जुबिली न्यूज डेस्क
पिछले कुछ समय से दुनिया के सबसे बड़ी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म फेसबुक विवादों में हैं। उस पर कई गंभीर आरोप लग चुके हैं।
फेसबुक पर आरोप है कि उसने अपनी मार्केट पावर का दुरुपयोग किया है। उसने अपना एकाधिकार कायम रखने के लिए इंस्टाग्राम और व्हाट्सऐप जैसी छोटी प्रतिस्पर्धी कंपनियों को खरीदा। फेसबुक के इस कदम से आम लोगों के सामने विकल्प कम हो गए।
यह आरोप अमेरिका में प्रतिस्पर्धा पर निगरानी रखने वाली सरकारी एजेंसी, फेडरल ट्रेड कमीशन (एफटीसी) समेत 48 राज्यों ने लगाया है। नियामकों का यह भी आरोप है कि ऐसे सौदों से लोगों की निजता खतरे में पड़ी।
अमेरिका में प्रतिस्पर्धा पर निगरानी रखने वाली सरकारी एजेंसी ने फेसबुक के खिलाफ मुकदमा दायर किया है। करीब 18 महीने लंबी दो अलग-अलग जांचों के बाद फेसबुक के खिलाफ यह मुकदमे दायर किए गए हैं।अब अमेरिकी सरकार भी फेसबुक को तोड़ने की राह पर बढ़ रही है।
फेडरल ट्रेड कमीशन के अनुसार फेसबुक ने प्रतिस्पर्धा को खत्म करने के लिए “योजनाबद्ध रणनीति” बनाई। उसने छोटी और तेजी से उभरती प्रतिद्वंद्वी कंपनियों को खरीदा।
फेसबुक ने 2012 में इंस्टाग्राम और 2014 में व्हाट्सऐप की खरीद इसी रणनीति के तहत किया।
फिलहाल फेसबुक दुनिया की सबसे बड़ी सोशल मीडिया कंपनी है। कंपनी की मार्केट वैल्यू 800 अरब डॉलर है। फेसबुक के सीईओ मार्क जकरबर्ग दुनिया के पांचवें सबसे अमीर व्यक्ति हैं।
न्यूयॉर्क की अटॉर्नी जनरल लेटिटिया जेम्स ने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा, “यह बहुत ही ज्यादा जरूरी है कि हम कंपनियों के किसी शिकारी की तरह होने वाले अधिग्रहण को ब्लॉक करें और बाजार पर भरोसा बहाल करें।”
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फेसबुक ने क्या कहा?
2.7 अरब यूजर्स वाली कंपनी फेसबुक ने अमेरिकी सरकार के दावों को “संशोधनवादी इतिहास” करार दिया है। फेसबुक ने आरोप लगाते हुए कहा कि बरसों पहले एफटीसी ने ही इंस्टाग्राम और व्हाट्सऐप के अधिग्रहण की मंजूरी दी थी। अब उसी मंजूरी के तहत हुए सौदों पर विवाद छेड़ा जा रहा है और सफल कारोबार को सजा देने की कोशिश की जा रही है।
वहीं फेसबुक की जनरल काउंसल जेनफिर न्यूस्टेड ने कंपनी का पक्ष रखते हुए एक बयान जारी किया, जिसमें उन्होंने कहा है, “सरकार अब फिर इसे करना चाहती है, वह अमेरिकी कारोबार को ये डरावनी चेतावनी दे रही है कि कोई भी बिक्री कभी फाइनल नहीं है।”
कैसे शुरु हुआ तकरार
एक वक्त था जब पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा समेत दुनिया के अनेक दिग्गज आम लोगों की तरह फेसबुक का खूब इस्तेमाल करते थे।
बड़ी-बड़ी हस्तियां फेसबुक के लाइव इवेंट्स में भी शिकरत करती थीं। टेलीविजन, प्रिंट और रेडियो जैसे पांरपरिक मीडिया के बीच एक नया प्लेटफॉर्म हर किसी को अपनी बात आसानी से सामने रखने का मौका दे रहा था।
देखते-देखते गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसी दिग्गज टेक कंपनियों के बीच फेसबुक ने ऐसी धाक जमाई कि उससे अरबों लोग जुड़ गए।
लेकिन बेशुमार लोकप्रियता के बावजूद फेसबुक पैसा नहीं कमा पा रहा था। कंपनी को एक मारक बिजनेस मॉडल की तलाश थी और यह बिजनेस मॉडल यूजर्स के निजी डाटा से आया।
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यूजर्स क्या देखते हैं, कितनी देर देखते हैं, उनकी आदतें क्या हैं, वे क्या शेयर करते हैं, क्या पढऩा पसंद करते हैं, ये सारी जानकारी कंपनी के लिए बेशकीमती डाटा बन गई।
और सन 2013-14 आते-आते यह डाटा थर्ड पार्टी को लीक होने लगा। इस डाटा के जरिए कैम्ब्रिज एनालिटिका समेत कई कंपनियों ने दुनिया भर में राजनीतिक पार्टियों की मदद की।
साल 2016 के आखिर में इस बात का खुलासा होने लगा कि कैसे फेसबुक की मदद से थर्ड पार्टीज तक डाटा पहुंचा। इस डाटा के आधार पर ब्रेक्जिट अभियान और अमेरिकी चुनावों पर असर डाला गया। यूजर्स की राय बदलने के लिए फेसबुक पर फेक न्यूज की बाढ़ आ गई।
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फेसबुक पर आरोप लगते रहे कि वह मुनाफे के खातिर इन चीजों को नहीं रोक रहा है और इस बीच अमेरिकी राजनेताओं और दुनिया भर में डाटा प्राइवेसी की वकालत करने वालों की नजरों में फेसबुक की छवि खराब हो चुकी थी।
इसके बाद भी कई रिपोर्टें सामने आती रहीं। जुलाई 2020 आते आते फेसबुक, गूगल, एप्पल और एमेजॉन जैसी कंपनियों के सीईओ को अमेरिकी कांग्रेस की समिति के सामने पेश पड़ा।
टेक टायकूनों से पूछे जा रहे सवाल इशारा कर रहे थे कि कभी अमेरिकी नेताओं की आखों का तारा मानी जाने वाली ये कंपनियां अब एकाधिकारवादी होकर मनमानी कर रही हैं। उन पर लगाम कसने की मांग सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों से उठने लगी।
दिसंबर 2020 में फेसबुक के खिलाफ दायर मुकदमे इसी कड़ी की शुरुआत हैं। मांग हो रही है कि एक विशाल कंपनी की जगह कई छोटी कंपनियां बाजार और प्रतिस्पर्धा के लिए ज्यादा बेहतर हैं।