा हो।
ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया भर में प्राकृतिक आपदाओं की संख्या और तीव्रता में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। प्राकृतिक आपदा की वजह से पूरी दुनिया में लाखों-करोड़ों लोगों को विस्थापित होना पड़ रहा है।
उदाहरण के तौर पर वर्ष 2017 में उत्तर व पूर्वी भारत, बांग्लादेश और नेपाल में बाढ़ की वजह से एक हजार से अधिक लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा और करीब चार करोड़ लोगों को अस्थाई विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा।
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इसी प्रकार इस वर्ष के मॉनसून के दौरान भी इन्हीं इलाकों में भीषण बाढ़ के कारण एक हजार तीन सौ से ज्यादा लोगों की मौत हुई और करीब ढाई करोड़ से ज्यादा लोगों को हफ्तों तक अपने घरों से विस्थापित होना पड़ा।
भारत और दूसरे विकासशील देशों में लोगों की गरीबी, घनी आबादी के मुकाबले साधनों की कमी और जनसंख्या के एक बड़े हिस्से
की खेती, पशुपालन व दूसरे प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता की वजह से जलवायु परिवर्तन का असर सबसे ज्यादा होता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे विकसित और विकासशील देशों के बीच के अन्याय के रूप में देखा जाता है, ऐसा इसलिए क्योंकि जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों की कुल मात्रा का करीब 70 प्रतिशत हिस्सा विकसित देशों को ऊर्जा आधारित विकास के लंबे इतिहास से संबंधित है।
शोध के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे कम जिम्मेदार दुनिया भर में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग हैं, क्योंकि उनकी जीवन शैली की सादगी की वजह से जलवायु परिवर्तन करने वाली ग्रीन हाउस गैस में उनका योगदान नगण्य है। फिर भी जलवायु परिवर्तन के सबसे गंभीर परिणाम आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों को ही झेलने पड़ते हैं।
जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार देशों और लोगों के पास प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए साधन ज्यादा होते हैं पर जो देश और खासतौर से वो तबका जो इसके लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं, वही साधनों की कमी की वजह से इन आपदाओं की सबसे अधिक कीमत चुकाते हैं। ऐसा सिर्फ दिल्ली ही नहीं बल्कि दुनिया में हर उस जगह है जहां प्रदूषण की समस्या है।
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