जुबिली न्यूज डेस्क
अंटोनिआ एडवीज उर्फ सोनिया गांधी। इटली में लोग उन्हें अंटोनिआ एडवीज के नाम से जानते हैं तो भारत में सोनिया गांधी। हालांकि भारत में भाजपा के लिए सोनिया गांधी आज भी अंटोनिआ एडवीज ही है।
भले ही भाजपा के लिए सोनिया, अंटोनिआ एडवीज हैं, लेकिन देशवासियों के लिए ऐसा नहीं है। सोनिया के राजनीति में सक्रिय होने के बाद से भाजपा लगातार उनके विदेशी मूल के होने का मुद्दा उठाती रही है, बावजूद इसके भारत की जनता ने उन पर भरोसा जताया और कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाया।
भारतीय राजनीति में सबसे ताकतवर महिला सोनिया गांधी का आज जन्मदिन है। 74 वर्षीय सोनिया पिछले कुछ समय से राजनीति से दूरी बनाए हुए हैं। वर्तमान में वह कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष है लेकिन वह उस तरह सक्रिय नहीं है जैसे पहले थी। पिछले कुछ समय से वह नाइट वाचमैन की भूमिका में नजर आ रही हैं।
22 साल पहले जब सोनिया गांधी ने राजनीति में कदम रखा, तब देश की सियासत में अटल बिहारी वाजपेयी-लालकृष्ण आडवाणी की जोड़ी तूफान मचाए हुई थी। कांग्रेस अंतिम सांसे गिन रही थी और क्षत्रपों के आगे बेबस नजर आ रही थी। ऐसी हालत में सोनिया ने कांग्रेस का नेतृत्व संभालकर न सिर्फ उसे संजीवनी दिया बल्कि राजनीति के शीर्ष पर पहुंचाया।
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विरासत में मिली राजनीति सोनिया गांधी के लिए कभी भी आसान नहीं रही। जितनी मेहनत उन्हें कांग्रेस को खड़ा करने में करनी पड़ी उतनी ही खुद को भारतीय बहू साबित करने के लिए करनी पड़ी। हर कदम पर उन्हें अपने भारतीय होने का सुबूत देना पड़ा, कभी सत्ता से दूरी बनाकर, तो कभी चुप्पी साधकर।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हो या अमित शाह, योगी आदित्यनाथ हो या गिरिराज किशोर, भाजपा के अमूमन नेताओं के निशाने पर आज भी सोनिया गांधी रहती हैं। चुनाव प्रचार के दौरान इन नेताओं की जुबान पर भारत का प्रथम परिवार, इटली और अंटोनिआ एडवीज आता ही है।
बीते 10-12 सालों में ऐसे कई मौके आए जब भाजपा नेताओं ने सोनिया गांधी की राष्ट्रीयता और उनके रंग को लेकर बार-बार टिप्पणियां की। कभी उन्हें ‘जर्सी गाय’ तो कभी उन्हें ‘इटली की गुडिय़ा’ कहा गया। साल 2004 में तो लाल कृष्ण आडवाणी की ‘भारत उदय यात्रा’ के दौरान नरेंद्र मोदी ने सोनिया गांधी को जर्सी गाय और राहुल गांधी को ‘हाइब्रिड बछड़ा’ कहा था। हालांकि बाद में उन्होंने इसके लिए माफी मांगी थी।
सोनिया 1998 से 2017 तक पार्टी की अध्यक्ष रहीं। साल 2004 में उन्होंने पार्टी के चुनाव प्रचार का नेतृत्व किया। ये सोनिया गांधी का करिश्मा था कि अटल बिहारी वाजपेयी की छह साल की उपलब्धियां और शाइनिंग इंडिया, फील गुड का नारा धूमिल पड़ गया और कांग्रेस ने धमाकेदार वापसी कर केंद्र में सरकार बनाई।
सोनिया गांधी ने तब खुद प्रधानमंत्री बनने से इनकार करते हुए इस पद पर मनमोहन सिंह की ताजपोशी का फैसला किया, जिसे आज भी कई सियासी जानकार राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक मानते हैं।
राजनीति में नहीं आना चाहती थी सोनिया गांधी
9 दिसंबर 1946 को इटली के एक छोटे से गांव में जन्मी सोनिया गांधी की राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन हालात ने उन्हें राजनीति में आने पर मजबूर कर दिया।
साल 1991 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के बाद भी कई सालों तक सोनिया गांधी राजनीति से दूरी बनाए रहीं।
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सियासत में उनकी भागीदारी धीरे-धीरे शुरू हुई। पूर्व राष्ट्रपति और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे प्रणब मुखर्जी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि सोनिया को कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय करने के लिए पार्टी के कई नेता मनाने में लगे थे। उन्हें समझाने की कोशिश की जा रही थी कि उनके बगैर कांग्रेस खेमों में बंटती जाएगी और भारतीय जनता पार्टी का विस्तार होता जाएगा।
सोनिया गांधी कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार 1997 में गईं। उन्होंने पद लेने के बजाए पार्टी के लिए प्रचार से अपना राजनीतिक करियर शुरू किया। 1998 में कांग्रेस की कमान संभालने के बाद पार्टी को मजबूत किया।
उस समय न तो वह बहुत ही अच्छे से हिंदी बोलती थीं और न ही राजनीति के दांवपेच से बहुत ज्यादा वाकिफ थी। इसके बाद भी पार्टी पर उनकी पकड़ काबिले तारीफ थी। सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस 1999 का लोकसभा चुनाव लड़ी लेकिन उसे मुंह की खानी पड़ी।
हालांकि राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि वाजपेयी की अगुवाई वाली बीजेपी को 1999 लोकसभा चुनाव में करगिल युद्ध और पोखरण परमाणु विस्फोट का राजनीतिक लाभ मिला।
लेकिन अगले लोकसभा चुनाव के समय बतौर अध्यक्ष सोनिया गांधी की सूझबूझ और सियासी समझ सबसे प्रमुखता के साथ दिखी। उन्होंने सत्तारूढ़ भाजपा के मुकाबले के लिए एक प्रभावी गठबंधन तैयार किया।
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सोनिया कांग्रेस से मिलती-जुलती विचारधारा वाले ऐसे दलों को कांग्रेस के साथ लाने में सफल रहीं, जिनकी राजनीति ही कांग्रेस के विरोध में खड़ी हुई थी। इसका नतीजा यह हुआ कि केंद्र की सरकार में कांग्रेस की वापसी हो गई।
सोनिया गांधी ने जब कांग्रेस की कमान संभाली तो केंद्र में ही नहीं बल्कि राज्यों में भी पार्टी की चूलें दरक चुकी थीं। यूपी व बिहार में तो कांग्रेस का सूपड़ा ही साफ हो गया था। राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों की सत्ता से कांग्रेस बेदखल हो चुकी थी। इन तमाम चुनौतियों को न सिर्फ सोनिया गांधी ने स्वीकार किया बल्कि उन्होंने राज्यों में कांग्रेस को सांगठनिक रूप से मजबूत किया और उसे सत्ता में लाने में कामयाब रहीं।
वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र दुबे कहते हैं कि सोनिया गांधी बतौर अध्यक्ष कांग्रेस को सत्ता के करीब ही नहीं लाईं, बल्कि पार्टी को सांगठनिक मजबूती भी देने का काम किया और राज्यों में मजबूत नेतृत्व तैयार किया। सोनिया गांधी अपने पहले अध्यक्षीय कार्यकाल में बहुत सफल रही थीं, लेकिन अब वे 73 साल की हो चुकी हैं और अस्वस्थ होने के चलते पार्टी को भी उतना समय नहीं दे पा रही हैं, जितना पार्टी अध्यक्ष के रूप में उनसे अपेक्षित है। जाहिर है इसका असर तो पड़ेगा ही।