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1947 से 2020 तक : ये कहाँ आ गए हम ?

डा. चंद्र प्रकाश राय 

आज़ादी के बाद आज़ादी की लडाई की सूत्रधार, कर्ताधर्ता कांग्रेस थी जिसने कुर्बानियाँ दिया था और बस एक सपना लेकर चली थी की मुल्क को सैकड़ो साल की गुलामी से आजाद करवाना है और तानाशाही शासन से लडते वक्त कहाँ पता होता है की एक दिन अचानक तानाशाह हार कर चल देगा। ये भी तो हो सकता था की लडाई के सारे नायक एक दिन जेलो मे फाँसी चढा दिये जाते या गोलियो से भून दिये जाते ।

आज़ादी मिलने की आहट के साथ कांग्रेस के नेताओ ने सोचना शुरू किया की आजाद देश कैसा बनाना है और चूंकि अंग्रेज लूट ले गया था इसलिए संसाधन का भी अभाव था और उसी मे प्राथमिकता तय करनी थी ।

जवाहर लाल नेहरु ने और साथियो ने तय किया की पहली प्राथमिकता देश को देश की शक्ल देना , शान्ती स्थापित करना और जनता को विश्वास दिलाना है की अब मुल्क हम सबका है और सबको मिल कर बनाना और बढ़ाना है । इसीलिए उन्होने बाँध,सिचाई के साधन नहरे, बिजली , हर स्तर की और हर तरह की शिक्षा , चिकित्सा इत्यादि को प्राथमिकता दिया तो भविष्यदृष्टा होने के कारण आई आई टी, आई आई एम बनाया तो जमीन से लेकर आसमान तक के अनुसंधान की तरफ भी कदम बढाया ।

वो नही चाहते थे की भारत व्यर्थ की चीजो मे पैसा खर्च करे इसिलिए पंचशील सिद्धांत द्वारा पडोसियों को संदेश दिया की लडाइ के बजाय सह अस्तित्व ही विकास की कुन्जी है और इसमे वो चीन से धोखा खा गये जिस गम मे दुनिया से चले भी गये परंतु जाने से पहले प्राथमिकता मे परिवर्तन कर सैन्य क्षेत्र के लिए भी ऐसी नीव रख गये की फिर 1965 से लेकर बंगला देश होते हुये अब तक उस क्षेत्र मे भी भारत दुनिया की चार ताकतो मे शुमार है ।

आज़ादी की लडाई मे देश के साथ नही रहने वाले या गद्दारी तक करने वालो ने आज़ादी से 22 साल पहले एक संगठन बनाया जिसको कुछ लोग रायल सीक्रेट सर्विस भी कहते है और उनका लगातार यह मानना था की अंग्रेज उनके दुश्मन नही है बल्कि मुसलमान और साम्यवादी उनके बड़े दुश्मन है और इस सोच ने अन्ततः ऐसा जहर पैदा किया कि  इस विचार ने आज़ादी के बाद मुल्क ठीक से सम्हला भी नही था कि अहिंसा से इतनी बडी लडाई जीतने वाले बापू की ह्त्या कर दी।

यह विचार देश ही नही दुनिया की निगाह मे अछूत हो गया तो इन लोगो ने नया पैतरा चला और अपना एक राजनीतिक संगठन बनाया और उसका नाम रखा जनसंघ। काफी दिनो तक इस संगठन को भी लोगो ने भाव नही दिया क्योंकि एक तरफ आज़ादी की लडाई मे बड़ी  भूमिका निभाने वाले अलग तरह सोचने वाले ज्ञानी लोगो ने सोशलिस्ट पार्टी बना लिया था जो बहुत प्रभावशाली थी तो राजाओ ने स्वतंत्र पार्टी और कार्ल मार्क्स के विचार भी रुस की क्रांती से दुनिया मे फैल गये थे तो भारत मे भी साम्यवादी पार्टी स्थापित हो चुकी थी ।

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जब विभिन्न दलो के विलय से लोक दल बना था तो राजाओ की स्वतंत्र पार्टी ने आगे चल कर महारानी गायत्री देवी , पीलू मोदी के नेतृत्व मे उसमे विलय कर लिया था ।

साम्यवादी पार्टी ने बंगाल और केरल के साथ अन्य स्थानो पर भी मजबूत पैठ बनायी जो काफी दिन तक रही पर भारत की जमीन और भारत की भाषा और सपने से न जुड़ पाने के कारण और लम्बे समय तक रुस और चीन का पिछ्लग्गू दिखने के कारण उसका क्षरण होता गया ।

सोशलिस्ट पार्टी के नेता डा राममनोहर लोहिया, जो जवाहर लाल नेहरु के मित्र थे और महात्मा गांधी के भी प्रिय थे अज्ञात कारणो या काल्पनिक भविष्य की परिकल्पनाओ के कारण उसी नेहरु के इतने विरोधी हो गये जो हमेशा चाहते थे की आचार्य नरेंद्र देव ,लोहिया और जयप्रकाश इत्यादि कांग्रेस मे ही रहे और नया भारत बनाने मे सत्ता मे शामिल होकर योगदान दे और गांधी जी भी यही चाहते थे पर बापू की आकस्मिक हत्या के कारण यह नही हो पाया और डा लोहिया इतनी दूर निकल गये कि कांग्रेस के सामने अपने को असहाय समझने वाले लोगो को उन्होने एक संजीवनी दे दिया “गैर कांग्रेसवाद ” की और अलग अलग विचार के तथा विचारहीन लोग भी एक नाव पर सवार हो गये ।

और फिर सोशलिस्ट, जनसंघ,साम्यवादी, मुस्लिम लीग तक सब एक नाव पर सवार हो गये।  यद्दपि पूर्व मे भी श्यामाप्रसाद मुखर्जी मुस्लिम लीग के साथ सरकार बना चुके और इस समय काफी जगहो पर कांग्रेस के ही दल बदलुवो के साथ कुछ ही दिनों के लिए सरकार बना लिया जिसने यह संदेश भी दिया और इन लोगो मे आत्मविश्वास भी जगाया की इस फार्मूले से सरकार बनायी जा सकती है और फिर इसी तरह बेमेल खिचड़ी सरकारे बनती रही और गिरती रही ।

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इस बीच पहले ताकत को केन्द्रित करने के चक्कर मे कांग्रेस ने प्रदेशो मे अपने को कमजोर किया तो आपातकाल लगा कर आज़ादी की लडाई की पूंजी को गंवा दिया । फिर भी बाद मे उसके लिए प्रायश्चित किया और देश को इस स्थिति तक ला खड़ा किया की देश दुनिया की 5 बडी अर्थिक और सामरिक ताकतो मे शामिल हो गया लेकिन मजबूत और व्यवहारिक नेतृत्व के अभाव मे अपने को सहेज तथा समेट कर नही रख पाने के कारण कांग्रेस कमजोर होती गई और समझौते करते करते क्षेत्रीय दलो का पिछ्लग्गू भी होती गई काफी बड़े क्षेत्र मे और दूसरी तरफ व्यवहारिक और लचीली राजनीती के अभाव मे अपने मजबूत लोगो को खोती चली गई ।

लोकदल और समाजवादी परिवारवाद को, ऊच नीच की खाई को और 10%बनाम 90%को मुद्दा बना कर चले थे जबकी चौधरी चरण सिंह जब तक जिन्दा रहे उन्होने किसान को राजनीती के केन्द्र मे रखा पर प्रधानमंत्री तक पहुच कर भी खुद अपने कृषि अर्थशास्त्र को फैसलाकुन तरीके से लागू नही कर पाये । परिवारवाद के खिलाफ राजनीती मे आगे बढे हुये सभी सिर्फ परिवार नही बल्की खानदानवाद और जातिवाद के कीचड़ मे धंस गये आगे चल कर और 90 %की लडाई की बस बात करते रहे और खुद खानदान समेत 10% मे शामिल हो गये और जब इसपर कभी सवाल हुआ तो बेशर्म जवाब था की समता के साथ संपन्नता की लडाई लड़ रहे है वो और अभी कुछ लोगो अंबानी अडानी के साथ बैठे है कभी न कभी सब बैठ जायेंगे ।

बापू की हत्या के बाद पूरी दुनिया मे बदनाम हो गये लोगो ने नई रणनीति पर काम किया और भाषा तथा चेहरे पर प्रगतिशीलता का मुखौटा लगा लिया ,यहा तक की अपने संविधान मे गांधीवाद और समाजवाद को भी जोड़ लिया । जनसंघ की स्थापना के बाद के कई अध्यक्षो का नाम तो आज उनके नेताओ को भी नही याद है पर पहले दीन दयाल उपाध्याय के समय मे अन्त्योदय जैसी बातो से लोगो का ध्यान खीचा ।

फिर लोहिया जी और उपाध्याय जी की मुलाकातो ने और साथ ने इनकी कालिख को कम कर समाज मे स्वीकार्यता बढाई तो आपातकाल के बाद जनता पार्टी मे शामिल हो और मंत्री बन कर चेहरे गढ़ने मे कामयाबी मिली जहां अटल बिहारी वाजपेयी के रूप मे रणनीतिक तौर पर एक उदारवादी चेहरा गढा गया और भारत के लिए स्वीकार्य बनाया गया वही अडवाणी जी ने 1977 मे ही सूचना प्रसारण मंत्री बनते ही अखबारो मे संघ के लोगो को भरना शुरू किया और आरएसएस की इच्छानुसार काम शुरू हो गया ।

आगे चलकर विश्वनाथ प्रताप सिंह के रूप मे इन लोगो को एक और मोहर मिल गया और उन्हे राजा नही फकीर बना कर खुद को थोडा और मजबूत कर लिया ।अटल बिहारी वाजपेयी के चेहरे का फायदा उठा जहा केन्द्र से प्रदेश तक सत्ता पायी वही अपना संघी एजेन्डा भी जारी रखा ।

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अन्ततः अन्ना ,विनोद राय जैसो का इस्तेमाल ने तो गुजरात मे हिन्दू अस्मिता का प्रतीक और फिर मॉडल से लेकर अच्छे दिन तक ने आरएसएस को भारी बहुमत की सत्ता तक पहुचा दिया ।

पर किसने किया क्या ? जो कांग्रेस सम्पूर्ण भारत को ही नही बल्कि  गुट निरपेक्ष आंदोलन के नाम पर 100 से ज्यादा देशो को समेट कर चलती थी वो अपने को भी समेटने मे असफल रही पर देश के प्रति समर्पण , दृष्टी , सपनो और संकल्प के कारण उसने जब और जितना मौका मिला देश के लिए सर्वश्रेष्ठ करने की कोशिश किया ।लेकिन साम्यवादियो ने तो जगह जगह कारखाने बंद करवा कर मजदूरो को बेकार ही किया और सही मायने मे मार्क्सवाद का विस्तार करने मे क्या अपने दल को भारतीय परिपेक्ष्य मे ढाल कर मजबूत करने मे पूरी तरह असफल रहे और अब केरल के अलावा नजर ही नही आ रहे है ।

समाजवादी आन्दोलन और लोहिया के विचार कही दफन हो गये और यह अन्दोलन पूंजीपतियो तथा भ्रष्टाचार की चेरी बन खानदान और जाति के मकडजाल मे फड़फड़ा रहा है और अन्तिम सांसे गिन रहा है ।

आरएसएस ने जरूर अपने को बहुत मजबूत बना लिया है और अपना विस्तार पूंजी से सत्ता के हर तंत्र तक कर लिया है ।चुनाव भाजपा लड़ती है और सामने वो दिखती है पर सत्ता का संचालन और फौसले आरएसएस के होते है ।बिना किसी जवाबदेही के सत्ता का पूरा उपभोग कर रहा है ये संगठन और अपने व्यक्तियो की पार्टी के संगठंन पर हर जगह तथा सत्ता और उसके संस्थनो मे हर जगह बैठता जा रहा है और इसके सभी लोग जिन चीजो की बदनामी होती है उन आरोपो से अछूते नही है।

यद्दपि इसका कहना है कि ये संस्कृतिक संगठन है पर वह संस्कृतिक और समाजिक काम सिर्फ फोटो सेशन के अलावा कही दिखता नही, न हिन्दू समाज के दुख दर्द मे ही कही भागीदारी दिखती है । हाँ भाजपा और उसके नेतृत्व का चेहरा अज्ञानता और असफलता के कारण , अव्यव्हारिक फौसलो के कारण जरूर इन 6 सालो मे बदरंग हुआ है ।

आज जहां देश अर्थिक इतिहास की सबसे बड़ी आर्थिक बदहाली का शिकार है तो सबसे बड़ी बेरोजगारी का भी । विदेश नीति के हर मोर्चे पर फ़ेल है तो सारे पडोसियो से सम्बंध खराब किया बैठा है ।चीन ने इतने बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया है तो नेपाल , भूटान और बंगला देश भी आंख दिखा रहे है । जनसंघ का नारा था हर हाथ को काम हर खेत को पानी दोनो पता नही कहा विलुप्त हो गये ,हिन्दी सिसक रही है तो देश की बर्बादी मे हिन्दू भी बर्बाद है और हिंदुस्तान आईने में खुद को पहचानने की असम्भव कोशिश कर रहा है ।दीन दयाल उपाध्याय का अन्त्योदय आखिरी पायदान पर बैठे अंबानी और अडानी की चौकीदारी कर रहा है ।

लिखने को तो बहुत कुछ है पर सोचने को सिर्फ इतना है कि क्या इसी के लिए इतनी लम्बी आज़ादी की लडाई चली ? क्या इसीलिए लाखो ने कुर्बानी दिया ? क्या बापू ,भगत ,सुभाष से नेहरु तक के ख्वाब इसी तरह चकनाचूर हो जायेंगे ? क्या राजनीतिक दल ऐसे ही अपनी स्वीकार्यता खोते रहेंगे अपने कर्मो से और विचलन से?  क्या भारत  आरएसएस और उसके गुरु गोल्वल्कर के सपनो का हिटलर वाला भारत बन जायेगा जहां  सिर्फ और सिर्फ मौत का तांडव और बर्बादी ही बर्बादी होगी ।

और ये भी कि—ये कहा आ गये हम ?

(लेखक स्वतंत्र राजनीतिक चिंतक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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