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कोरोना महामारी, भारत और कुपोषण

प्रीति सिंह

पिछले महीने बच्चों से जुड़ी एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी जिसमें कहा गया था कि कोरोना महामारी की वजह से गरीबी और बढ़ेगी और इसका सबसे ज्यादा प्रभाव बच्चों पर पड़ेगा।

20 अक्टूबर को “ग्लोबल एस्टिमेट ऑफ चिल्ड्रन इन मोनिटरी पॉवरिटी: एन अपडेट” ने एक रिपोर्ट जारी किया था जिसमें आशंका जताई गई थी कि कोविड-19 के कारण हालात और ज्यादा बदतर हो सकते हैं। कोरोना महामारी आने के बाद से ऐसी कई रिपोर्ट सामने आ चुकी है जिसमें आशंका जतायी गई है कि गरीबी बढऩे की वजह से कुपोषण के मामले भी बढेंग़े।

20 साल पहले जब दुनिया में कुपोषण की बात की जाती थी तो दिमाग में एक दुबले-पतले बच्चे की छवि आती थी, जिसे भरपेट खाना पहीं मिलता था। समय बदलने के साथ कुपोषण के मायने भी बदल गए। आज भी देश-दुनिया में करोड़ों बच्चे कुपोषित हैं लेकिन तस्वीर कुछ और ही है। अफ्रीका छोड़कर दुनिया के अधिकांश देशों में ऐसे बच्चों की संख्या में कमी आई है जिनकी वृद्धि अपनी आयु के मुकाबले कम है।

भारत में हालात और भी बदतर हैं। यहां करीब 50 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं और अब कोरोना महामारी की वजह से यह आंकड़ा और बढ़ सकता है। जर्नल ऑफ ग्लोबल हेल्थ साइंस में प्रकाशित एक शोधपत्र की मानें तो और सरकार द्वारा महामारी से निपटने के लिए उठाए गए कदम लाखों अन्य बच्चों को कुपोषण के खतरे में डाल देंगे। शोध पत्र में कहा गया है कि अकेले झारखंड में 3.5 लाख बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित हो सकते हैं और अन्य 3.6 लाख बच्चों का वजन सामान्य से कम हो सकता है।

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दरअसल कोरोना महामारी आने के बाद से बहुत से राज्यों में “अप्रैल के बाद से आंगनवाडिय़ों में बच्चों को भोजन नहीं मिल रहा है, क्योंकि उस समय उन्हें या तो क्वारंटाइन सेंटर बना दिया गया था या महामारी के कारण बंद कर दिया गया था।”

यह बड़ा सच है कि कई बच्चों के लिए आंगनवाड़ी केंद्रों में परोसा जाने वाला खाना दिन का एकमात्र पौष्टिक भोजन होता था। बावजूद इसके तालाबंदी की वजह से इन ग्रामीण बाल देखभाल कार्यक्रमों को चलाने के लिए जिम्मेदार महिला स्वयं सहायता समूहों में से किसी ने भी फरवरी-मार्च के बाद से भोजन नहीं बनाया है। इस तरह के व्यवधानों के नतीजे भयावह हो सकते हैं।

केंद्र सरकार कितना भी दावा कर ले कि कोरोना काल में देश में कोई भी गरीब भूखा नहीं सोया है। सरकार ने सबको राशन उपलब्ध कराया है, लेकिन यह भी बड़ा सच है कि सिर्फ चावल, आटा और चना से भूख तो मिटाई जा सकती लेकिन से सेहतमंद खाना नहीं कहा जा सकता।

भारत में कोरोना महामारी आने के बाद से सरकार का सारा ध्यान कोरोना से निपटने में लगा रहा है और कुपोषण आदि से जुड़ी लगभग सारी योजनाएं ठप पड़ गई। जाहिर है इसका खामियाजा आने वाले समय में भुगतना ही पड़ेगा।

फिलहाल ऐसी ही कुछ चेतावनी जर्नल ऑफ ग्लोबल हेल्थ साइंस में प्रकाशित शोधपत्र “लिविंग ऑन द एज : सेंसटिविटी ऑफ चाइल्ड अंडरन्यूट्रिशियन प्रिवेलेंस टू बॉडीवेट शॉक इन द कांटेस्ट ऑफ द 2020 नेशनल लॉकडाउन” पत्र में दी गई है। पत्र में कहा गया है कि झारखंड में 5 लाख बच्चे वेस्टेड हो सकते हैं और 4 लाख गंभीर रूप से वेस्टेड हो सकते हैं।

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साभार : DTE

दरअसल किसी बच्चे को वेस्टेड तब कहा जाता है जब उसकी ऊंचाई के हिसाब से उसका वजन कम होता है। खराब आहार या दस्त जैसे संक्रामक रोगों की वजह से बच्चे वेस्टेड होते हैं। वहीं आयु के अनुपात में कम वजन वाले बच्चों को “अंडरवेट” कहा जाता है। एक अंडरवेट बच्चा वेस्टेड अथवा स्टंटिंग (नाटेपन) अथवा दोनों का शिकार हो सकता है।

शोधपत्र में कहा गया है कि यह समस्या सिर्फ झारखंड में ही नहीं बल्कि देश के बाकी हिस्सों में भी देखने को मिल सकती है। खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में।

शोधपत्र के अनुसार फूड शॉक (लॉकडाउन के कारण पौष्टिक भोजन की उपलब्धता में आया व्यवधान), बिहार, उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश में सर्वाधिक महसूस किया जाएगा। शोधकर्ताओं ने चेताते हुए कहा, “इन राज्यों में गरीबी के अलावा मातृ मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर और सार्वजनिक स्वास्थ्य और पोषण सेवाओं की कम कवरेज के साथ उच्चतम बाल जनसंख्या है।” तालाबंदी के फलस्वरूप केवल इन तीन राज्यों में पांच लाख से अधिक बच्चे कुपोषण का शिकार बन सकते हैं।

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शोधकर्ताओं के इस अध्ययन का आधार 2015-16 का नवीनतम नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे है। इस सर्वे के मुताबिक भारत में हर दूसरा बच्चा पहले से ही कुपोषित है। इसका मतलब है कि हमारे देश में लगभग 7.7 करोड़ बच्चे कुपोषि हैं। यह झारखंड, तेलंगाना और केरल की संयुक्त जनसंख्या के बराबर है।

शोधकर्ताओं ने अपनी रिपोर्ट में मौजूदा परिदृश्य में चुनौती को देखते हुए इस बात पर जोर दिया है कि सरकार के लिए संक्रमण से बचाव करते हुए, गरीब बच्चों को पौष्टिक भोजन और अन्य पोषक पदार्थों की खुराक की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है। शोध का निष्कर्ष है कि ये अनुमान असल खतरे से कम भी हो सकते हैं और इन व्यवधानों के फलस्वरूप भारत के पोषण व स्वास्थ्य पर विनाशकारी प्रभाव पड़ सकता है।

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