प्रीति सिंह
बाल विवाह रोकने की सरकारी कोशिशों, नियमों और काननू के बावजूद आज भी परंपरा के नाम पर यह धड़ल्ले से हो रहा है। जब भी इस पर सवाल उठता है तो सरकार कहती है कि पहले के मुकाबले इस बार बाल विवाह में कमी आई है, मगर…।
भारतीय समाज संस्कारों का समाज है। जन्म से लेकर मृत्यु तक सिलसिले से विधान हैं। यह सारे विधान वैज्ञानिक संबद्धता एवं मनोविज्ञान पर आधारित है। इन संस्कारों में कुछ ऐसी ऐसी रीति-रिवाज और परम्पराएं हैं जो समाज के समग्र विकास को रोकती हैं। इनमें से ही एक है बाल विवाह।
वह समय और था जब बाल विवाह की अनिवार्यता रही होगी लेकिन आज यह जुर्म है। आज के समय में बाल विवाह लड़कियों के लिए जंजीर की तरह है। सभ्य समाज में बाल विवाह को मानव विकास के लिए एक नकारात्मक सूचक और बड़ी चुनौती के रूप में स्वीकार किया गया है।
इससे बच्चे पूरी शिक्षा हासिल करने से वंचित रह जाते हैं। उन्हें कौशल विकास के अवसर नहीं मिल पाते हैं। विवाह से उपजी जिम्मेदारियां उन्हें पनपने और अपने जीवन के बारे में सपने देखने के अधिकार से वंचित कर देती हैं।
इन अवस्थाओं में बच्चों, खास तौर पर लड़कियों का यौन शोषण भी होता है। कम उम्र के विवाह का परिणाम होता है, कम उम्र में गर्भावस्था और कम उम्र में गर्भावस्था का परिणाम होता है, लड़की के मरने की ज्यादा आशंकाएं, बच्चों में कुपोषण, विकलांगता और शिशु मृत्युदर में बढ़ोत्तरी की आशंका।
बाल विवाह भारत ही नहीं दुनिया के कई मुल्कों में ऐसा हो रहा है। हालांकि बाल विवाह गरीब और अशिक्षित तबके में ज्यादा है। भारत में बाल विवाह की घटनाएं बिहार, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में ज्यादा देखी जा रही हैं जहां 40 फीसदी से अधिक महिलाओं की शादी 18 वर्ष से कम उम्र में हुई।
2020 के पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के निष्कर्ष बताते हैं कि बिहार में 40.8 प्रतिशत, त्रिपुरा में 40.1 प्रतिशत और पश्चिम बंगाल में 41.6 प्रतिशत विवाह कानूनी उम्र से पहले ही हो जाते हैं।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस)का हालिया सर्वेक्षण देश के 22 राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में हुआ। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-पांच के समय आंध्र प्रदेश (12.6 फीसदी), असम (11.7 फीसदी), बिहार (11 फीसदी), त्रिपुरा (21.9 फीसदी), पश्चिम बंगाल (16.4 फीसदी) में 15 वर्ष से 19 वर्ष की आयु वर्ग में सबसे ज्यादा संख्या में महिलाएं या तो मां बन चुकी थीं या गर्भवती थीं।
सर्वेक्षण में बताया गया कि असम में 20 से 24 वर्ष उम्र वर्ग की महिलाओं में से 31.8 फीसदी की शादी 18 साल से कम उम्र में हो गई। वहीं आंध्र प्रदेश में ऐसी महिलाओं की संख्या 29.3 प्रतिशत, गुजरात में 21.8 फीसदी, कर्नाटक में 21.3 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 21.9 प्रतिशत, तेलंगाना में 23.5 फीसदी और दादरा एवं नागर हवेली तथा दमन एवं दीव में ऐसी महिलाओं की संख्या 26.4 फीसदी पाई गई।
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जरा सोचिये कि दुनिया में सबसे आगे होने की चाहत रखने वाले भारत ने 1980 के दशक में कंप्यूटर के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए दिन-रात की कोशिशें शुरू कर दीं। आर्थिक महाशक्ति बनने के लिए 1991 में आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण की घातक नीतियों को तुरंत अपना लिया, पर बाल विवाह को रोकने का कानून वर्ष 2006 में ही आ पाया, क्योंकि रूढि़वादी, जातिवादी और लैंगिक उत्पीडऩ को सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यता देने वाला समाज बच्चों के हितों पर कभी संवेदनशील रहा ही नहीं है। बच्चे उसके लिए पहले उपनिवेश होते हैं और महिलायें दोहरी उपनिवेश, जिन पर पितृसत्तात्मक समाज शासन करता है।
दरअसल बाल विवाह को सामाजिक-राजनीतिक मान्यता भी मिली हुई है। यही कारण है कि भारत की संसद के द्वारा बनाए गए एक बहुत महत्वपूर्ण कानून और नीति को खारिज करने के बाद भी उनके प्रति कोई कार्रवाई नहीं हुई।
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हम-आप अच्छे से जानते ही हैं कि आजकल सरकारें खुद दहेज देने की योजना चलाती हैं और सामूहिक विवाह कार्यक्रमों का आयोजन करवाती हैं। विवाह आयोजनों का उपक्रम सामुदायिक और कट्टरपंथी धार्मिक राजनीति में बड़ा प्रभावशाली महत्व रखता है। यही कारण है कि सरकार समर्थित सामूहिक विवाह कार्यक्रमों में बाल विवाह भी होते हैं।
और तो और इसकी सबको जानकारी होती है, अखबारों में खबर छपती हैं और फिर भी सांसद, विधायक और मंत्री उनमें बाकायदा मौजूदा रह कर ‘बाल-विवाहितोंÓ को आशीर्वाद देते हैं। कानून टूटता है, मगर बच्चे तो उस व्यवस्था की खिलाफत भी नहीं कर सकते हैं, क्योंकि हर कोई उस वक्त उनके खिलाफ खड़ा होता है।