डॉ. उत्कर्ष सिन्हा
दुनिया में सबसे ज्यादा सुरक्षित और निश्चिंत माने जाने वाले यूरोप में इस वक्त नई हलचल मची हुई है। कुछ घटनाओं ने ये साफ संकेत देने शुरू कर दिए हैं कि यूरोप के भीतर मुस्लिम कट्टरपंथियों का एक ऐसा नया गुट पनप रहा है जिसे अपने धर्म के नाम पर हिंसा करने से गुरेज नहीं है।
इस हिंसा का ताज़ा केंद्र बना है वो फ्रांस जिसने दुनिया को समानता, स्वतंत्रता और आजादी का मंत्र दिया और सामंतवादी समाज से बाहर निकाल कर पूरी दुनिया में लोकतंत्र की नीव रखी।
उसी फ्रांस में कट्टरपंथियों ने एक के बाद एक कई हमले शुरू कर दिए हैं। फ्रांस के पूर्वी समुद्र तटीय शहर नीस में एक चर्च के बाहर जब एक शख्स ने कुछ लोगों पर चाकू से हमला किया तो वो ‘अल्लाह हू अकबर’ के नारे लगा रहा था। इस कट्टरपंथी ने 3 लोगों को मार दिया और कइयों को घायल किया। एक महिला का सिर काट दिया गया।
ये अकेला मामला नहीं है । घटना के दो हफ्ते पहले भी पैगंबर कार्टून विवाद में एक शिक्षक की गला रेत कर हत्या कर दी गई थी।
इन घटनाओ का संबंध बहुत आसानी से 7 जनवरी 2015 को पेरिस में मशहूर व्यंग्य पत्रिका चार्ली ऐब्दो के दफ्तर में हुए आतंकी हमले की घटना से जुड़ता है जिसमे 20 लोगों की मौत हुई थी और उसके कुछ महीनों बाद 13 नवम्बर 2015 को राजधानी पेरिस में एक बड़े आतंकी हमले में कम से कम 140 लोगों के मारे जाने और 55 लोगों के गंभीर रूप से घायल होने की खबर ने यूरोप सहित पूरी दुनिया को हिला दिया था।
माना गया कि इस घटना को अंजाम देने वाले कुछ आतंकी बेल्जियम भाग गए और वहाँ की राजधानी ब्रूसेल्स में छिपे । यूरोपीय देशों की खुफिया एजेंसियों का मानना है कि ब्रूसेल्स फिलहाल इन कट्टर पंथी समुदाय का एक मजबूत ठिकाना बनता जा रहा है।
यूरोप का संकट सिर्फ इतना नहीं है । यूरोप और एशिया के बीच सीन बना हुआ तुर्की फिलहाल इस्लामिक कट्टरपंथ का नया गढ़ बन गया है। तुर्की के राष्ट्रपति आरदोगन के ऊपर मुस्लिम देशों के खलीफा बनने का ऐसा नशा सवार है कि वो हर उस विवाद में हाँथ डाल रहे हैं जिससे अमेरिका समर्थक देशों में संकट बढ़े।
यूरोप के ताजा कट्टरपंथी हमलों को देखने के दो तरीके हैं। पहला – पैगंबर मुहम्मद के चित्रों (जिनकी इस्लाम में मनाही बताई जाती है) का सार्वजनिक होने पर मुसलमानों की भावना भड़कना। इस मामले में दूसरे धर्मों के लोगों का तर्क यह है कि जब हर धर्म के ईश्वर या दूत के चित्र बनते हैं तो मुहम्मद साहब के चित्रों में आपत्ति क्यों होनी चाहिए ? लेकिन यहाँ यह सवाल भी आता है कि हर धर्म ने अपने लिए नियम बनाए हैं और उस धर्म के अनुयाईं उसका पालन करने को स्वतंत्र है, साथ ही दूसरे किसी के धर्म में दखल देना उचित नहीं है।
लेकिन ये तार्किकता भावनाओं से बहुत दूर होती है। भारत में भी गो वंश की हत्या/ रक्षा के मामलों में हम ये लगातार देखते आए हैं।
दूसरी बात अंतरराष्ट्रीय राजनीति से जुड़ती है। दुनिया भर के इस्लामिक देशों के संगठन में इस वक्त नेतृत्व को ले कर एक बड़ी लड़ाई छिड़ी हुई है। सऊदी अरब पर अमेरिका परस्ती के आरोप लगा कर कई मुस्लिम राष्ट्र फिलहाल सऊदी अरब के खिलाफ खड़े हैं। ऐसे में अतीत के इतिहास को आधार बना कर तुर्की आगे आया है जहां के खलीफा को कभी दुनिया भर के मुस्लिम अपना नेता मानते थे।
ये बात अलग है कि तुर्की में हुई सामाजिक क्रांति के बाद खुद तुर्की ने कट्टरपंथ को अपने देश से विदा कर प्रगतिशीलता का एक नया स्वरूप दिया और बदलती दुनिया के लिए एक मिसाल बना था।
लेकिन फिलहाल ग्लोब के पूरब से पश्चिम तक हर हिस्से में अतीतजीवी राजनीति तेज दिखाई दे रही है।
सीरिया में जब आईएसआईएस अपने चरम पर था, तब भी तुर्की पर ये आरोप लगते रहे थे कि आतंकियों को हथियार और तेल बेचने में मदद तुर्की ही करता है। लेकिन उस वक्त तुर्की अमेरिका के नजदीक भी माना जाता था।
अब तुर्की अपनी भागोलिक स्थिति के इर्द गिर्द अगर अपने प्रभाव को बढ़ाने में लगा है तो उसका खामियाजा यूरोप को भुगतना पड़ रहा है। कुछ चिंतकों का यह भी मानना है कि अमेरिका मे काबिज रिपालिकन्स और अमेरिका के नजदीकी साथी इसराईल को अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिए दुनिया में मुस्लिम कट्टरपंथ को जिलाये रखना जरूरी है और पश्चिम एशिया में रूस के मजबूत दखल के बाद जब शांति है तो यूरोप में हलचल का नया इलाका बनना उसे भी मुफीद होगा।
यूरोप में बड़ी संख्या में अरब और पश्चिम एशिया से मुसलमान आ कर बसे जरूर हैं लेकिन वे यूरोप के समाज और संस्कृति के साथ समरस नहीं हुए। इसे चाहे माईनराइटी काम्प्लेक्स कहें या धार्मिक कट्टरता मगर ये बात साफ दिखाई देती है कि चाहे ये प्रवासी हो या शरणार्थी, वे अपने रहन सहन और संस्कृति को बचाने के नाम पर काफी हद तक अलग थलग रहे हैं।
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इनमे से बहुतों का मानना है कि उन्मुक्त जीवन-शैली वाला स्थानीय समाज भोग-विलास और स्वच्छंद स्त्री-पुरुष संबंधों वाला एक ‘पतित समाज’ है। उचित यही है कि वे इससे दूर ही रहें।
इस वजह से यूरोपीय समाज में एक लाईन खींच गई है। कई यूरोपीय देशों के मूल निवासी अब मुसलमानों से कतराने लगे हैं। दोनों ओर एक-दूसरे के प्रति अविश्वास और पूर्वाग्रह पनपने लगे हैं। यूरोप, उत्तरी अमेरिका और पूर्व एशिया में मुसलमानों की छवि आतंकवादी के रूप में कैद हो गई है, और “रूढ़िवादी”, “अतिवादी” या “कट्टरपंथी” का लेबल दिया जाने लगा है।
निश्चित रूप से यह छवि न तो दुनिया के लिए अच्छी है और न ही खुद मुस्लिम समाज के लिए।
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पहले से ही धीमी अर्थव्यवस्था से जूझ रहे यूरोप में अब ये नया संकट आ गया है । यूरोप फिलहाल दुविधा में है। उसके सामने एक तरफ तो यूरोपीय मूल्यों को बचाने की चुनौती है जिसमे व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मानवाधिकार सर्वोपरि है और दूसरी तरफ लगातार होती कट्टरपंथी घटनाएं उसके इन मूल्यों को हिला रही हैं।
जाहिर है इसे निकालने की रणनीति बनाना इतना आसान भी नहीं है।
जातीय और सामाजिक तनाव का सामना करते यूरोप का केंद्र फिलहाल फ्रांस बन गया है । यूरो के बड़े देशों में फिलहाल उत्तरी अफ्रीका और मध्य पूर्व से अनेकानेक बदहाल शरणार्थी, ज्यादातर सीरिया गृह युद्ध से तबाह लोग यहां आकर पनाह ले रहे हैं। शरणार्थी नीतियों को ले कर अभी बहस जारी है। इन विकट परिस्थितियों में फंसा यूरोप आतंकवाद के नए स्वरूप से भी जूझने लगा है।
इस बीच यूरोप के दक्षिण पंथियों ने नया नारा देना शुरू कर दिया है । उनका कहना है कि आतंकवाद सार्वजनिक सुरक्षा और मानवीय मूल्यों के लिए खतरा है, इसलिए “खतरनाक रोगों का इलाज खतरनाक उपचार से ही होना चाहिए।” यूरोप को अपनी “कल्याण नीति” को बदलना होगा और कुछ समुदायों के बीच “जीने के लिए काम” के शासन को बढ़ावा देने पर विचार करना चाहिए।
दुनिया की सबसे ज्यादा सुकून वाली जगह फिलहाल जिस मोड पर खड़ी है वहाँ से तय होने वाला रास्ता ही यूरोप का भविष्य है।
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