देश में चल रहे किसान आंदोलन ने कवियों को भी छुआ है । गजलगो देवेन्द्र आर्य ने वर्तमान माहौल पर एक सचेत साहित्यकार की तरह हमेशा ही टिप्पणी की है । उनकी इन गज़लों में भी आप इसे महसूस कर सकते हैं। गोरखपुर में रहने वाले देवेन्द्र आर्य अपनी हिन्दी गज़लों के लिए पहचाने जाते हैं और सामान्य बोलचाल की भाषा में लिखी उनकी गजलें सहज ही मन में उतर जाती हैं।
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खेत खेत तैयारी है
अब किसान की बारी है
देशभक्ति गद्दारी है
पैसा सब पर भारी है
लागत मेहनत खेतिहर की
फ़स्ल प हक़ सरकारी है
गद्दी छिन जाने का भय
संविधान पर भारी है
पैदल चलते कोविड पर
ड्रोन से पहरेदारी है
किसको भेजा है चुन कर ?
किसकी ज़िम्मेदारी है ?
कोई कमी नहीं उसमें
बस थोड़ी ख़ुद्दारी है
उंगली पसरा हाथ हुई
तंत्र ‘लोक’ पर भारी है
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धूप से इमदाद मत लो सायबानो
फ़र्ज़ था सो कह दिया मानो न मानो
पेशगी लो कर्ज़ से छुटकारा पाओ
आ गया बाज़ार दरवाज़े किसानो
शहर भर की गंदगी जाती कहां है
दरिया से अपनी बड़ाई मत बखानो
पा के तुम को खो दिया है मैने क्या क्या
कब समझ पाओगे मुझको मेह्रबानो
क्या करोगे जानकर क़ीमत ज़बां की
ख़ुद हिफ़ाज़त से तो हो ना बेज़बानो !
और कितनी मेड़ें खाएंगे ये खेत
और कितने खेत खाओगे मकानो ?
तीन जुमले हैं मगर तीनों हैं एक
मैं क्या जानू वो क्या जाने तुम क्या जानो
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